परम पावन 14 वें दलाई लामा
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दिल्ली में मंगोलियाई बौद्धंों के लिए प्रवचन का प्रथम दिन नई दिल्ली, भारत - दिसंबर २, २०१३ २/दिसम्बर/२०१३

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नई दिल्ली, भारत - दिसंबर २, २०१३ - परम पावन दलाई लामा के प्रवचन सुनने हेतु नई दिल्ली के केम्पनस्की एम्बियांस होटल में मंगोलिया से ८१८ बौद्धों का एक समूह जमा हुआ, जिनके साथ  ६० कोरियाई और १५ तिब्बती भी जुड़े। उन्हें उनकी कार से होटल में बॉलरूम के एक छोर पर बने एक मंच पर ले जाया गया, जिसमें १७ नालंदा पंडितों, जे चोंखापा और वज्रभैरव की छवियों की एक विशाल चित्र की पृष्ठभूमि से दृश्य का स्वरूप ही परिवर्तित हो गया था। मंच पर अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात भिक्षुओं ने मंगोलियाई में हृदय सूत्र के सस्वर पाठ का नेतृत्व किया।

"जब बौद्ध शिक्षाएँ दी जाती है तो गुरु और शिष्यों को अपनी प्रेरणा में सुधार लाने की आवश्यकता होती है।" परम पावन ने प्रारंभ  किया, "इसका अर्थ  बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेने और बोधिचित्तोत्पाद है। अन्यथा हम स्वार्थी, आत्म केन्द्रित, दूसरंों का अहित करने की प्रवृति रख, उनसे झूठ बोल और उनकी संपत्ति का लोभ लिए हुए बने रह सकते हैं।"


"जिस छंद का हम पाठ करते हैं उसमें आता है 'मैं'  शरण लेता हूँ ... मुझे बुद्धत्व की प्राप्ति हो। 'हमें स्मरण रखना होगा कि यद्यपि हम 'मैं' की बात करते हैं पर बौद्ध नैरात्म्य पर बल देते हैं, कि शरीर और चित्त के अतिरिक्त कोई स्वयं सत्ता वाली आत्मा नहीं है। जिन तीन ग्रंथों पर मैं प्रवचन देने वाला हूँ, वे हैं 'प्रज्वलित शिक्षा', जो बुद्ध द्वारा व्यक्त की गई प्रशंसा है, जे चोंखापा का 'गुणों का आधार' तथा 'मार्ग के प्रमुख तीन'।"

परम पावन ने कहा कि मंगोलिया में कई उतार चढ़ाव हुए हैं, पर अब २१वीं शताब्दी में, मंगोलियायी अपनी बौद्ध परंपराओं को पुनर्जीवित कर रहे हैं, जो आज से १००० वर्ष पहले फली फूली  थी। आज प्रश्न यह है कि जब विश्व भौतिक रूप से इतना विकसित है तो धर्म का क्या लाभ है। भौतिक विकास हमें ऐन्द्रिक संतोष देता है, पर जब हम इन्द्रिय सुखों से ग्रसित हो जाते हैं तो हम अपने चित्त की शांति खो देते हैं। और उसके स्थान पर हम चिंता, लगाव और क्रोध के अधीन हो जाते हैं। चूँकि हम सभी चित्त की शांति खोजना चाहते हैं अतः धर्म आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। 

धर्म हमें आत्मविश्वास देता है, जो विश्वास को आकर्षित करती है; जबकि आत्मकेन्द्रित भावना संदेह और अंततः एकाकीपन की ओर जाती है। दूसरों के प्रति चिंता से जो विश्वास उठता है वह हमारे लिए मित्र लाता है। आस्तिक परंपराओं का विश्वास है कि सभी प्राणी ईश्वर के सृजन हैं, जो स्वयं और दूसरों के बीच के भेदभाव को कम करते हैं, उनके अनुयायियों को कम आत्मकेन्द्रित होने की ओर ले जाते हैं।

इसके स्थान पर बौद्ध कार्य कारण में विश्वास करते हैं कि हमारे दुःख और आनंद के अनुभव, कारण तथा परिस्थितियों से जन्म लेते हैं। जिस तरह कारण और परिस्थितियाँ परिणामों को जन्म देती है, वह कर्म की अभिव्यक्ति है। यदि आप दूसरों से अच्छा व्यवहार करते हैं तो परिणाम अच्छा होगा, यदि आप उनका अहित करेंगे, तो परिणाम बुरा होगा। परोपकार सदा लाभ देता है और यही कारण है कि धर्म हमें करुणाशील होने की शिक्षा देते हैं।

परम पावन ने समझाया कि बुद्ध ने कुछ चुने शिष्यों, जिनमें मनुष्य, देवता, अर्ध देवता, गन्धर्व इत्यादि हो सकते  थे, को महायान की शिक्षाएँ  दी। चूँकि उन्होंने उन्हें यह सार्वजनिक रूप से नहीं दी थी अतः कुछ लोगों का यह मानना  है कि, महायान जो संस्कृत परंपरा के नाम से भी जानी जाती है, वे बुद्ध की शिक्षाएँ नहीं है। पालि परंपरा में विनय शामिल है, जो ब्रह्मचारी भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों और साधारण गृहस्थों के लिए नैतिकता स्पष्ट करता है, यही नींव है। धर्म का अभ्यास करने के लिए हमें ध्यान केन्द्रित करना होगा, जिसके लिए एकाग्र ध्यान को विकसित करने की आवश्यकता है और इसके अतिरिक्त हमें ऐसी प्रज्ञा के विकास की आवश्यकता है जो नैरात्म्य को समझे। ये तीन शिक्षा अन्य धार्मिक परंपराओं में भी पाए जाते हैं, पर बौद्ध धर्म में उनका उद्देश्य प्रबुद्धता की प्राप्ति है। जब इनको प्रज्ञा के साथ एकीकृत किया जाता है तो ये अभ्यास तीन अधिशिक्षा बन जाते हैं। 


"जब आप स्वयं  को दुख तथा अज्ञान से मुक्त करना जान जाएँगे तो आप जानेंगे कि दूसरों को उनसे कैसे बाहर निकाला जा सकता है। पर इस भूमिका को ठीक से निभाने के लिए सर्वज्ञता की आवश्यकता होती है, जो आप को  यह निर्णय करने की शक्ति देता है कि दूसरों की आवश्यकता क्या है।"

यद्यपि बौद्ध धर्म की संस्कृत परंपरा ने सिल्क मार्ग से चीन में प्रवेश किया और फिर कोरिया और जापान में फैला पर यह बाद में तिब्बत पहँुचा। और चीन से विशेष संबंध होने के बावजूद तिब्बती सम्राट ने बौद्ध धर्म  को भारत से, उसके जन्म स्थान से अपनाने का निश्चय किया। परम पावन ने कहा कि उन्होंने सुना था कि सिल्क मार्ग से मंगोलिया में बौद्ध धर्म का पहले ही प्रसारण हो चुका था, और फिर उसके बाद तिब्बत से उसका प्रचलन हुआ। तीसरे दलाई लामा सोनम ग्याछो, के समय के दौरान गेलुग परंपरा सामने आई। 

परम पावन ने बौद्ध धर्म की एक अनूठी विशेषता पर ध्यान आकर्षित किया, बुद्ध का उनके अनुयायियों के लिए निर्देश, कि वे उनकी शिक्षाओं को जस का तस न स्वीकार करें पर उसका परीक्षण उस तरह से करें जैसे एक सुनार सोने का परीक्षण करता है। यह परीक्षण सुनिश्चित करता है कि बौद्ध शिक्षाएँ वास्तविकता रूप में व्यवहृत हैं। नागार्जुन, धर्मकीर्ति और दिगनाग जैसे आचार्यों ने ठीक वैसा ही किया। उन्होंने कारण और तर्क के साथ बुद्ध की शिक्षाओं की जाँच की। 

बुद्ध ने समझाया कि सब कुछ अनित्य है और किसी का भी आंतरिक अस्तित्व नहीं।  इसका कारण है कि सभी तत्व अन्य कारकों पर निर्भर करते हैं। कोई भी दुख नहीं चाहता, पर अज्ञान के कारण हम स्वयं इसे निर्मित करते हैं।  दुःख अज्ञान में निहित है, कार्य कारण का अज्ञान तथा प्रतीत्यसमुत्पाद का अज्ञान।

सम्राट ठिसोंग देचेन ने तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना के लिए नालंदा से शांतरक्षित को आमंत्रित किया। निपुण पद्मसंभव भी उनके साथ हो गए और इस तरह धर्मराज, आचार्य और उपाध्याय नालंदा परंपरा के संरक्षण के लिए उत्तरदायी थे। इसके बाद तिब्बत में विद्वानों के बीच मंजुश्री के तीन प्रकट  रूप माने जाते थेः  सक्या पंडित, लोंगछेन रबजम्पा तथा जे चोंखापा।

"जे  चोंखापा,  इन ग्रंथों में से दो के प्रणेता का जन्म मेरे जन्म स्थान के निकट  हुआ था।" परम पावन ने टिप्पणी की कि "वे भारतीय आचार्यों  के ग्रंथों  के अपने अध्ययन और परीक्षण में कड़े थे।"  उनके अपने लेखन में से कोई भी अनुष्ठान के लिए प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। जहाँ विषय कठिन होता वे उसके विस्तार में जाते, जहाँ वह सरल होता वे उस पर सरलता से पार पा लेते।  'गुणों का आधार'  जिससे हम प्रारंभ करेंगे। वह अतिश के बोधिपथप्रदीप का सार है।  'मार्ग के प्रमुख तीन', में तीन मुख्य बिंदुओं का विवरण है ः मुक्ति के लिए दृढ़ संकल्प; बोधिचित्त  तथा सम्यक दृष्टि - शून्यता और प्रतीत्य समुत्पाद।

दोपहर के भोजन से पहले, परम पावन ने, धर्म की प्रशंसा में बुद्ध रचित 'प्रज्वलित शिक्षा'  नाम से प्रचलित एक ग्रंथ का वाचन किया।  दोपहर के भोजन के बाद उन्होंने 'गुणों का आधार'  पर प्रवचन प्रारंभ किया।  यह, आप जिस लामा पर निर्भर होते हैं, वह शिष्य जो निर्भर होता है और किस तरह उस पर निर्भर हुआ जाता है, उसकी रूपरेखा के साथ प्रारंभ होता है। जे चोखांपा कहते हैं 'यदि आप दूसरों के चित्त को अनुशासित अथवा वश में करना चाहते हैं तो पहले   आपको अपने चित्त को वश में करना होगा।'  एक शिक्षक के आवश्यक गुणंों को संक्षेप में विद्वत्ता और निपुणता बताया गया।


हमारे अपने जीवन को सार्थक बनाने में से एक है, मृत्यु, इसकी अनिवार्यता और इसकी अनिश्चितता कि यह कब घटित होगा पर चिंतन है।  इसकी तैयारी के लिए हमें अपने क्लेशों से निपटने की आवश्यकता है।  चोंखापा के दोनों ग्रंथ चार आर्य सत्य से निकली है। उन्होंने कहा कि चूँकि वे सम्पूर्ण बुद्ध की शिक्षाओं को अपने में समाहित करते हैं अतः वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।  चार आर्य सत्य का और आगे द्वाद्वशांग प्रतीत्यसमुत्पाद के संदर्भ में विस्तार किया जा सकता है।  भव चक्र में सभी दुखों का स्रोत, पहली अंग, अज्ञान है।

दिन के प्रवचन को समाप्त करने से पूर्व परम पावन ने उल्लेख किया कि वह कल बोधिचित्तोत्पाद समारोह का अनुष्ठान करेंगे। वह १३ देव वज्रभैरव की दीक्षा प्रारंभ करने की भी योजना रखते हैं।

उन्होंने सभा को स्मरण कराया कि जैसा वे पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं, यह बेहतर होगा कि उपस्थित लोगों में से यदि कोई उग्र दोलज्ञेल की तुष्टि में लगे हुए हैं, वे कल यहाँ भाग न लें। 

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