परम पावन 14 वें दलाई लामा
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मैक्सिको नगर में बोधिसत्त्वचर्यावतार पर प्रवचन १३/अक्तूबर/२०१३

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मैक्सिको नगर, मैक्सिको - अक्तूबर १२, २०१३ - मेक्सिको सिटी की व्यस्त सड़कों के बीच से होते हुए एक लंबी ड्राइव के बाद आज प्रातः परम पावन दलाई लामा एरिना सिउडाड डी मेक्सिको पहुँचे। जैसे ही उनकी गाड़ियों के काफिले ने इमारत के परिसर में प्रवेश किया, सैकड़ों जनता फुटपाथ पर पंक्तिबद्ध थी। कइयों ने स्वागत में हाथ हिलाए । 

जैसे ही वह अपनी गाड़ी से बाहर आए, एक पुराने मित्र रिचर्ड गियर द्वारा उनका स्वागत किया गया, जो उनके साथ मंच के पीछे चले गए। इसके पश्चात गियर ने  ४००० दर्शकों से परम पावन का परिचय कराया, जिन्होंने बड़े ही उत्साह से उनका स्वागत किया, जब उन्होंने भी हाथ जोड़कर उनका अभिनंदन किया। कई थंग्काओं की पृष्ठभूमि में एक साधारण कुर्सी पर अपना स्थान ग्रहण करते हुए बिना किसी विलम्ब के परम पावन ने अपनी बात प्रारंभ की।


“भाइयों और बहनों, मैं हमेशा इस बात पर बल देता हूँ कि लोगों के लिए यह अच्छा है कि जिस में उनका जन्म हुआ है वे उसी आध्यात्मिक परंपरा के साथ बने रहें। परन्तु इक्कीसवीं सदी में, अंतर - धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के हित में एक दूसरे के बारे में पता लगाना लाभकारी है। सभी प्रमुख धार्मिक परंपराओं में स्नेह और करुणा का अभ्यास है। इस अभ्यास में सफलता के लिए आपको सहिष्णुता और क्षमा, आत्मानुशासन और संतोष की आवश्यकता होती है। चूँकि हम सभी इन बातों को सिखाते हैं, हम उनके विषय  में ठीक ढंग से एक दूसरे से सीख सकते हैं।”

“इसमें कोई संदेह नहीं कि जब दर्शन की बात आती है तो प्रत्येक परम्परा का अपना अनूठा दृष्टिकोण है, परन्तु इन विभिन्न दृष्टिकोणों का उद्देश्य प्रेम और करुणा के अभ्यास को और अधिक सशक्त करना और हमारी आंतरिक शांति में सहयोग करना है। यद्यपि पश्चिम में बौद्ध धर्म के साथ कोई ऐतिहासिक संपर्क नहीं है, पर अब बौद्ध धर्म में गहरी रुचि बढ़ रही है यहाँ तक कि वैज्ञानिकों के बीच भी।”

“बौद्ध धर्म का एक संक्षिप्त सर्वेक्षण देते हुए परम पावन ने समझाया कि चार आर्य सत्य, बुद्ध की प्रथम शिक्षा, सभी बाद में दी गई शिक्षाओं का आधार है। उन्होंने पालि परंपरा के विकास की बात की, जो अंततः सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया में फैला और संस्कृत परंपरा, जो चीन और वहाँ से कोरिया, जापान और वियतनाम ले जाई गई। संस्कृत परंपरा के अनुसार, बुद्ध ने सारनाथ में चार आर्य सत्य की शिक्षा के साथ प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन किया। राजगीर में उन्होंने दूसरी बार धर्म चक्र प्रवर्तन किया और प्रज्ञा पारमिता की शिक्षा दी, जिसने तृतीय आर्य सत्य, निरोध को व्याख्यायित किया। जब उन्होंने तीसरी बार वैशाली में धर्म चक्र प्रवर्तन किया, तो उन्होंने चेतना की प्रकृति की व्याख्या की और चतुर्थ आर्य सत्य, मार्ग का विस्तार बताया। 

इन शिक्षाओं का नालंदा विश्वविद्यालय में पंडितों द्वारा परीक्षण, जाँच और विश्लेषण हुआ, जो उन बौद्ध परंपराओं का स्रोत है, जो तिब्बत में लाए गए । ७वीं शताब्दी के एक तिब्बती सम्राट ने निश्चय किया तिब्बतियों के लिए बौद्ध धर्म उपयुक्त होगा, ८वीं सदी में उनके उत्तराधिकारियों में से एक ने इसे आगे बढ़ाया और नालंदा के एक प्रतिष्ठित भिक्षु, प्रमुख विद्वान और तर्कशास्त्री शांतरक्षित को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित किया। अपनी आयु के बावजूद, महान साहस के साथ उन्होंने इसे स्वीकार किया और विनय, अथवा विहार का अनुशासन, बौद्ध दर्शन और तिब्बत में ज्ञान - मीमांसा की स्थापना की। इस प्रकार, तिब्बत के बौद्ध धर्म का शुद्ध स्रोत नालंदा परंपरा है।”


“८वीं सदी में एक और नालंदा पंडित शांतिदेव ने इस ग्रंथ की रचना की जिसका हम अध्ययन करने जा रहे हैं। इसका मुख्य विषय है बोधिचित्त और उसका किस प्रकार से विकास किया जा सकता है, साथ ही किस प्रकार सहनशीलता, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन का अभ्यास किया जा सकता है। अपनी प्रस्तुति में प्रत्येक बिंदु पर वे ग्रंथ के उद्धरणों के स्थान पर कारण का प्रयोग करते हैं। मैं पंक्ति दर पंक्ति नहीं पढ़ने वाला हूँ क्योंकि हमारे पास समय न होगा। मैं मुख्य बिंदुओं को समझाऊँगा। ९वां अध्याय बुद्ध की शिक्षाओं के सारांश के साथ प्रारंभ होता है, अतः हम वहाँ से प्रारंभ करेंगे।” 
 
“परम पावन ने वे पंक्तियाँ पढ़ी जो घोषित करती है, कि बुद्ध ने अपनी पूरी शिक्षा प्रज्ञा के लिए दी। इसलिए दुःख को दूर करने की इच्छा रखते हुए, हमें इस प्रज्ञा का विकास करना है। दृश्य और यथार्थ में अंतर है, उन्होंने कहा, जिसे सांवृतिक सत्य और परमार्थ सत्य को समझकर शिक्षा और प्रशिक्षण से भरा जा सकता है।”

इस बिंदु पर दोपहर के भोजन का अंतराल हुआ।  वेटिकन होली सी द्वारा स्थापित युनिवर्सिडाड पोंटिफिसिया डे मेक्सिको के एक निमंत्रण को पूरा करने के लिए परम पावन एक और लम्बी ड्राइव पर रवाना हुए। आगमन पर विश्वविद्यालय के प्राचार्य, मारियो एन्जिल फ्लोरेस रामोस, मोंसिगनोर यूगेनियो लीरा रुगार्सिया  - बिशप, मैक्सिकन बिशप अध्याय के सचिव और मोंसिगनोर क्रिस्पिन ओजेडा  मार्क्वेज़ - मेक्सिको के औक्स बिशप ने अत्यंत उत्साह के साथ उनका स्वागत किया और उन्हें सभागार तक पहुँचाया, जहाँ हजारों उपस्थित और ऑनलाइन में लोग उन्हें सुनने की  प्रतीक्षा कर रहे थे।

स्वागत भाषणों ने घोषित कर दिया कि विश्वविद्यालय ईसाई सिद्धांत के अध्ययन का स्थान है, पर साथ ही एक खुला स्थान  है, संवाद की एक जगह है। यह भी संकेत दिया गया कि पचास वर्ष हो चुके हैं, जब २३वें पोप जॉन द्वारा प्रारंभ किया गया दूसरा वेटिकन परिषद, जिसने रोमन कैथोलिक चर्च और आधुनिक दुनिया के बीच संबंधों का पता लगाया। उसका एक भाग अन्य धार्मिक परंपराओं के साथ सम्मान और गरिमा के साथ संबंधों को खोलने और दुनिया में शांति और न्याय के लिए एक जगह बनाने के लिए योगदान करने के लिए है। जो वहाँ उपस्थित थे उन्होंने परम पावन का स्वागत किया, जिन्होंने उसका उत्तर अपने विशिष्ट ढंग से दिया।


“आदरणीय आध्यात्मिक नेताओं तथा भाइयों और बहनों, मैं यहाँ आकर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं जानता हूँ कि यह विश्वविद्यालय चार सौ वर्ष पुराना है और लैटिन अमेरिका का प्रमुख रोमन कैथोलिक विश्वविद्यालय है। मेरे विचार से  सन् २००४ में मेरी दूसरी यात्रा के दौरान मैं मेक्सिको कैथेड्रल में एक अंतर्धमीय बैठक में शामिल हुआ और मैं अब यहाँ आकर बहुत खुश हूँ।”
 
“हम इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में हैं, महान प्रौद्योगिकीय विकास का समय। पर ये विकास केवल हमारे शारीरिक सुख में सहायक होते हैं, वे चाहे कितने ही परिष्कृत हों, हमें प्रेम तथा स्नेह नहीं देते जो मानसिक सुख का स्रोत है। पोप बेनेडिक्ट ने घोषणा की कि विश्वास और कारण साथ चलने चाहिए। एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण उपयोगी है, परीक्षण और विश्लेषण की आवश्यकता है, विशेषकर हमारे तकनीकी विश्व में, पर केवल अपने आप में यह आंतरिक शांति नहीं लाता। श्रद्धा हमें चैन और आंतरिक शांति देती है। एक अधिक सुखी समाज के विकास के लिए हमें आध्यात्मिकता की आवश्यकता है।”
 
“मैं आध्यात्मिक परंपराओं के दो अंग देखता हूँ - अभ्यास और दर्शन। अभ्यास में हमारी परम्पराओं में कई समानताएँ हैं; हम प्रेम और करुणा, सहिष्णुता और संतोष पर ध्यान केंद्रित करते हैं। हम ऐसे अभ्यास का प्रभाव अद्भुत व्यक्तियों के काम में देख सकते हैं, जिन्होंने मदर टेरेसा की तरह अपना जीवन दूसरों की सेवा हेतु जीया है।”

परम पावन ने उल्लेख किया कि आंतरिक शांति प्रदान करने की धर्म की क्षमता के कारण, यह विशेष रूप से दुखद है जब धर्म के नाम पर संघर्ष होते हैं। इसलिए धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा के लिए काम करना आवश्यक है, जैसा पोप जॉन पॉल द्वितीय ने किया, जब उन्होंने पच्चीस वर्ष से भी अधिक पहले  दुनियावी असीसी बैठक बुलाई। परम पावन ने भारत के उदाहरण पर ध्यान आकर्षित किया, जहाँ विश्व के प्रमुख धर्म कंधे से कंधा मिलाकर सद्भाव के साथ दो हजार से अधिक वर्षों से साथ रह रहे हैं। 

परम पावन की अंतिम टिप्पणी थी कि हम किसी आस्था को चुने या नहीं, यह  हमारा अपना निजी निर्णय है,पर यदि हम ऐसा करते हैं,  तो हमें इस बारे में सच्चा होना चाहिए। उन्होंने कहा कि किसी चर्च या मंदिर में एक पवित्र चेहरा चढ़ाए रखना पर्याप्त नहीं है, पर हमारी आस्था बाहर की दुनिया में हमारे आचरण को नियंत्रित न करे। उन्होंने कहा कि उनकी परंपरा में जब वह आध्यात्मिक कार्य  में लगे रहते हैं तो एक पीला चोगा पहनते हैं, पर वास्तव में अध्यात्म, आप जो चोला पहने, उसमें नहीं अपितु आपके हृदय में है। उन्होंने खेद जताया कि एक मैत्रीपूर्ण चर्चा में संलग्न होने के लिए और अधिक समय नहीं था और आशा व्यक्त की कि भविष्य में संभव हो सकेगा।  


उनसे कई प्रश्न पूछे गए। पुनर्जन्म के विषय में एक का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि इस विचार को, कि हमें एक बार ईश्वर ने पैदा किया है, समझना अपेक्षाकृत सरल है। परन्तु बौद्ध दृष्टिकोण से एक से अधिक जीवन का विचार चित्त की निरंतरता से संबंधित है। दूसरा उनसे पूछा गया कि भगवान कौन है और भगवान क्या है और उन्होंने स्मरण किया कि जब कहीं और उनसे पूछा गया था कि यदि वे ईश्वर से बात कर सकते तो वे उससे क्या पूछेंगे और उनका उत्तर था, “आप कौन हैं? आप कहाँ से आए हैं? और आप क्या करते हैं?” अंत में, मानवता के भविष्य के बारे में एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने इस प्रबल विचार, कि सब कुछ ईश्वर निर्मित है, यहाँ तक कि आपके शत्रु भी, की प्रशंसा की, और यह जोड़ा कि नास्तिक परम्पराओं में जो होता है, उसे हमारे अपने कर्मों के परिणाम के रूप में देखा जाता है।

इस कार्यक्रम के समापन पर परम पावन की यात्रा के उपलक्ष्य में एक पट्टिका का अनावरण किया गया, जो परिसर में स्थापित की जाएगी; उन्हें व्यक्तिगत स्मृति चिन्ह भी भेंट किया गया। उसके बाद छोटे बच्चों का एक समूह गाने के लिए आगे आया, जिसने सभी को खुश कर दिया।

 
दोपहर में अपने प्रवचन को जारी रखते हुए परम पावन ने संकेत किया कि उच्च सिद्धांतों को मानने वाले, अपने विचार निचले सिद्धांतों पर थोप नहीं सकते; उन्हें कारणों द्वारा सिद्ध करना पड़ता है। इसी तरह, शांतिदेव कहते हैं, अधिक उच्च विकसित योगी स्वाभाविक रूप से निम्न श्रेणी वालों से प्रभावी होते हैं।
 
विश्व में कई समस्याएँ अज्ञानता के कारण मनुष्य द्वारा बनाई गई है, इसलिए जब अज्ञानता दूर होगी तब दुख दूर हो जाएगा। जब शून्यता की समझ रखने वाली प्रज्ञा के साथ बोधिचित्त होगा, तो वह बुद्धत्व की ओर जाता है, बोधिचित्त के बिना यह निर्वाण की ओर ले जाता है। परम पावन ने समझाया कि ग्रंथ का पहला अध्याय बोधिचित्त की प्रशंसा में है, जबकि दूसरे का संबंध अपने पापों की स्वीकारोक्ति है। दोनों ही तीसरे अध्याय बोधिचित्त को स्वीकार करने और बाद के बोधिसत्व के छह पारमिताओं की तैयारी है। उन्होंने स्पष्ट किया कि दान को लेकर कोई अलग अध्याय नहीं है, जो कि दसवें अध्याय में पढ़ाया जाता है और नैतिकता पर कोई अलग नहीं अध्याय है, जो चौथे अध्याय में आ जाता है। अध्याय छह और सात धैर्य और उत्साह से, आठवाँ ध्यान से, नवाँ प्रज्ञा से और दसवाँ परिणामना से संबंध रखते हैं। परम पावन ने दूसरे और तीसरे अध्याय में आए सप्तांग अभ्यास की रूपरेखा दी, जो कि बोधिचित्त को ग्रहण करने का प्रारंभिक अभ्यास है, जो वह आशा करते हैं कि वे श्रोताओं को कल परिचित कराएँगे। इसमें कृपणता के मारक के रूप में दान, अहंकार और गर्व के मारक के रूप में साष्टांग, साथ ही तीन विष मोह, घृणा और अज्ञान के तीन विष के मारक के रूप में त्रिशरण में जाना शामिल हैं। यह वह बिंदु भी है जब अनित्यता की व्याख्या की जाती है। इन अंगो के बाद आनंद अनुभव और तत्पश्चात बुद्धों से शिक्षा देने की प्रार्थना और बोधिचित्त को स्वीकार करने से पहले निर्वाण में प्रवेश न करने की प्रार्थना है।

परम पावन ने कहा कि यदि हम यथार्थ की समझ के साथ अभ्यास करें तो हम अपनी विनाशकारी भावनाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, जो हमें चित्त की शांति देता है। हम इन बातों पर जितना अधिक सोचेंगे हमारी जागरूकता उतनी ही गहन होगी। उन्होंने कहा कि एक साधारण बौद्ध भिक्षु होने के नाते वह कह सकते हैं, दशकों के अभ्यास के कारण, कि यदि हम अभ्यास का पालन करें तो लाभ होगा।
   

वे कल अपना प्रवचन जारी रखेंगे।

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