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'ब्रह्मांड, जीवन और शिक्षा' पर टोक्यो में वैज्ञानिकों के साथ संवाद १७/नवम्बर/२०१३

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टोक्यो, जापान - नवंबर १७, २०१३ -  जापान में २००४ से वैज्ञानिकों के साथ हो रहे संवाद श्रृंखला में पाँचवे के लिए, जापानी बौद्ध धर्म की शिनगान परम्परा के मुख्यालय कोयासान के मठाधीश उन्हें हॉल में ले गए जहाँ यह बैठक होने को थी। डॉ. हारुओ साजी ने वास्तविकता की समझ में बौद्ध और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बीच कई समानताओं की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कार्यवाही प्रारंभ की। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि ऐसी कई वस्तुएँ हैं, जिनके बारे में जानना हमारे लिए कठिन है और अपने स्वयं के वास्तविक चेहरे को देखने की असमर्थता का संदर्भ दिया। उन्होंने कहा कि जो हम दर्पण में देखते हैं वह केवल एक प्रतिबिंब है और  कागज़ पर एक चित्र के रूप में मात्र स्याही के बिंदु हैं। कोयासान के मठाधीश ने कहा कि उन्होंने अपनी परंपरा और तिब्बती बौद्ध धर्म के बीच बहुत समानता पाई है और वे वैज्ञानिकों के साथ परम पावन की बातचीत सुनने के लिए तत्पर हैं। संचालनकर्ता, प्रो. अकीरा इकेगामी ने परम पावन का परिचय कराया।

अपने सहयोगी पैनल सदस्यों और श्रोतागणों को आदरणीय भाइयों तथा बहनों के रूप में संबोधित करते हुए परम पावन ने कहा कि वे इस संवाद में भाग लेते हुए अत्यंत खुश हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि वे वैज्ञानिकों के साथ विशेषकर ब्रह्माण्ड विज्ञान, तंत्रिका जीव विज्ञान, भौतिक विज्ञान और मनोविज्ञान के क्षेत्र में पिछले ३० वर्षों से संवाद में लगे हुए हैं।  बातचीत पारस्परिक रूप से लाभप्रद सिद्ध हुए हैं, उन्होंने कण सिद्धांत और पदार्थ के विषय में बहुत कुछ सीखा है जबकि वैज्ञानिकों ने चित्त और भावनाओं के आंतरिक विश्व की ओर अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया है।  

"यह समझने के लिए कि हमारे मस्तिष्क किस प्रकार का व्यवहार करते हैं," उन्होंने कहा "हमें अपनी भावनाओं और उनके प्रभाव का अध्ययन करना होगा। अतीत में ऐसा लगता था मानो विज्ञान और आध्यात्म एक दूसरे के विरुद्ध हैं। परन्तु इस प्रकार के अंतर को बनाए रखना उपयोगी नहीं क्योंकि एक परम्परा भौतिक विश्व के ज्ञान से संबंध रखती है और दूसरी चित्त के आंतरिक विश्व से संबंधित है; हमें दोनों के बारे में जानने की आवश्यकता है।"

उन्होंने कहा कि बुद्ध द्वारा अपने अनुयायियों को दी गई सलाह, कि उन्होंने जो भी कहा उसे वैसे का वैसा न लें, पर उस पर प्रयोग करें,उसका परीक्षण और जाँच करें, में वैज्ञानिक दृ्िष्टकोण के समान एक स्वस्थ शंका है। बाद के नागार्जुन जैसे भारतीय आचार्यों ने बुद्ध के चार आर्य सत्यों में से तीसरे सत्य का क्या अर्थ है, का आलोचनात्मक रूप से परीक्षण किया। उन्होंने उद्घाटित किया कि मुक्ति या सच्चा निरोध चित्त की अवस्था है, जिसमें नकारात्मक भावनाएँ जो चित्त को क्लेशयुक्त करती है और बाधित करती है, का पूर्ण रूप से उन्मूलन हो चुका है। और उसे प्राप्त करने के लिए हमें आंतरिक अस्तित्व की शून्यता को समझना होगा। नागार्जुन ने स्पष्टीकरण किया कि यह कहना कि 'रूप शून्यता है और शून्यता रूप है' का संदर्भ किसी का भी वस्तुनिष्ठ रूप से अस्तित्व नहीं है पर मात्र उनके अंगों के आधार पर ज्ञापित है।

परम पावन ने बुद्ध की शिक्षाओं के व्यावहारिक प्रकृति की ओर ध्यान आकर्षित किया। चार आर्य सत्य कारण के आधार पर शिक्षित किए गए थे। बुद्ध स्वयं भी हमारे समान एक साधारण मनुष्य थे, पर गहन प्रशिक्षण के पश्चात वे प्रबुद्ध हो गए। उन्होंने कहा कि हम सब में तथागतगर्भ है पर उसे अपने प्रयासों से फलीभूत करना होगा। तथागतगर्भता हमारा अपना सूक्ष्म चित्त है और उसे चित्त के प्रयोग से ही परिष्कृत किया जा सकता है।  

"एक बौद्ध परिप्रेक्ष्य से शून्यता की समझ महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी प्रज्ञा के कारण, यथार्थ की इस झलक से हम अपने क्लेशों का उन्मूलन कर सकते हैं। एक अमरीकी मित्र, आरेन बेक नाम से जाने जाने वाले एक मनोवैज्ञानिक, ने एक बार मुझे बताया कि जब लोग क्रोधित होते हैं, तो वे अपने क्रोध की वस्तु को पूरी तरह से नकारात्मक देखते हैं, परन्तु इसमें से ९०% केवल मानसिक प्रक्षेपण है। अज्ञान, जो हमारे विध्वंसकारी भावनाओं के मूल में है, का कोई वैध आधार नहीं है, पर प्रज्ञा जो वास्तविकता को समझती है, वह कारण पर आधारित है। बौद्ध दृष्टिकोण हमारी बुद्धि का लाभ अधिक से अधिक रूप में करता है। हमें तथ्यों से सत्य का परीक्षण करना और उसे ढँूढना है। और इसी कारण से मैं वैज्ञानिकों से चर्चा में शामिल होने का इच्छुक हूँ।"
 
शैक्षिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक संग्रह संस्थान के निदेशक, मोरिया ओकानो ने ब्रह्मांड चिकित्सा के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि विज्ञान की खामियों में से एक सभी को भौतिक सामग्री के स्तर पर कम करना है जिसके कारण लोग नैतिकता की भावना और जीवन की सार्थकता को खो रहे हैं। परिणाम जनित सार्थक विहीनता ने अवसाद और निराशा को जन्म दिया है। परन्तु पर्यावरण, सापेक्षता का सिद्धांत, आनुवंशिक अनुसंधान के विचारों के उद्भव ने उन्हें इस बात की सराहना करने के लिए प्रेरित किया है कि वे एक ऐसे संपूर्णता के पक्ष हैं जो चिकित्सीय महत्त्व का है ।  

परम पावन ने उल्लेख किया कि बौद्ध, सत्त्वों की निर्जीव वस्तुओं तथा सजीव वस्तुओं में अंतर करते हैं। यद्यपि पौधे, जानवर और लोग अंततः एक ही प्रकार के कणों के रूप में देखे जा सकते हैं, पर पौधों में समझने की शक्ति नहीं होती और न ही सुख अथवा पीड़ा का अनुभव करने की क्षमता होती है। अंतर, चेतना के होने का है, जिसका मुख्य आधार चेतना है। परम पावन ने यह भी उल्लेख किया कि अपने पुराने मित्र रांसिस्को वरेला के साथ व्यापक विचार विमर्श के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सत्त्वों को इस रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो स्वेच्छा से गतिशील हो सकती है।

"टोक्यो तकनीकी संस्थान में विज्ञान के एक शिक्षक सुसुमू साकूराई ने मानवता के संबंध को लेकर गणित के विषय में एक प्रस्तुति दी। उन्होंने ज़ोर दिया कि गणित का विकास और खोज मनुष्यों द्वारा की गई है, जिन्होेंने उन संख्यात्मक लोकों की खोज की है जो कि भौतिक इकाई के रूप में ब्रह्मांड से बेहतर हैं, पर जो ब्रह्मांड को समझने में एक महत्त्वपूर्ण उपकरण बन गए हैं। उन्होंने पाइ, जो गणित का एक स्थायित्व है, के कौतूहल परिष्कृत रूप, जो कि इसके चक्र की परिधि को इसके व्यास का अनुपात है, की गणितीय निरंतर की उत्सुक पूर्णता का उल्लेख किया। उन्होंने एक रहस्यपूर्ण प्रदर्शन किया जिसमें उसमें हर किसी की जन्म तिथि पाई जा सकती है।

टिप्पणी के लिए कहे जाने पर परम पावन ने कहा कि ऐसा करने के लिए उन्हें विषय के बारे में जानने की आवश्यकता है और यद्यपि अद्भुत वह प्रस्तुतीकरण अद्भुत था पर वे हमेशा गणित में कमज़ोर थे।  

प्रातः की तीसरी प्रस्तुति सुजुका जूनियर कॉलेज में सहायक प्रोफेसर अकीको कतसुमाता द्वारा दी गई। उन्होंने अपने को किसी अन्य के स्थान पर रखने के महत्त्व और शैक्षणिक मूल्य पर बात की और कई मामलों को बारे में बताया जब उन्होंने सबक सीखा था क्योेंकि वे सीखने में विफल रही थी।

 
एक अवसर पर वे किसी मानसिक पक्षाघात व्यक्ति के साथ रेस्तराँ गई थी और उन्होंने अपने िलए ऑर्डर देना प्रारंभ कर दिया, यह सोचते हुए कि वह एक दयापूर्ण और कुशल बात थी। उनके साथी ने शिकायत की, कि वह ऐसा व्यवहार कर रही थी, मानो दूसरा उपस्थित ही नहीं है। एक दूसरे समय वह अस्थायी आवास में रह रहे टोहोकू भूकंप के पीड़ितों के साथ काम कर रही थी। उन्हें यह सुनकर झटका लगा कि एक महिला के लिए सबसे बुरा यह था कि उसे एक गंदे रसोईघर में िनभाना पड़ रहा था क्योंकि सभी उससे होकर आ जा रहे थे। अंत में उन्होंने एक नवजात शिशु के 'देवदूत मुस्कान' के चित्र दिखाकर जो साधारणतया असहाय माने जाते हैं, श्रोताओं को प्रसन्न कर दिया।

प्रातः के सत्र को समाप्त करने के लिए उनके विचार पूछे जाने पर परम पावन ने कहा: सभी प्राणी सुख चाहते हैं और परेशानी से मुक्त होकर शांतिपूर्वक रहना चाहते हैं। अतः मानव अधिकार की अवधारणा सार्वभौमिक है। यह उन सब पर लागू होना चाहिए जो दुख अथवा सुख का अनुभव करते हैं। यही कारण है कि दूसरों के प्रति सच्ची चिंता को विकसित करना आपके अपने चित्त की शांति का स्रोत है; यह अपने साथ विश्वास और शांति की भावना लाता है। सौहार्दता की भावना का परिष्कार करना हमारे अपने कल्याण में सहयोग करता है।

मध्याह्न का सत्र जापान की राष्ट्रीय खगोलीय वेधशाला के  प्रोफेसर एमेरिटस, नोरियो कैफू से प्रारंभ हुआ, जिन्होंने घोषणा की कि वे एक खगोलशास्त्री हैं जिनकी बौद्ध धर्म में रुचि है। उन्होंने कहा कि उनका विश्वास है कि ब्रह्मांड को लेकर न तो कोई आरंभ अथवा अंत का सिद्धांत है। यथार्थ में जैसे जैसे ब्रह्मांड फैलता जा रहा है वह विकसित भी हो रहा है। उन्होंने कहा कि ब्रह्मांड की उत्क्रांति भौतिकी के कई नियमों और संयोगों की एक श्रृखंला के मिश्रण से हुई है और अपने ही जीवन का उदाहरण देते हुए उसे इस प्रकार के संयोगों की एक श्रृखंला का परिणाम बताया। उन्होंने सुझाव दिया कि इस संदर्भ में केवल बौद्ध धर्म ही ऐसी धार्मिक परम्परा है जो विज्ञान से मेल खाती है। उन्होंने परम पावन को यह बताते हुए समाप्त किया कि वे तिब्बत में एक खगोलीय वेधशाला के निर्माण के अंर्तराष्ट्रीय परियोजना का हिस्सा हैं।

दोपहर की दूसरी प्रस्तुति प्रोफेसर एमेरिटस, क्योटो विश्वविद्यालय शिंनिची निशिकावा द्वारा दी गई, जिन्होंने पूछा कि २१वीं सदी में वैज्ञानिकों को किस बात की ओर देखना चाहिए। उन्होंने ध्यान दिलाया कि मनुष्य कितने प्रकार की चीज़ों से व्यवहार करते हैं जिनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। उन्होंेने एक घड़ी का उदाहरण दिया जिसका भौतिक अस्तित्व है, पर उसके प्रकार्यों और समय बताने के उसके उद्देश्य जिसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि किसी पात्र की शून्यता और किसी खिड़की अथवा द्वार की जगह, भौतिक अस्तित्व का अभाव जो उन्हें कार्य करने की अनुमति देता है।

परम पावन को यह संकेत देने के लिए प्रेरित किया गया कि किसी वस्तु के अस्तित्व के न होने में और किसी वस्तु के अस्तित्व के न होने की सिद्धता में महत्त्वपूर्ण अंतर है। उन्होंने तीन वर्गों के घटनों की बात की, वे जो स्पष्ट रूप अस्तित्व में हैं, वे जो थोड़े छिपे हैं और वे जो बहुत अधिक छिपे हैं। स्पष्ट पदार्थ वे हैं जिन्हें हम देख सकते हैें, पर जिनमें हमारी चेतना के अनुभव हैं जो हमारे लिए स्पष्ट हैं यद्यपि हम उन्हें देख, छू या माप नहीं सकते।

थोडी छिपी घटना के संदंर्भ मे यदि आप किसी वस्तु को लेकर अनिश्चित हैं तो उसके अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए आप एक कारण संबंध का उदाहरण दे सकते हैं। आप कह सकते हैं कि प्रभाव के अभाव में अाप कारण का अनुमान लगा सकते हैं, अथवा चूँकि आप प्रभाव देख सकते हैं आप कारण के अस्तित्व का अनुमान लगा सकते हैं। जब अत्यंत छिपी घटना की बात आती है तो हमारा सहारा एक विश्वसनीय सूचना देने वाला है।

परम पावन ने समझाया कि तिब्बती में संरक्षित बौद्ध साहित्य का वर्गीकरण विज्ञान तथा दर्शन में किया जा सकता है, जिसमें किसी की भी रुचि हो सकती है और बौद्धों को केवल धार्मिक विषयों में रुचि हो सकती है। उन्होंने घोषणा की कि बौद्ध विज्ञान विषय के दो खंडों का संकलन हो चुका है और निकट भविष्य में इनका प्रकाशन होगा।

अंतिम टिप्पणियों के बीच प्रो. निशिकावा ने कहा कि जिस सीमितता के बीच वे कार्य कर रहे हैे, वैज्ञानिक स्वतंत्र नहीं हैं, पर वे सुरक्षित हैं। परम पावन ने उत्तर दिया:
मेरी कई वैज्ञानिकों के साथ गंभीर चर्चा हुई है। और मैंने पाया है कि श्रेष्ठ वैज्ञानिक बुद्धिमान, खुले विचारों वाले और स्वीकार करने वाले होते हैं। उनके चित्त बँधे नहीं अपितु खुले होते हैं। परन्तु वे किसी भी बात को तब तक स्वीकार नहीं करते जब तक कि उसे प्रयोग अथवा कारण से प्रमाणित नहीं किया जाता।

प्रो. कैफू ने परम पावन से पूछा कि वह बौद्ध धर्म को किस तरह संक्षेप रूप में प्रस्तुत करेंगे और उन्होंने उत्तर दिया:

"सभी प्रमुख धर्मों का एक ही संदेश है, सुखी जीवन जीने का। जो बौद्ध धर्म के बारे में अनूठा है वह यह कि यहाँ न केवल एक सृजनकर्ता की कोई अवधारणा नहीं है, पर अपने आप में अस्तित्व रखने वाली आत्मा की भी कोई धारणा नहीं है। इसका आधारभूत दार्शनिक दृष्टिकोण है कि सभी वस्तुएँ परस्पर आश्रित हैं, उनका अस्तित्व अन्य तत्वों पर आश्रित होकर आता है, और उसका आचार, अहिंसा सार्वभौमिक हित में है ।"

प्रो. मुराकामी को समापन भाषण प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने कहा कि उन्हें इस कार्यक्रम को आयोजित करने में बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने परम पावन को, संचालक,  पाँच वक्ताओं और जापान के परम पावन के प्रतिनिधि श्री ल्हगपा छोको को इस विशिष्ट कार्यक्रम को संभव करने के लिए धन्यवाद दिया। श्रोताओं ने उदार भाव से तालियों की गड़गड़ाहाट से उनका अभिनंदन किया।

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