परम पावन 14 वें दलाई लामा
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मंगोलियाई बौद्धों के लिए प्रवचन का दूसरा दिन और वज्रभैरव की प्रारंभिक दीक्षा ३/दिसम्बर/२०१३

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नई दिल्ली, भारत - दिसंबर ३, २०१३  - जब परम पावन दलाई लामा आज तड़के केम्पिनस्की होटल के बॉलरूम में पहुँचे तो आवश्यक तैयारी पहले से ही पूरी कर ली गई थी। उन्होंने प्रवचन आसन के समीप एक आसन ग्रहण किया, उनके समक्ष मंच के पीछे एक छोटा मंडल घर, अनुष्ठान केक और अन्य प्रसाद क्रमानुसार सजाकर रखे गए थे। तत्पश्चात उन्होंने वज्रभैरव दीक्षा, जो वे बाद में दिन में देने वाले थे, के लिए आवश्यक आत्म दीक्षा का अनुष्ठान किया। जैसे जैसे सभागार धीरे - धीरे लोगों से भरता गया, वह शांति कभी परम पावन की घंटी और कभी उनके डमरू ताल की ध्वनि से भंग होती थी।


ग्रंथ की शिक्षा, जहाँ उन्होंने कल छोड़ी थी, वहाँ से जारी रखते हुए, वे जे चोंखापा दो ग्रंथों में से दूसरे 'मार्ग के प्रमुख तीन' की ओर मुड़े। उन्होंने समझाया कि पहले ही पद में तीन अंगों का संदर्भ दिया गया है, मुक्ति के लिए दृढ़ संकल्प, बोधिचित्त, सम्यक दृष्टिकोण की प्रज्ञा और साथ ही ग्रंथ की रचना का संकल्प। उन्होंने 'मार्ग के प्रमुख तीन' के प्रत्येक अंग के लिए तीन दृष्टिकोणों को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि जब हम मुक्त होने के लिए दृढ़ संकल्प की बात करते हैं, तो वह इस जीवन के आकर्षण से असंतोष की भावना पर आधारित है। 
यदि हम प्रश्न करें कि मुक्त होने के लिए एक दृढ़ संकल्प का विकास कैसे करें तो हमें यह भी पूछना होगा कि हम इस जीवन से क्यों चिपके रहते हैं, क्यों हम जीवन के आनंद को कस कर पकड़े रहते हैं और उत्तर है कि हम अशुद्धता को शुद्धता के रूप में देखते हैं। हम अष्ट लौकिक चिंताओं के अधीन हैं, और चार गलत व्यवहार से प्रेरित हैं: जो अनित्य है उसे नित्य रूप में देखना, जो दुख है उसे सुखद जैसा देखना, जो अशुद्ध है उसे शुद्ध समझना, जो नैरात्म्य है उसे स्व अस्तित्व वाला मानना।

नागार्जुन कहते हैं कि बुद्ध की शिक्षाएँ दिखाती है कि दुख कारणों और परिस्थितियों से आता है पर जब उसके समक्ष एक प्रतिबल आता है तो वह रुक जाता है। उदाहरण के लिए, जब जीवन के हेतु समाप्त हो जाते हैं तो मृत्यु आती है।जो भी कारणंों और परिस्थितियों से उत्पन्न होता है उसका बिखरना निर्धारित है। एक सूक्ष्म स्तर पर, क्षणिक परिवर्तन होते हैं जो वैज्ञानिक एक सूक्ष्म स्तर पर देख सकते हैं। वह कारण जिसके कारण कुछ अस्तित्व में आता है, वही उसके विघटन का भी कारण है, अतः वस्तुएँ अनित्य हैं और क्षण क्षण में विघटित होती है।
 
इसके बाद परम पावन ने कर्म के विषय में बात की, जो कि जानकर किया गया कार्य है, जो पीड़ा या आनंद की भावनाओं में परिपक्व होगा। उन्होंने कहा:

"कुछ आलसी लोग अपने 'कर्म' को लेकर शिकायत तथा अभियोग का सम्बल लेते हैं। यदि आपके द्वारा निर्मित कर्म आपके द्वारा बनाए गए कर्म दुर्बल हैं, तो आप प्रबल सकारात्मक कार्य से उसका सामना कर सकते हैं। हम आत्म के सच्चे अस्तित्व की ग्राह्यता के कारण कर्म निर्मित करते हैं।"
 
ग्रंथ का अगला सिद्धांत बोधिचित्तोत्पाद है, जिसके बिना प्रज्ञा हमें प्रबुद्धता तक नहीं लाएगी। सौहार्दता का विकास मित्रों को आकर्षित करता है जबकि आत्म केन्द्रितता कोई आनंद उत्पन्न नहीं करता।
 
"मेरे पीछे १७ नालंदा आचार्यों का एक चित्र है। वे नालंदा के शीर्ष विद्वान ही थे, जिन्होंने अपनी मानवीय बुद्धि का अधिकतम उपयोग किया। उन्होंने वस्तुओं की प्रकृति का परीक्षण किया और उन्होंने भी सहमति जताई कि बोधिचित्त स्वयं के तथा दूसरों के लाभ के लिए सबसे प्रभावशाली ढंग है। उन्होंने व्यापक बोधिसत्व कर्म और गहन ज्ञान पर बल दिया। शांतिदेव बोधिचित्त को सत्वों की इच्छा पूरी करने वाला एक कोष मानते हैं, ऐसा अमृत जो उनके सभी रोगों का निदान है और उनकी थकान दूर करता है।"

जब मार्ग के तीसरे सिद्दांत की बात आती है, जे चोंखापा वस्तुओं का संदर्भ मात्र ज्ञापित रूप में देते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद के माध्यम से उत्पन्न होने का अर्थ है कि वे अनंतवाद और शून्यवाद की अति से मुक्त हैं। उनका कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं है, उन्हें केवल ज्ञापित किया गया है। जिस ठोस रूप में वे प्रतीत होते हैं, उनका अस्तित्व ऐसा नहीं है। परम पावन ने स्मरण करते हुए कहा:

"शून्यता में रुचि लेने के लिए जिन्होंने मुझे प्रेरित किया वे एक मंगोलियाई विद्वान थे जिनका नाम गेशे ङोडुप छोकञी था, जो शास्रार्थ में मेरे सहभागी थे। मेरे गेशे की परीक्षा के समाप्त होने पर हमने जे रिनपोछे (चोंखापा) के 'वाग्मिता का सार' के अध्ययन का निर्णय लिया था, पर परिस्थितियाँ बदल गई।"

जब हम प्रतीत्यसमुत्पाद की बात करते हैं तो हम कह सकते हैं कि, संपर्क, आकस्मिकता और निर्भरता पर्याय हैं। जैसे ही एक कारण समाप्त होता है, उसका प्रभाव उत्पन्न होता है। कारण के समाप्त होने और प्रभाव के उत्पन्न होने के बीच संपर्क है। पूर्ण और उसके अंगों के बीच आकस्मिकता है। जैसा पहले ही बताया जा चुका है, वस्तुएँ अन्य कारकों पर निर्भर होकर अस्तित्व में आती हैं, वे मात्र ज्ञापित हैं, और उनका तनिक भी वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं हैं।

ग्रंथ कहता है 'जब आप शून्यता के दृष्टिकोण से कारण और प्रभाव के उत्पाद को समझते हैं, तो दोनों अति की दृष्टि से बँधते नही।’

 
परम पावन ने अतीत और वर्तमान में हो रहे इस तर्क की चर्चा की, कि महायान, संस्कृत परंपरा, और विशेष रूप से वज्रयान क्या वास्तव में बुद्ध द्वारा शिक्षित की गई थी। नागार्जुन साथ ही अन्य नालंदा आचार्यों ने इसे चुनौती दी थी। हमें यह समझने की आवश्यकता है। 
 
उन्होंने समझाया कि बुद्ध ने चार आर्य सत्य की शिक्षा दी जिसमें से तीसरा निरोध है। महायान इसकी व्याख्या शून्यता के संदर्भ में करता है। जो प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से जाना जाता है, उसका संबंध चार आर्य सत्य से था, द्वितीय प्रज्ञा पारमिता सूत्र और तृतीय का, जो शिक्षण में नीतार्थ है और जो नेयार्थ है, साथ ही तथागतगर्भता। पालि परंपरा का संबंध प्रथम धर्म चक्र प्रवतन से है जबकि संस्कृत या महायान परम्परा तथा वज्रयान का संबंध द्वितीय और तृतीय प्रवर्तन से है।
 
एक और विवादित विषय जिसकी ओर परम पावन ने संकेत दिया वह बुद्ध की अंतिम स्थिति थी। पारंपरिक विवरण उनके एक राजकुमार के रूप में जन्म, उनका त्याग, तपस्या और बोधिवृक्ष के नीचे बुद्धत्व की प्राप्ति के विषय में बताता है। मान्यता है कि पहले बोधिचित्तोत्पाद प्राप्त करने के पश्चात उन्होंने तीन अनगिनत कल्पों तक अभ्यास किया। उन्होंने ३५ वर्ष की आयु में बुद्धत्व प्राप्त किया और उसके बाद धर्म की शिक्षा और सेवा ४६ वर्ष तक की। नागार्जुन जैसे शिक्षकों ने इस निहितार्थ को चुनौती दी अंत में इस तरह का कठिन प्रयास शून्यता लाता है। बुद्ध के चार कायों की अवधारणा - स्वभाव काय, ज्ञानधर्म काय, संभोग काय और निर्माण काय इन्हें समझाने का एक तरीका है।

मध्याह्न के भोजन के पश्चात परम पावन ने वज्रभैरव दीक्षा की प्रारंभिक तैयारी प्रक्रियाएँ प्रारंभ कर दी। उन्होंने कहा:
"जिस तरह हम जानते हैं कि महायान का प्रवेश द्वार बोधिचित्तोत्पाद है, उसी तरह वज्रयान का प्रवेश द्वार दीक्षा है।"

वज्रभैरव के गुणों के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि वह रौद्र तथा शांत स्वरूप को साकार करते हैं और यदि आप किसी एक के अभ्यास में ध्यान केंद्रित करें तो आप को दूसरे का भी फल प्राप्त होता है। यह एक ऐसा तंत्र भी है जो अपने में गुह्यसमाज और चक्रसंवर तन्त्र के तत्व लिए हुए हैं।

एक पूर्ण दीक्षा के लिए, शिष्य को प्रतिमोक्ष संवर और बोधिसत्व संवर दोनों को ही धारण करना चाहिए।  जहाँ एक ओर बोधिसत्व संवर ग्रहण कल की दीक्षा का प्रमुख भाग होगा, परम पावन ने आज उपासक-उपासिका का संवर दिया। उन्होंने संकेत किया कि इस तरह के व्रत बुद्ध ,धर्म और संघ के शरणगमन लेने के आधार पर लिए जाते हैं।

वज्रभैरव दीक्षा के विषय में परम पावन ने कहा कि यह प्रथम अनुत्तर योग तंत्र था, जिसकी दीक्षा उन्हें ७ या ८ वर्ष की आयु में प्राप्त हुई थी। अंतिम वज्रभैरव दीक्षा उन्हें बोधगया में लिंग रिनपोछे से, उनके निधन से पहले वर्ष में, मिली थी।

प्रारंभिक दीक्षा के एक भाग के रूप में, छात्रों को आशीर्वचित सुरक्षा सूत्र और अपने गद्दे के नीचे रखने के लिए एक लम्बा कुश घास दिया गया, जिससे वे अपने स्वप्नों का स्पष्टीकरण कर सकें, जिस पर ध्यान देने के लिए उन्हें पहले से ही कहा गया था।

परम पावन ने कल दीक्षा देने की बात की

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