परम पावन 14 वें दलाई लामा
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दुःख से आशा - करुणा शक्ति १९/नवम्बर/२०१३

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टोक्यो, जापान - १९ नवंबर, २०१३  -  टोक्यो की व्यस्त सड़कों से होते हुए आज एक छोटी ड्राइव के बाद परम पावन दलाई लामा को ज़ोजोई मंदिर लाया गया। इस भव्य संस्था, जिसका संबंध जोडो शु से है, जो जापान बौद्ध धर्म के शुद्ध लोक परम्परा, जो कि एकाग्र नेम्बुट्सु पाठ जो अमिताभ बुद्ध के लिए समर्पित है। ज़ोजोई मंदिर ५०० वर्षों से अधिक इस स्थान पर खड़ा है पर पिछले युद्ध में यह बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया। डाइडन (होंडो) जिसका दौरा परम पावन ने किया, उसका पुनर्निर्माण १९७४ में प्राचीन और आधुनिक परम्परा को मिलाकर बनाया गया था। मंदिर की सीढ़ियों पर उनका स्वागत मुख्य मठाधीश यागी ने किया और उन्हें अंदर ले गए, जहाँ से वे मठाधीश के नेतृत्व में मधुर संगीत के साथ की जा रही प्रार्थना देख सकते थे।


 इस अवसर पर उन्हें लिव ऑन एक गैर लाभ संस्था, जिसकी स्थापना आत्महत्या न होने देने, उन बच्चों को सहायता देने जो बीमारी, आपदा, आत्महत्या, आतंकवाद और युद्ध के कारण अपने माता पिता खोने पर दुख की उस प्रक्रिया का सामना करने हेतु टेरूमी ओकाउ द्वारा प्रारंभ की गई थी, के आग्रह पर आमंत्रित किया गया। उन्होंने समझाया कि उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा अपने ही दुख के अनुभव से मिली, जब उनकी माँ ने स्वयं अपने प्राण ले लिए और एक दुर्घटना में वह अपना भाई खो बैठी। उनका उद्देश्य लोगों को दुख से बाहर कर आशा खोजने देना है।
 
जब उनके बोलने का अवसर आया तो परम पावन ने प्रारंभ किया ,“मैं इस भव्य मंदिर में आकर बहुत प्रसन्न हूँ, जहाँ भिक्षुओं ने अमिताभ के लिए प्रार्थना की है” और मैं सुश्री ओकाउ के अनुभवों से प्रभावित हूँ जो शोक संतप्त लोगों को उनके दुख तथा निराशा को दूर करने के लिए इतना कठोर परिश्रम करती है। अपने अनुभव के आधार पर दूसरंों की पीड़ा कम करना विशेष रूप से प्रभावी होता है। मुझे परिणामना की सुपरिचित पंक्तियाँ स्मरण आ रही है:
 
परम और अनमोल बोधिचित्त
जहाँ यह उत्पन्न न हुआ हो वहाँ उत्पन्न हो।
जहाँ उत्पन्न हुआ हो वहाँ ह्रास न हो और
उत्तरोत्तर वृद्धि हो।।

यह स्पष्ट है कि आपकी परोपकारिता की भावना जितनी अधिक होगी, आप उतना ही अधिक दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करेंगे, और उतना ही अधिक संतोष आपको प्राप्त होगा। और जब आपकी मृत्यु निकट होगी तो आप विश्वास के साथ जाने में सक्षम होंगे। जब आप दूसरों के लिए कार्य करने में समर्पित होेंगे, तो साथ ही आपके हितों की भी पूर्ति हो जाएगी। दूसरी ओर स्वार्थ और आत्मकेन्द्रितता, व्याकुलता और संदेह, बुरे स्वास्थ्य और अच्छे स्वास्थ्य में गिरावट की ओर ले जाएगी।”    

उन्होंने टिप्पणी की कि सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएँ प्रेम व करुणा की बात करते हैं, यद्यपि जिस समय और जहाँ उनका जन्म हुआ हो उसके कारण उनके दार्शनिक दृष्टिकोणों में अंतर है। बौद्ध साहित्य में किसी विशुद्ध और अनंत ईश्वर, न ही आंतरिक अस्तित्व लिए आत्मा का उल्लेख है। सभी का वर्णन अन्य तत्त्वों पर निर्भरता के रूप में बताया गया है। यद्यपि बुद्ध ने दुख की बात की थी जब उन्होंने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी थी, पर इस कारण निराशा का अनुभव करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बल्कि हमें परीक्षण करना चाहिए कि दुख किससे पैदा होते हैं और उस पर काबू पाने के लिए चुनौती का सामना करना चाहिए। उन्होंने कहा कि जो पीड़ित हैं उनकी सहायता कर उनके दुख पर काबू पाने के लिए जैसा सुश्री ओकाउ ने बताया था दयालुता एक महान भेंट है।


 परम पावन ने स्पष्टीकरण दिया कि हम दो स्तरों के दुख का अनुभव करते हैं, शारीरिक और मानसिक, और जबकि शारीरिक पीड़ा का शारीरिक कारण हो सकता है, परन्तु मानसिक पीड़ा साधारणतया हमारे अपने चिंतन से आती है। इसके लिए ८ वीं शताब्दी के आचार्य शांतिदेव ने व्यावहारिक सलाह दी है:

यदि उसका कोई समाधान है तो उसके बारे में दुखी क्यों हो।
यदि उसका कोई समाधान नहीं है तो उसके बारे में दुखी होने से क्या लाभ।। 

तैयार प्रश्नों में एक था कि अहिंसा के संदर्भ में क्या प्रतिकार स्वीकार्य है।
परम पावन ने उत्तर दिया:
“छोटे समय और लंबे समय के लाभ को ध्यान में रखने का प्रयास करें। पर साथ ही यह ध्यान में रखें कि अहिंसा और हिंसा का अंतर आवश्यक नहीं कि आपके कार्य़ की गुणवत्ता में हो, पर जिस प्रेरणा से आप कर रहे हैं, उसमें है। स्वार्थ भावना से प्रेरित मीठे शब्दों से किसी को धोखा देना हिंसा का एक रूप है, जबकि परोपकारी भावना से प्रबल कार्य अहिंसात्मक है।”

इससे प्रेरित एक और प्रश्नकर्ता ने हाल ही में तिब्बत में हो रहे आत्म - दाह के विषय में पूछा। परम पावन ने स्मरण किया कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान एक चीनी मठाधीश ने अपने विहार की रक्षा के लिए ऐसा कदम उठाया था और अन्य भिक्षुओं ने वियतनाम युद्ध के विरुद्ध ऐसा विरोध किया था। उन्होंने कहा कि ऐसी घटनाएँ अत्यंत दुखदायी हैं, पर ऐसे साहसी व्यक्ति दूसरों को हानि पहुँचा सकते थे पर जानबूझकर उन्होंने ऐसा नहीं किया।


जब उन्होंने जनता से सवाल आमंत्रित किया तो एक युवा जानना चाहता था कि प्यार करने के लिए उचित व्यवहार क्या है।  परम पावन ने उससे कहा कि उन्हें कोई अनुभव नहीं है, पर कहा कि जहाँ शारीरिक सौंदर्य का महत्त्व है, पर किसी से स्थायी संबंध बनाने के लिए आंतरिक सुंदरता बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है।
 
“जब आपको कोई संभावित साथी मिल जाए,” उन्होंने कहा ,“कि आप घर बसाने की शीघ्रता न करें, पहले एक दूसरे को समझें।”

नैतिक अखंडता के विकास के बारे में प्रश्न पूछे जाने पर परम पावन ने उत्तर दिया कि समूचे विश्व में आधुनिक शिक्षा का उद्देश्य भौतिक विकास से है। परन्तु, हम सब स्नेह का बीज और दूसरों के लिए सम्मान प्राप्त करते हैं जब शिशुओं के रूप में हमें अपनी माँओं से प्रेम की बौछार मिलती है। हमें उस बीज को विकसित करना है क्योंकि प्रेम और सौहार्दता नैतिक अखंडता का आधार है।  वैज्ञानिक निष्कर्ष ऐसे मूल्यों के सकारात्मक परिणामों को बढ़ावा देने की पुष्टि करते हैं। परम पावन ने सावधान किया कि जिस तरह पूर्ण रूप से विकसित होने पर कैंसर को ठीक करना कठिन है, यदि हम शिक्षा द्वारा परिवर्तन को प्रभावशाली बनाना चाहते हैं तो हमें बच्चों को अल्पायु में ही प्रशिक्षित करना होगा।

किसी ने परम पावन से प्रश्न किया कि यदि हम आपस में एक दूसरे की सहायता करना चाहते हैं तो सबसे महत्त्वपूर्ण बात क्या है तो उन्होंने सरल रूप में उत्तर दिया: “प्रेम और करुणा”।

शून्यता के प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा: यह समझने के लिए कि रूप शून्यता है और शून्यता रूप है, क्या है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि रूप का अस्तित्व नहीं है। पर इसका आंतरिक रूप से अस्तित्व नहीं है; यह अन्य तथ्यों पर आधारित और ज्ञापित है। नागार्जुन ने घोषणा की, कि प्रतीत्यसमुत्पाद की शिक्षा बुद्ध की शिक्षाओं का खज़ाना है। शून्यता की शिक्षा का उद्देश्य किसी भी वस्तु को मूर्त रूप देने की हमारी प्रवृत्ति को कम करना है, जो क्रोध तथा राग को जन्म देती है, जो पीड़ा की ओर ले जाता है ।”

दोपहर को परम पावन ने तिब्बती अध्ययन के जापानी विद्वानों के साथ एक बैठक शुरू की। विश्व में जहाँ लोग रहते हैं और प्राकृतिक वातावरण कैसा है, विभिन्न संस्कृतियाँ जन्म लेती है। कुछ विवरणों के अनुसार तिब्बत में ३० -४०,००० वर्ष पूर्व तिब्बती थे। वे अधिकांश रूप से खानाबदोश थे, यदि उनके पास अच्छा घोड़ा या तलवार होती, तो वे इच्छानुसार घूमते थे और यदि उन्हें किसी विरोध का सामना करना पड़ता तो वे उसका दमन कर देते। लेकिन बौद्ध धर्म के आने के साथ तिब्बती सौम्य और अधिक शांतिमय हो गए। उन्होंने कहा:

 
“साधारणतया मैं तिब्बती संस्कृति को, अहिंसा की संस्कृति, शांति की संस्कृति मानता हूँ, जो कि अंततः करुणा से निकलती है। यद्यपि हम माँस खाते हैं पर हम सभी प्रकार के जीवों का सम्मान करते हैं। ऐसे मूल्य आज विश्व में िहंसा के संदर्भ में संरक्षण योग्य हैं। जिस तरह आप तिब्बती मामलों में रुचि दिखा रहे   हैं, मैं अपनी प्रशंसा व्यक्त करना चाहता हूँ।”

पूछे गए प्रश्नों के बीच एक इतिहासकार पलदेन ल्हमो के एक थंका के विषय में जो कि दलाई लामाओं के थे और उनके शासन से संबंधित एक मुद्रा के बारे में जानना चाहता था, जिसके लिए उन्होंने कहा कि वे नहीं जानते।  हिरोशिमा का एक मानव विज्ञान का विद्वान अनित्यता की बौद्ध शिक्षाओं और सतत विकास के विरोधाभास के विषय में जानना चाहता था। परम पावन ने स्वीकार किया कि परिवर्तन की आवश्यकता है। और तिब्बती अध्ययन शास्त्र के  एक युवा वर्ग ने माइंड लाइफ इंस्टिट्यूट के साथ एक जापानी जुड़ाव बनाने की संभावना के प्रति एक प्रबल इच्छा व्यक्त की। परम पावन ने उनके उत्साह को यह कहते स्वीकृति दी:

“आधुनिक विश्व में लोगों में आध्यात्मिक मार्ग से अधिक विज्ञान में विश्वास है, पर हमें लोगों के लिए ऐसे रास्ते ढँूढने होंगे जो अपने विनाशकारी भावनाओं का सामना करना सीख सकें। इस दिशा में निश्चित रूप से माइंड लाइफ इंस्टिट्यूट धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को कार्यान्वित करने में संयुक्त राज्य अमरीका, यूरोप, थाईलैंड, हांगकांग और यहाँ जापान में एक अच्छा कार्य कर रहा है।”

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