परम पावन 14 वें दलाई लामा
मेन्यू
खोज
सामाजिक
भाषा
  • दलाई लामा
  • कार्यक्रम
  • तस्वीरों में
  • वीडियो
हिंदी
परम पावन 14 वें दलाई लामा
  • ट्विटर
  • फ़ेसबुक
  • इंस्टाग्राम
  • यूट्यूब
सीधे वेब प्रसारण
  • होम
  • दलाई लामा
  • कार्यक्रम
  • समाचार
  • तस्वीरों में
  • वीडियो
  • अधिक
सन्देश
  • करुणा
  • विश्व शांति
  • पर्यावरण
  • धार्मिक सद्भाव
  • बौद्ध धर्म
  • सेवानिवृत्ति और पुनर्जन्
  • प्रतिलिपि एवं साक्षात्कार
प्रवचन
  • भारत में प्रवचनों में भाग लेने के लिए व्यावहारिक सलाह
  • चित्त शोधन
  • सत्य के शब्द
  • कालचक्र शिक्षण का परिचय
कार्यालय
  • सार्वजनिक दर्शन
  • निजी/व्यक्तिगत दर्शन
  • मीडिया साक्षात्कार
  • निमंत्रण
  • सम्पर्क
  • दलाई लामा न्यास
पुस्तकें
  • अवलोकितेश्वर ग्रंथमाला 7 - आनन्द की ओर
  • अवलोकितेश्वर ग्रंथ माला 6 - आचार्य शांतिदेव कृत बोधिचर्यावतार
  • आज़ाद शरणार्थी
  • जीवन जीने की कला
  • दैनिक जीवन में ध्यान - साधना का विकास
  • क्रोधोपचार
सभी पुस्तकें देखें
  • समाचार

नई दिल्ली में परम पावन दलाई लामा की बच्चों और बड़ों से भेंट ५/अप्रैल/२०१३

शेयर

नई दिल्ली, भारत - 22 मार्च, 2013

आज प्रातः परम पावन ने कक्षा 10-12 के भारतीय छात्रों को सम्बोधित किया, जो दिल्ली तथा उसके आसपास के विभिन्न स्कूलों में पढ़ते हैं। वे बड़े उत्साह से उनसे मिले।

“छोटे भाइयों और बहनों, मैं आप सब से मिलकर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं 78 वर्ष का हूँ और मेरे जीवन में कई उतार चढ़ाव आए हैं, पर जो मैं आपसे कहना चाहता हूँ, वह यह है कि हमारी कई समस्याएँ, जिनका हम सामना करते हैं वे मानव निर्मित हैं। हमने उन्हें खड़ा  किया और हमारे पास उन्हें दूर करने का अवसर भी है।”

उन्होंने अपने को बीसवीं शताब्दी का बताते हुए इसे जहाँ बड़ी उपलब्धियों का समय बताया, वहीं हिंसा का भी युग बताया।


यदि उस हिंसा के कुछ अच्छे परिणाम निकलते तो उसका कुछ औचित्य भी होता पर उससे करोड़ों को अत्यंत दुःख पहुँचा। आज जो भी हिंसा हम देख रहे हैं वह हमारी पुरानी गलतियों के लक्षण हैं।

उन्होंने कहाः “आप युवा लोग जो कि इक्कीसवीं शताब्दी के हैं, के पास एक अधिक शांति पूर्ण विश्व बनाने का अवसर है। संघर्ष की संभावनाएँ तो बनी हुई हैं, पर हमारे विभिन्न विचारों और रुचियों के बाद भी बल प्रयोग के स्थान पर संवाद के माध्यम से शांति बनाई रखी जा सकती है।”

उन्होंने अपने श्रोताओं को स्मरण दिलाया कि आज जीवित सात अरब मनुष्य एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और उन्हें ऐसा करने के प्रयास का पूर्ण अधिकार है। हमें संघर्ष के समय भी उनके अधिकारों के सम्मान को स्मरण रखने की आवश्यकता है।

“दूसरों के अधिकारो तथा जीवन का सम्मान करना भारत की अहिंसा परम्परा का आधार है। जैसे जैसे जनसंख्या बढ़ती है, मौसम परिवर्तन बढ़ता है और प्राकृतिक संसाधनों का क्षय होता है, वैसे वैसे स्वार्थों में संघर्ष की अधिक संभावना होती है,परन्तु हमें ऐसी चुनौतियों का सामना करने के लिए अहिंसात्मक उपाय ढूँढने  होंगे।”

परम पावन की यह बात छात्रों ने अत्यंत ध्यान से सुनी कि उन्हें नई  पीढ़ी के सदस्यों से मिलकर बहुत प्रसन्नता है, जो कि सही अर्थों में इक्कीसवीं शती के हैं और भारतीय हैं। उन्होंने याद दिलाया कि किस तरह तिब्बत भारत का ऋणी है, इतने विशाल तिब्बती ज्ञान का स्रोत। तिब्बती स्वयं को भारतीय गुरुओं का चेला मानते हैं, पर उन्होंने स्वयं को विश्वसनीय चेला सिद्ध किया है क्योंकि बौद्ध धर्म को अपनी ही जन्मभूमि में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, तिब्बतियों ने उस ज्ञान को ज्यों का त्यों बनाए रखा। निजी तौर पर  उनके मानना है कि,

“मैं प्रायः स्वयं को भारत का पुत्र कहता हूँ क्योंकि मेरा मस्तिष्क भारतीय विचारों से भरा है और विगत 50 वर्षों से भी अधिक मेरे शरीर का पोषण भारत के चावल, दाल और रोटी से हुआ है।”


उन्होंने सलाह दी, कि यद्यपि भारत को स्वतंत्रता मिले 70 वर्ष हो चुके हैं, पर आज भी एक निस्वार्थ दृढ़ता की आवश्यकता है जो स्वतंत्रता सेनानियों के उत्साह को रेखांकित करती हो। भ्रष्टाचार जैसी व्यापक समस्याओं के चलते सच्चाई और ईमानदारी की तथा स्पष्टवादी होने की और अधिक आवश्यकता है।  धर्म निरपेक्षता पर आधारित नैतिक मूल्यों की ज़रूरत है, जो कि हमारे सामान्य अनुभवों, उदाहरण के लिए माँ से जन्म लेना, जिसने हमारा ध्यान रखा और प्रेम दिया। बचपन में मिला ऐसा ध्यान और प्रेम हमारे बाद के जीवन के लिए सुख का स्रोत है। यह स्पष्ट है कि परिवार कितने ही धनी या निर्धन हों, जहाँ संबंध विश्वास और प्रेम भरे होते हैं, वे सुखी होते हैं। हम सुखी हों अथवा नहीं हमारे व्यवहार, जैसे करुणा,  एक अधिक शांत चित्त को जन्म देती है। भौतिक विकास पर अपनी सारी आशाएँ लगा रखना निश्चित रूप से गलत है; सुख का परम स्रोत हमारे अन्दर है।  

परम पावन ने समझाया कि जहाँ उनकी पहली प्रतिबद्धता मानव सुख के बढ़ते हित के लिए,  सह्रदयता का विकास है, एक बौद्ध भिक्षु होने के नाते उनकी दूसरी प्रतिबद्धता अंर्तधर्मीय – समन्वय है। आस्तिक धर्म एक सृजनकर्ता में विश्वास करते हैं जबकि  नास्तिक परम्पराएँ जैसे जैन धर्म, सांख्य की एक शाखा और बौद्ध धर्म यह मानते हैं कि हम ही सृजनकर्ता हैं। उनमें केवल बौद्ध धर्म अनात्मवाद की शिक्षा देता है। परन्तु सभी धर्म प्रेम, करुणा और क्षमा की शिक्षा देते हैं और सभी सुखी तथा करुणाशील मानवों का निर्माण करने के लिए समर्पित हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि तिब्बती संघर्ष को लेकर उनकी एक तीसरी प्रतिबद्धता भी थी, पर अब वे सेवा निवृत्त हो चुके हैं और अपने राजनैतिक उत्तरदायित्व एक निर्वाचित नेतृत्व को सौंप चुके हैं। पर फिर भी उन्होंने यह स्वीकार किया कि वे तिब्बती हैं और तिब्बत के अंदर तथा तिब्बत के बाहर 6 अरब तिब्बती उन पर निरंतर आशा रखे हुए हैं, इसलिए उन पर वह उत्तरदायित्व अब भी है।  उन्होंने छात्रो से कहा:

“मानवता के हित के विषय में सोचना आपका भी उत्तरदायित्व है और आपमें से जो आस्तिक हैं, आपका उत्तरदायित्व अन्य धर्मों के लोगों के साथ समझ बढ़ाना है।”

विकास और संतोष के बीच संतुलन के प्रश्न को लेकर परम पावन ने उत्तर दिया कि भौतिक सुविधाओं की सीमाएँ होती है इसलिए संतोष की भावना का होना लाभकारी हो सकता है। दूसरी ओर आंतरिक जीवन मूल्यों से परिचय का संबंध चित्त से है, जिसके विकास की क्षमता अनंत है।  उन्होंने बताया कि 78 वर्ष की आयु में भी प्रतिदिन जब वे भोजन करते हैं तो वे पढ़ते हैं, इस तरह दिन प्रतिदिन उनका ज्ञान बढ़ता है। अतः जहाँ तक ज्ञान का संबंध है, वे न तो आत्मतुष्ट हैं और न ही संतुष्ट।

यह पूछे जाने पर कि किस तरह चीन हर बार बच जाता है, परम पावन ने सुझाया कि दिखने में और यथार्थ में अंतर है। इस संदर्भ में प्रश्न सरल प्रतीत होता है पर यथार्थ यह है कि वह अत्यंत जटिल है। युवा तिब्बती स्वतंत्रता की माँग कर सकते हैं, पर यहाँ भी दिखने और यथार्थ में अंतर है, क्योंकि आज चीन की साम्यवाद पार्टी और उनकी सेना कठोर और शक्तिशाली है। साथ ही चीन के बुद्धिजीवी, जो तिब्बत समस्या के समर्थक हैं, इस बात को मानते हैं कि एक परस्परीय लाभकारी समाधान होना चाहिए और भारत, अमरीका और यूरोपीय संघ की सरकारें मध्यम मार्ग दृष्टिकोण का समर्थन करती है।

निर्वाण को परिभाषित करने के लिए कहे जाने पर परम पावन ने कहा कि चित्त की प्रकृति जानना है पर वह अज्ञान से बाधित


हो जाता है। इस विकृत अज्ञान को दृढ़ता से दूर करने की आवश्यकता है, जो हम दिखने और यथार्थ के अंतर को समझते हुए कर सकते हैं। जब हम संसार को एक माया के समान समझते हैं तो क्लेशों की शक्ति, जो हमारे चित्त को दुःख पहुँचाती है, वह कम हो जाती है। जाग्रत अवस्था में ऐन्द्रिक चेतना चित्त पर हावी रहती है परन्तु स्वप्न जैसी अवस्था में हम चित्त को और स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। सूक्ष्म चित्त को अधिक जागरूक होने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है और बौद्ध दृष्टिकोण से वही निर्वाण का सार है।

छात्रो को सलाह देते हुए कि हमें सहृदयता के साथ साथ तीक्ष्ण बुद्धि भी आवश्यक है, उन्होंने यह भी कहा कि ईमानदारी और सच्चाई अधिक आत्मविश्वास और सकारात्मक ढंग से कार्य करने की ओर ले जाती है।

फाउंडेशन फ़ॉर युनिवर्सल रेसपॉन्सिबिलिटी  द्वारा ही दोपहर को आयोजित एक अधिक उम्र और परिपक्व श्रोता जिनमें उनके कई पुराने मित्र भी थे को संबोधित करते हुए परम पावन ने कहा:

“ हमारे यहाँ मिलने का उद्देश्य यह सीखने के लिए है कि हम अपने समय का किस प्रकार उचित रूप से प्रयोग करें। हमारे जीवन को सार्थक बनाना महत्त्वपूर्ण है। किसी को डराने धमकाने और धोखा देने से थोड़े समय के लिए तो लाभ हो सकता है पर इससे एक प्रकार की बेचैनी बनी रहती है। धन सच्चा संतोष नहीं देता, जबकि करुणा से संतोष मिलता है।”

उन्होंने कहा कि सभी सत्त्व सुख और पीड़ा का अनुभव करते हैं और हम भी उनमें हैं। मनुष्य को जो बात अलग करती है वह यह कि हममें एक शक्तिशाली बुद्धि है और सुख प्राप्त करने और दुःख से बचने की कहीं अधिक क्षमता है। सच्चा सुख और मैत्री पैसे से नहीं आती और न ही ज्ञान से, अपितु सहृदयता से आती है। एक बार हम इसे पहचान लें तो हम इसके विकास के लिए और इच्छुक होंगे।

यहाँ भारत में धर्म निरपेक्षता और धर्म निरपेक्ष नैतिकता विकसित हुई है और यहीं से अहिंसा निकली है। ऐसे प्राचीन मूल्य आज के विश्व में बहुत प्रासंगिक हैं।

अपने पढ़ाए जाने वाले ग्रंथ दीपांकर अतिश के “बोधिपथप्रदीप” को खोलते हुए परम पावन ने समझाया कि उन्हें इस ग्रंथ का मौखिक ज्ञान एक किन्नौरी लामा, रिगज़िन तेनपा से प्राप्त हुआ। “बोधिपथप्रदीप” निर्वाण के मार्ग की समझ को सरलता से समझाने की दृष्टि से मूल्यवान है।

चाय के पश्चात परम पावन ने ऐसे प्रश्नों के उत्तर दिए कि क्या एक सरकारी कर्मचारी  निर्वाण प्राप्त कर सकता है? उन्होंने उत्तर दिया कि सब कुछ हमारी प्रेरणा पर निर्भर करता है। यह पूछे जाने पर कि ऐसा क्यों है कि आध्यात्मिक मार्ग पर क्यों कुछ लोग अधिक विकास करते हैं और कुछ लोग कम, उन्होंने कहा कि एक बौद्ध दृष्टिकोण से बहुत कुछ हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों पर निर्भर करता है। उन्होंने बताया कि स्वयं बुद्ध की  आध्यात्मिक यात्रा तीन अनंत कल्पों की थी। इस कथन ने परम पावन को शांतिदेव विरचित उनकी सबसे प्रिय प्रार्थना का पाठ करने के लिए प्रेरित कियाः

जब तक आकाश स्थित है और जब तक संसार रहे ।

तब तक जगत् के दुःखों का नाश करते हुए मेरी भी स्थिति बनी रहे ।।          

उन्होंने बताया कि यह प्रार्थना उन्हें जीवन का उद्देश्य देती है, और उनके लिए संतोष, दृढ़ विश्वास और आंतरिक शक्ति का स्रोत है।


  • फ़ेसबुक
  • ट्विटर
  • इंस्टाग्राम
  • यूट्यूब
  • सभी सामग्री सर्वाधिकार © परम पावन दलाई लामा के कार्यालय

शेयर

  • फ़ेसबुक
  • ट्विटर
  • ईमेल
कॉपी

भाषा चुनें

  • चीनी
  • भोट भाषा
  • अंग्रेज़ी
  • जापानी
  • Italiano
  • Deutsch
  • मंगोलियायी
  • रूसी
  • Français
  • Tiếng Việt
  • स्पेनिश

सामाजिक चैनल

  • फ़ेसबुक
  • ट्विटर
  • इंस्टाग्राम
  • यूट्यूब

भाषा चुनें

  • चीनी
  • भोट भाषा
  • अंग्रेज़ी
  • जापानी
  • Deutsch
  • Italiano
  • मंगोलियायी
  • रूसी
  • Français
  • Tiếng Việt
  • स्पेनिश

वेब साइय खोजें

लोकप्रिय खोज

  • कार्यक्रम
  • जीवनी
  • पुरस्कार
  • होमपेज
  • दलाई लामा
    • संक्षिप्त जीवनी
      • परमपावन के जीवन की चार प्रमुख प्रतिबद्धताएं
      • एक संक्षिप्त जीवनी
      • जन्म से निर्वासन तक
      • अवकाश ग्रहण
        • परम पावन दलाई लामा का तिब्बती राष्ट्रीय क्रांति दिवस की ५२ वीं वर्षगांठ पर वक्तव्य
        • चौदहवीं सभा के सदस्यों के लिए
        • सेवानिवृत्ति टिप्पणी
      • पुनर्जन्म
      • नियमित दिनचर्या
      • प्रश्न और उत्तर
    • घटनाएँ एवं पुरस्कार
      • घटनाओं का कालक्रम
      • पुरस्कार एवं सम्मान २००० – वर्तमान तक
        • पुरस्कार एवं सम्मान १९५७ – १९९९
      • गणमान्य व्यक्तियों से भेंट २०११ से वर्तमान तक
        • गणमान्य व्यक्तियों से भेंट २००० – २००४
        • गणमान्य व्यक्तियों से भेंट १९९० – १९९९
        • गणमान्य व्यक्तियों से भेंट १९५४ – १९८९
        • यात्राएँ २०१० से वर्तमान तक
        • यात्राएँ २००० – २००९
        • यात्राएँ १९९० – १९९९
        • यात्राएँ १९८० - १९८९
        • यात्राएँ १९५९ - १९७९
  • कार्यक्रम
  • समाचार
    • 2025 पुरालेख
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2024 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2023 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2022 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2021 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2020 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2019 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2018 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2017 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2016 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2015 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2014 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2013 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2012 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2011 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2010 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2009 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2008 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2007 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2006 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
    • 2005 पुरालेख
      • December
      • November
      • October
      • September
      • August
      • July
      • June
      • May
      • April
      • March
      • February
      • January
  • तस्वीरों में
  • वीडियो
  • सन्देश
  • प्रवचन
    • भारत में प्रवचनों में भाग लेने के लिए व्यावहारिक सलाह
    • चित्त शोधन
      • चित्त शोधन पद १
      • चित्त शोधन पद २
      • चित्त शोधन पद ३
      • चित्त शोधन पद : ४
      • चित्त् शोधन पद ५ और ६
      • चित्त शोधन पद : ७
      • चित्त शोधन: पद ८
      • प्रबुद्धता के लिए चित्तोत्पाद
    • सत्य के शब्द
    • कालचक्र शिक्षण का परिचय
  • कार्यालय
    • सार्वजनिक दर्शन
    • निजी/व्यक्तिगत दर्शन
    • मीडिया साक्षात्कार
    • निमंत्रण
    • सम्पर्क
    • दलाई लामा न्यास
  • किताबें
  • सीधे वेब प्रसारण