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चंद्रकीर्ति के 'मध्यमकावतार' का तीसरा दिन October 5, 2018

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थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., आज प्रातः चुगलगखंग पहुंचने और श्रोताओं का अभिनन्दन करने के बाद, परम पावन दलाई लामा ने आसन ग्रहण करने से पूर्व सिंहासन पर खड़े होकर बुद्ध, अवलोकितेश्वर और तिब्बत के तीन धार्मिक राजाओं की प्रतिमाओं के समक्ष सम्मान व्यक्त किया। पालि में मङ्गल सुत्त के सस्वर पाठ के उपरांत चीनी में 'हृदय सूत्र' का पाठ किया गया। 

परम पावन ने प्रारंभ किया "कई वर्ष पहले सिंगापुर में, मैं एक समारोह में सम्मिलित हुआ जिसमें वयोवृद्ध भिक्षुओं ने चीनी में 'हृदय सूत्र' का पाठ किया। मैं यह सोचते हुए अत्यंत भावुक हो गया कि किस तरह बुद्ध की शिक्षाएं एक बार चीन में फैली थीं और उस परंपरा को पुनर्जीवित करने में सहायता करने के लिए जो कुछ भी संभव था उसे करने की कामना की।

"हाल ही में, मैंने दिल्ली में कई देशों से आए बौद्ध भिक्षुओं से भेंट की। यह समझाते हुए कि मुझे औपचारिकता अच्छी नहीं लगती और मैं खुला व सीधा होना पसंद करता हूं, मैंने उनसे कहा कि मैं कभी-कभी प्रश्न करता हूं कि आज भी विश्व में धर्म प्रासंगिक है अथवा नहीं। मेरी अपनी भावना है कि यह है, क्योंकि सभी धार्मिक परम्पराएं करुणा के गुणों की प्रशंसा करती हैं, ऐसा कुछ जिसकी आवश्यकता हम सभी के लिए बनी रहती है।

"जानवरों की तरह हम मनुष्यों के पास ऐन्द्रिक चेतनाएं होती हैं, पर साथ ही हमारे पास एक अद्भुत बुद्धि भी है जिसके आधार पर हम सुख प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु अधिकांश लोग, अपनी मानसिक क्षमता का उचित आकलन नहीं कर पाते और इसके बजाय ऐन्द्रिक संतोष में आनंद लेते हैं। जब चित्त विचलित होता है तो, ऐन्द्रिक आनन्द इसे सहजता नहीं दे सकते, पर यदि आपके चित्त में शांति है तो जो भी बाहर हो रहा हो, उससे आप कम विचलित होंगे। हमें अपनी बुद्धि का पूरा उपयोग करना होगा।

"एकाग्रता और अंतर्दृष्टि विकसित करना, जिसका परिणाम प्रज्ञा है, प्राचीन भारतीय परम्परा का अंग है। अन्य धार्मिक परम्पराएं आत्मानुशासन, सहिष्णुता इत्यादि का सुझाव देते हैं, पर बौद्ध धर्म विशेष रूप से हमारे चित्त को परिवर्तित करने के लिए हमारी बुद्धि को व्यवहृत करने की सलाह देता है। हम सब के पास कठिनाइयां खड़ी करने के बजाय सुख प्राप्त करने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करने का अवसर है।

"प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान में ध्यान की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। ऐसे आध्यात्मिक अभ्यासी थे जो काम लोक की पीड़ाओं और सुखों के कारण उसे समस्यापूर्ण मानते थे, जबकि ध्यान निष्पत्ति द्वारा प्राप्त अधिक उत्कृष्ट रूप व अरूप लोक को शांतिपूर्ण और आकर्षक माना जाता था। बुद्ध ने देखा कि रूप व अरूप लोक भी उतने ही समस्यापूर्ण हैं जितना कि काम लोक, क्योंकि वहां के सत्व भी अज्ञान के अधीन थे। वह समझ गए कि नैरात्म्य का अनुभव करना ही उपचार था। उन्होंने देखा कि जब अज्ञान समाप्त हो जाता है, तो सभी शेष क्लेश भी वश में आ जाते हैं।"

उन्होंने कहा कि विशिष्ट क्लेशों के प्रतिकार के लिए विशिष्ट ध्यान हैं - उदाहरणार्थ - मोह का प्रतिकारक वितृष्णा पर चिंतन है - पर सभी क्लेशों का प्रतिकारक नैरात्म्य की अनुभूति है। उन्होंने सांवृतिक तथा परमार्थिक बोधिचित्त की स्तुति में 'मध्मकावतार' के अध्याय छः के २२४- २२६ छंदों को उद्धृत किया, जिसे नागार्जुन पुण्य व प्रज्ञा संभार के स्रोत के रूप में वर्णित करते हैं जो अंत में सत्य तथा बुद्ध के कायों को जन्म देता है।

२२४
और यद्यपि अपने प्रज्ञा प्रकाश में प्रकाशित, बोधिसत्व देखते हैं
स्पष्ट रूप से हरीतकी फल के रूप में जो उनकी हथेली पर है।
त्रिलोक प्रारंभ से ही अजन्मा, सांवृतिक सत्य के संदर्भ में, वे निरोध में चले जाते हैं।

२२५ और यद्यपि उनके चित्त निरंतर उसमें विश्राम करते हैं,
उनके हेतु वे करुणा जनित करते हैं जो सुरक्षा विहीन होकर बहते हैं।
बुद्ध के वाक् से जन्मे और बुद्धत्व के आधे मार्ग पर अब से उनकी प्रज्ञा से ढंक जाते हैं।

२२६ और हंस के राजा की तरह, लघु पक्षियों से आगे वे उड़ते हैं,
सांवृतिक और परमार्थिक के श्वेत उन्मुक्त खुले पंखों पर।
और पुण्य की प्रबल वायु की शक्ति पर वे उड़ते हैं
दूर और परम तट पर, विजय के सागरिक गुणों को प्राप्त करने हेतु।

ग्रंथ को पुनः लेते हुए, परम पावन ने वहां से पढ़ना जारी किया जहां वे कल रुके थे। यहां वहां टिप्पणी करने और स्पष्ट करने के लिए रुकते हुए वे निरंतर आगे बढ़े। जब वह अंत तक पहुंचे तो उन्होंने अपने श्रोताओं से आग्रह किया कि वे प्रबुद्धता के गहन दृष्टिकोण से परिचित होने के पुण्य संभार को समर्पित करें।

मंदिर से प्रस्थान करने से पूर्व परम पावन ने घोषणा की कि वे कल अवलोकितेश्वर, जो दुर्गतियों से मुक्ति प्रदान करते हैं, की अनुज्ञा देने से पहले जे चोंखापा के 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार' को समझाएंगे।

  • सभी सामग्री सर्वाधिकार © परम पावन दलाई लामा के कार्यालय

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