परम पावन 14 वें दलाई लामा
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परम पावन दलाई लामा शीतकाल के महाशास्त्रार्थ सत्र के पश्चात् श्रामनेरियों को संबोधित करते हुए ५/नवम्बर/२०१३

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थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, भारत - नवम्बर ३, २०१३ - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा आठ श्रामनेरी विहारों के श्रामनेरियों से थोड़ी देर के लिए मिले, जो गत महीने डोलमा लिंग श्रामनेरी विहार के शीतकाल के महाशास्त्रार्थ में भाग ले रही है। उन्होंने प्रारंभ कियाः

“आप सब धर्मकीर्ति की प्रमाणवार्त्तिक पर  आधारित  शास्त्रार्थ  में लगी हुई है, आप लोगों ने एक दूसरे से क्या सीखा? ”

उन्होंने कहा कि ऐसी सूचनाएँ हैं कि एक समय तिब्बत में भिक्षुणियों द्वारा शास्त्रीय बौद्ध ग्रथों के अध्ययन की परंपरा थी, जो अंततः समाप्त हो गई। यह बदल गया है। उन्होंने गत वर्ष नेपाल के कोपन की श्रामनेरियों का उदाहरण दिया, जिन्होंने इस तिब्बती हँसी ठिठोली, कि श्रामनेरी समंतभद्र प्रार्थना का स्मरण करके ही गर्व का अनुभव करती है, को चुनौती दी, जब उन्होंने न केवल नागार्जुन के ग्रंथ पर चन्द्रकीर्ति के मध्यमकावतार और मैत्रेय के अभिसमयालंकार अपितु हरिभद्र के भाष्य स्फुटार्थ को कंठस्थ कर लिया, जो परम पावन ने स्वीकार किया कि उन्होंने जितना किया है उससे भी अधिक है। 

इसके उत्तर में, कि भिक्षुणियों द्वारा शास्त्रीय ग्रंथों के अध्ययन का पुनरुत्थान किस प्रकार हुआ, परम पावन ने तिब्बत के वर्णन को मध्य देश के रूप में उल्लेख िकया। इसका भौगोलिक स्थिति से कोई संबंध नहीं है, पर चार परिषद, जिसमें भिक्षु, भिक्षुणियाँ, उपासक और उपासिका शामिल हैं, के अस्तित्व से संबंधित है।
 
तिब्बती परम्परा में भिक्षुणी संवर को संस्थागत करने के अब तक के अनसुलझे प्रश्न पर परम पावन ने कहाः
 
“कुछ लोगों ने इस पर शिकायत की है, क्योंकि अब तक किसी निर्णय पर पहुँचा नहीं गया है। पर यह कुछ ऐसा नहीं है, जो केवल मेरे द्वारा निश्चित किया जा सके। बुद्ध ने नियम और विधियाँ निर्धारित की है, जिसको परिवर्तित करने का निर्णय केवल एक भिक्षु नहीं ले सकता। इसमें संघ के अंदर मतैक्य होना आवश्यक है। हमने अपने तथा अन्य संघों, जैसे पालि परम्परा के उत्कृष्ट विनयधरों के बीच बैठकें तथा चर्चाएँ की है।”
                                                                   


“तिब्बत में हम शांतरक्षित द्वारा प्रतिस्थापित मूलसर्वास्तिवादी की विनय परम्परा, ऐसी परम्परा जो बुद्ध के पुत्र राहुल से चली आ रही है, का पालन करते हैं। हमने इस परम्परा को बड़ी सावधानी से संरक्षित रखा है, जो कि पालि परम्परा में पालन किए जा रहे थेरवाद विनय से केवल सतही अंतर रखती है। जब अतीश तिब्बत आए तो पहले से ही प्रतिस्थापित मूलसर्वास्तिवादी परम्परा के प्रति सम्मान के कारण उन्होंने कहा कि लोकोत्तरवाद परम्परा, जिसका पालन वे स्वयं करते थे, का उनके द्वारा प्रचार के प्रयास का कोई अर्थ नहीं है।”                                            

परम पावन ने इस बात पर बल दिया कि विनय का विशुद्ध रूप से पालन आधारभूत महत्व रखता है। मूलसर्वास्तिवादी ग्रंथ निर्देश करता है कि भिक्षुणी संवर वरिष्ठ भिक्षुणियों की अध्यक्षता में होना चाहिए और सुझाव देता है कि ऐसा संवर मात्र भिक्षुओं की अध्यक्षता में नहीं होना चाहिए। अतः यदि केवल भिक्षु मात्र ही इस संवर अनुष्ठान का संचालन करें तो यह स्पष्ट नहीं है कि यह दोष रहित होगा। यह ऐसी जटिल समस्या है जिसका उत्तर देना अभी भी बाकी है। परम पावन ने उल्लेख किया कि एक चीनी विनय के गुरु, जो अब जीवित नहीं हैं, ने सलाह दी कि जब संदेह हो तो उसे सुलझाने के प्रयास किए जाने चाहिए। अभी जिस निर्णय की आवश्यकता है वह यह है कि क्या मूलसर्वास्तिवादी अनुष्ठान द्वारा वरिष्ठ भिक्षुणियों की अनुपस्थिति अथवा उपस्थिति में भिक्षुणी संवर दी जा सकती है।

“कुछ लोगों ने मुझे ‘पुरुष प्रभुत्व का हामी’  कह कर मेरी आलोचना की है क्योंकि मैं अपने कथित अधिकार का प्रयोग नहीं कर रहा। पर मैं अपने आप में इसका निर्णय नहीं ले सकता। परन्तु जो मैं कर सकता हूँ, वह यह कि श्रामनेरियों को शास्त्रीय ग्रंथ के अध्ययन हेतु प्रोत्साहित करूँ। जैविक रूप से पुरुषों और स्त्रियों के मस्तिष्क में कोई अंतर नहीं है और बुद्ध ने स्पष्ट रूप से पुरुषों और स्त्रियों को समान अधिकार दिए। तंत्र में स्त्रियों को विशेष सम्मान  प्रदान किया जाता है। पर फिर भी जब विनय की बात आती है तो हमें परम्परा का पालन करना पड़ता है।”                                                                                                     

परम पावन ने दोहराया कि श्रामनेरियों को अध्ययन का समान अधिकार है और यही कारण था कि लगभग ४० वर्ष पूर्व उन्होंने श्रामनेरियों को दर्शन का अध्ययन प्रारंभ करने के लिए प्रोत्साहित किया था। उन्होंने गदेन छोलिंग में आरंभ किया और तब से यह अन्य श्रामनेरी विहारों में नियम बन गया है। 

“मैंने श्रामनेरियों को शास्त्रार्थ करते देखा है,” उन्होंने कहा, “और वे बहुत अच्छा करती है। हमने अंततः निश्चय कर लिया है कि श्रामनेरियों के लिए गेशे - मा परीक्षा रखें, जो कि उनके वर्षों के अध्ययन की उचित समाप्ति है । जब हमने प्रथम बार गेशे-मा उपाधि की चर्चा की तो कुछ विद्वानों ने आश्चर्य जताया पर हम दृढ़ रहे। यह शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने के बारे में है।”

“अतीत में गेन पेमा ज्ञलछेन ने अपनी गेशे उपाधि की परीक्षा में बैठने से पहले ३० अथवा ४० वर्षों का अध्ययन किया था। आजकल साधारण रूप से २० वर्षों का समय लग जाता है। मैंने अनुरोध किया था कि सन्यासिनों को दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन करने में सक्षम होना चाहिए, आपने कर दिखाया है और मैं आपको धन्यवाद देना चाहूँगा।”
 
उन्होंने स्पष्ट किया कि बुद्ध की शिक्षाओं में अनुभूति तथा ज्ञान निहित है, अतः यह महत्वपूर्ण है कि अभ्यास का मार्ग और अध्ययन के मार्ग का पालन किया जाए। इसी तरह धर्म को संरक्षित किया जा सकता है। समझ की प्राप्ति के लिए अध्ययन की आवश्यकता है और अनुभूति की प्राप्ति के लिए अभ्यास की आवश्यकता है। अभ्यास केवल समझ पर आधारित हो सकता है। परम पावन ने ऐसे लोगों की बात की, जिनसे वे मिले हैं, जिन्होंने बताया कि वे बौद्ध हैं, जिन्होंने कहा कि बौद्ध होने के लिए बुद्ध की शरण लेनी पड़ती है, पर वे यह नहीं कह सके कि बुद्ध क्या है।
 

उन्होंने कहा कि हममें से कई बुद्ध बनना चाहते हैं पर यदि हम मार्ग को न समझें तो हम लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। हममें तथागतगर्भ हो सकता है पर हमें उसकी अनुभूति के लिए शून्यता को समझने की आवश्यकता है। प्रारंभ में हम नकारात्मक भावनाओं से भरे हो सकते हैं पर हम अपने आप को उनसे मुक्त कर सकते हैं। जहाँ ज्ञान हो वहाँ अंधविश्वास के लिए कोई स्थान नहीं। हम धर्म का अभ्यास केवल श्रद्धा के आधार पर नहीं कर सकते। हमें न केवल ज्ञान पर उसकी समझ की भी आवश्यकता है ।

“हम ग्रंथों के तीन पिटकों का अध्ययन शील, समाधि और प्रज्ञा की शिक्षा के लिए करते हैं। एक बार हमने अध्ययन कर लिया तो अभ्यास के द्वारा हमें अनुभव प्राप्त करने की आवश्यकता है। यह पर्याप्त नहीं है यदि आपने यह कहा कि मैंने यह सुना है अथवा वह सुना है, अच्छा यह होगा यदि आप तीन शिक्षा का अभ्यास करें। आप में अपने अनुभव के आधार पर शिक्षा देने की क्षमता होनी चाहिए। हमारे अध्ययन पर बल देने के कारण लोग अभ्यास के विषय में अधिक न सोचकर शास्त्रार्थ से अभिभूत हो जाते हैं। इसी कारण मैंने विहारों से अनुरोध किया है कि ऐसे स्थानों की स्थापना करें, जहाँ भिक्षु एकांतवास में जा सकते हैं। यदि हम प्रज्ञा पारमिता ग्रंथों का अध्ययन करें तो हम उनमें दिए गए अभ्यास में लगे रहने का परामर्श पाएँगे।”

“धर्म एक नाजुक मोड़ पर है। आप यह सोच सकते हैं कि अपना शेष जीवन एक तपस्वी के रूप में बिताना अच्छा होगा पर हमें दूसरों को शिक्षा देने के लिए योग्य व्यक्तियों की भी आवश्यकता है। एक बार आप अपनी अध्ययन समाप्त कर लें तो अध्ययापन के लिए हमें आप में से कुछ श्रामनेरियों की आवश्यकता होगी। अब तक आप अध्ययन के लिए श्रामनेरियों पर निर्भर रही है, पर भविष्य में यह बहुत महत्वपूर्ण होगा कि श्रामनेरियों की अध्ययापन के लिए श्रामनेरी भी हो। उससे अधिक, हमें अपने धर्मनिरपेक्ष विद्यालयों में शिक्षा देने के लिए श्रामनेरियों की आवश्यकता है। अतीत में, चूँकि उन लोगों ने शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, माता – पिता अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा देने में असमर्थ थे। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि अपने अध्ययन के पश्चात एकांतवास में जाने की सोचें और उसके बाद दूसरों को शिक्षा देने का निश्चय करें। बस यही - धन्यवाद।”                                           

अपने निवास स्थल लौटने से पूर्व परम पावन ने सन्यासिन समूहों के साथ तस्वीरें खिंचवाई।

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