परम पावन 14 वें दलाई लामा
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रूसी बौद्धों के एक दल के लिए प्रवचन का पहला दिन २१/दिसम्बर/२०१३

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दिसंबर २१, २०१३ - नई दिल्ली, भारत - २१ दिसंबर, २०१३ - आज दिल्ली का आकाश कोहरे से ढँका और सलेटी रंग का था, जब परम पावन प्रातः शीतकालीन संक्रांति में रूसी बौद्धों के एक दल के लिए पिछले वर्ष प्रारंभ किए हुए प्रवचन को जारी रखने हेतु केंम्पिनस्की होटल के लिए गाड़ी में रवाना हुए। द्वार पर येलो रिनपोछे तथा तेलो रिनपोछे, उनके रूसी मेजबान और होटल प्रबंधकों ने उनका स्वागत किया और उन्हें बॉलरूम तक ले गए। वहाँ १३०० रूसी, २० चीनी और लगभग १२० तिब्बती और अन्य विदेशी शांति से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे, उनके चेहरे प्रत्याशा में डूबे थे। श्रोताओं तथा आसन के चारों ओर बैठे लामाओं का अभिनंदन कर परम पावन ने अपना आसन ग्रहण किया।

"चूँकि यह आप ही हैं जो अपने मन से परिचित हैं", उन्होंने प्रारंभ किया, "अतः आप ही सबसे श्रेष्ठ निर्णायक हो सकते हैं कि कोई परिवर्तन हुआ है अथवा नहीं। यदि आप दूसरों की सहायता के लिए अपने आप को समर्पित कर दें तो आप सुखी रहेंगे।  मैं स्वयं भी अपने जीवन को आध्यात्मिक अभ्यास से भरने का प्रयास करता हूँ और यद्यपि परिवर्तन रातों - रात घटित नहीं होता पर यदि आप पिछले कुछ वर्षों को देखें तो आप कुछ सुधार देखने में सक्षम हो पाएँगे।"
"बौद्ध धर्म चित्त परिवर्तन से जुड़ा है, उसके परिणाम स्वरूप जो कुछ भी हो आप विचलित न होेंगे। प्राचीन भारत ने शमथ का विकास करते हुए चित्त के संबंध में बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त किया। चित्त विज्ञान के रूप में बौद्ध धर्म ने उस ज्ञान को अधिकांश रूप में अभिव्यक्ति दी।"

परम पावन ने आगे कहा कि धर्म के अभ्यास का मूल एक अनुशासित चित्त के होने में है।


हृदय सूत्र का पाठ रूसी भाषा में हुआ। परम पावन ने अपने श्रोताओं को स्मरण कराया कि जो भी सिखाया जा रहा है, उसका कोई आध्यात्मिक मूल्य है या नहीं वह हमारी प्रेरणा पर निर्भर करता है। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक परंपराओं के बीच अंतर का प्रमुख बिंदु उनके शरण गमन पर निर्भर करता है। इसाई परमेश्वर और यीशु मसीह में, मुसलमान अल्लाह में शरण लेते हैं। बौद्ध, बुद्ध, धर्म तथा संघ में शरण लेते हैं जिसके फलस्वरूप काय, वाक तथा चित्त का जो भी अभ्यास हम करते हैं वह बौद्ध अभ्यास बन जाता है। कुछ बौद्ध मात्र स्वयं के लिए ही मुक्ति ढँूढते हैं, अन्य, जिनमें सभी सत्वों के लिए चिंता रहती है वे महायान का पालन करते हैं। जब वे यह कहते हैं, कि "मैं जो भी पुण्य संभार करूँ, मैं सभी सत्वों के लिए  बुद्ध बन सकूँ" तो वे महायान मार्ग में शरण लेते हैं और बोधिचित्त का विकास करते हैं।

विभिन्न आध्यात्मिक परंपराओं, यहाँ तक कि बौद्ध धर्म की विभिन्न परम्पराएँ भी, विभिन्न दार्शनिक विचारों का प्रतिपादन कर सकते हैं, पर वे प्रेम और करुणा का एक आम संदेश संप्रेषित करते हैं। परिणामतः अपनी परंपरा में विश्वास बनाए रखना उचित है पर दूसरों के प्रति भी सम्मान बनाए रखा जाए। आज की दुनिया में, परम पावन ने समझाया, कि संभव है १ अरब हों जो घोषणा करें कि उनकी धर्म में कोई रुचि या विश्वास नहीं है, परन्तु शेष ६ अरब के बीच कई ऐसे हैं जिनके जीवन उनकी स्पष्ट की जा रही श्रद्धा के साथ मेल नहीं खाते और जिनके कार्यों में भ्रष्टाचार का स्पर्श है। यद्यपि परोपकार कुछ ऐसा है जिसकी उन्हें भी आवश्यकता है जिनमें आध्यात्मिक रुझान नहीं है। इसलिए, धर्मनिरपेक्ष नैतिकता आज महत्त्वपूर्ण है। जब हमारे लिए चीज़ें बिगड़ती है तो आमतौर पर इसका कारण हमारा आत्म केन्द्रित व्यवहार है।

"सौहार्दता प्रसन्नता का मूल है और यह धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का आधार है। यह अगले जीवन, निर्वाण, भगवान अथवा बुद्ध के बारे में नहीं है, यह अब, इस जीवन में किस प्रकार सुखी रहा जाए उसके विषय में है। इसलिए मैं जहाँ भी जाता हूँ धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के बारे में बात करता हूँ। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मुझे नहीं लगता कि मैं कोई खास हूँ। यदि मैं अपने दलाई लामा होने पर सोचता रहूँ तो यह मेरे और अन्य लोगों के बीच दूरी की भावना पैदा करता है। मैं खुला और सच्चा होने और स्वयं को दूसरों की ही तरह मानना पसंद करता हूँ।"

परम पावन ने स्पष्ट किया कि यह एक महायान अभ्यासी की प्रेरणा है कि वह दूसरों की सहायता करे। उन्होंने शांतिदेव का उद्धरण देते हुए कहा कि जब तक हम दूसरों के साथ अपने सुख का आदान प्रदान नहीं करते, हम सुखी नहीं हो सकते। उन्होंने कहा कि बुद्धि के उपयोग से हम जैविक रूप से प्राप्त हमारी स्नेह की भावना का विकास और वृद्धि कर सकते हैं।
 
"यदि आप ईश्वर में विश्वास करते हैं, तो आप अपने दुश्मन को ईश्वर के सृजन के रूप में देख सकते हैं और उसके प्रति अपने बैर की भावना कम कर सकते हैं। एक मुसलमान दोस्त ने मुझे बताया कि चूँकि सब कुछ अल्लाह द्वारा बनाया गया है इसलिए वही उनके सम्मान का आधार है।  इसलिए, यह मात्र बौद्ध नहीं है जो सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा का विस्तार करना चाहते हैं।"


उन्होंने टिप्पणी की कि बोधिसत्वचर्यावतार का पहला अध्याय परोपकार और बोधिचित्त से संबंधित है। परोपकार धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का आधार है और यदि हम अपने परिवार और दोस्तों के साथ इस पर चर्चा करें, तो वे अन्य लोगों के साथ इस पर चर्चा करेंगे और संदेश का प्रसार होगा। इसी तरह हम अपने परिवार और समुदायों को प्रभावित कर सकते हैं।  उन्होंने उल्लेख किया कि वे शिक्षा के माध्यम से धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और एशिया में शिक्षकों और वैज्ञानिकों के साथ एक परियोजना में लगे हुए हैं। विश्व में लोगों के दो प्रकार के समूह हैंः वे जिन्हें आध्यात्मिक मामलों में कोई रुचि नहीं और वे जो उन्हें मूल्यवान मानते हैं। धर्मनिरपेक्ष नैतिकता दोनों के िलए लाभकारी हो सकता है।

उनके पीछे लगे १७ नालंदा आचार्यों के चित्र की ओर इशारा कर वे बोले कि उन्होंने बौद्ध धर्म की सामान्य संरचना पर ग्रंथ लिखे, और इसी कारण हमें उनका अध्ययन करने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में कि जिन ग्रंथंों का वे संदर्भ दे रहे हैं, उनमें से किसका रूसी में अनुवाद किया जाना चाहिए, उन्होंने सुझाव दिया कि यदि धर्मकीर्ति की प्रमाणवार्तिक का अनुवाद किया जाए तो वह बहुत मूल्यवान होगा क्योंकि नागार्जुन की 'मूलमध्यमककारिका' और चन्द्रकीर्ति की 'मध्यमकावतार' का पहले से ही अनुवाद हो चुका है। उन्हें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि तिब्बती सम्राट ठिसोंग देचेन के कहने पर कमलशील द्वारा रचित भावनाक्रम का रूसी अनुवाद उपलब्ध है।

नालंदा आचार्यों के तीन उद्देश्य जान पड़ते हैं, दूसरों के विचारों का खंडन, अपने विचारों का प्रतिस्थापन और दूसरों के तर्कों की निराकरण। इसी क्रम में तिब्बती आचार्यों ने इन ग्रंथों का परीक्षण और विश्लेषण कर इन के विषय में लिखा।

"और उन्होंने जो कुछ भी लिखा उसके अध्ययन का परिणाम है कि अमदो के इस बालक में कुछ आत्मविश्वास है। यही अध्ययन का महत्त्व है।"

मध्याह्न के खाने के बाद सत्र तुवा के भिक्षुओं द्वारा हृदय सूत्र के सस्वर पाठ के साथ प्रारंभ हुआ। परम पावन ने समझाया कि बुद्ध ने चार आर्य सत्य के साथ अपनी शिक्षा प्रारंभ की पर जब वह सारनाथ, वाराणसी में पाँच शिष्यों से मिले तो उन्होंने उन्हें सलाह दी कि चीवर का अधो वस्त्र कैसे पहनें जो कि विनय का पहला निर्देश था। बाद में राजगीर के गृद्धकूट पर्वत पर उन्होंने प्रज्ञापारमिता की शिक्षा दी जो कि संस्कृत परम्परा में संरक्षित है। ये सार्वजनिक रूप से नहीं दिए गए थे। हृदय सूत्र में शारिपुत्र और अवलोकितेश्वर के बीच के संवाद का वर्णन है पर किसी ऐसे के लिए जिसमें महान बोधिसत्व को देखने के लिए आवश्यक कर्म शुद्धता न हो, तो ऐसा प्रतीत हुआ होगा कि शारिपुत्र स्वयं से बातें कर रहे हैें। वैशाली में तीसरे धर्मचक्र प्रवर्तन के दौरान बुद्ध ने तथागतगर्भता के विषय में समझाया।

"हम अपने क्लेशों को समाप्त करने का उद्देश्य रखते हैं", परम पावन ने घोषणा की। "और अंततः ऐसा करने के लिए हमें यह समझना होगा कि वे कैसे कार्य करते हैं। अज्ञान और नकारात्मक भावनाओं के कारण हम कर्म निर्मित करते हैं। यह प्रतीत्यसमुत्पाद के द्वाद्वशांग के चित्रण में स्पष्ट किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि एक बार आपने अज्ञान का अंत कर दिया तो अन्य कड़ियाँ भी समाप्त हो जाती है। इसलिए हमारे लिए शून्यता को समझना और इसका क्या अर्थ है कि, 'रूप शून्यता है, शून्यता रूप है' की समझ आवश्यक है।"

बुद्ध ने शिक्षा दी कि बुद्धत्व का अनुभव करने के लिए प्रशिक्षण द्वारा हम चित्त में परिवर्तन ला सकते हैं, एक साधारण व्यक्ति के चित्त में। परम पावन ने स्पष्ट किया कि हृदय सूत्र के मंत्र को किस प्रकार पांच मार्गों के माध्यम से प्रगति  के रूप में समझा जा सकता है। पहला, 'गते' संभार मार्ग को इंगित करता है, दूसरा 'गते' प्रयोग मार्ग, 'पारगते' दर्शन मार्ग 'पारसंगते' भावना मार्ग और 'बोधि स्वाहा' अशैक्ष मार्ग को इंगित करता है।


अपने क्लेशों पर काबू पाने के लिए, हमें परिवर्तन प्राप्त करने का एक साधन आवश्यक है। हमें चित्त में परिवर्तन लाने के लिए अपने ही चित्त को काम में लाना होगा। चित्त जिस तरह से कार्य करता है वह आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ संवाद के लिए एक आधार प्रदान करता है। जहाँ बौद्ध दो सत्य, सापेक्षता और कार्य करण के नियमंों की बात करते हैं, क्वांटम भौतिकीविदों का कहना है कि कुछ भी निश्चित रूप से पाया नहीं जा सकता। एक अंगहीन कण जो किसी पर निर्भर न हो, पाया नहीं जा सकता।  परम पावन ने कहा कि हाल ही में तिब्बती में एक पुस्तक का संकलन  किया गया है जिसमें बौद्ध विज्ञान कांग्युर और तेंग्युर से लिया गया है। इसे अंग्रेजी, चीनी और हिन्दी में अनुवाद करने के निश्चित प्रस्ताव हैं।

प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ बुद्ध की शिक्षाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण हैं जिनका संबंध उपाय तथा प्रज्ञा से है। उनमें जो कहा गया है उस पर युक्तिषष्टिका में नागार्जुन ने सविस्तार टिप्पणी और व्याख्या की है। बाद में उस उदाहरण का पालन करते हुए शांतिदेव बोधिसत्वचर्यावतार के नौवें अध्याय में शून्यता की व्याख्या करते हैं और अन्य परंपराओं और अन्य बौद्ध विचारों का खंडन करते हैं।

परम पावन ने स्पष्ट किया कि सांवृतिक बोधिचित्त सभी सत्वों के लिए प्रबुद्धता प्राप्त करने की आकांक्षा है। निष्पन्न बुद्धत्व की स्थिति सभी क्लेशों से पूरी तरह से से मुक्त होने और सर्वज्ञ  संपन्नता की है। इस मार्ग को प्राप्त करने के लिए प्रज्ञा आवश्यक है। शांतिदेव नागार्जुन के नेतृत्व का पालन तो करते हैं, पर उनको उद्धृत करते हुए नहीं अपितु तर्क के आधार पर। उन्होंने कारिका के लिए सह खंड के रूप में सूत्र समुच्चय भी लिखा और तिब्बत में दोनों ग्रंथों की शिक्षा एक साथ देने की परंपरा थी। परम पावन को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि अब दोनों ग्रंथ रूसी में उपलब्ध हैं।

"हमें नियमित रूप से स्वयं को स्मरण कराना चाहिए कि हम बुद्ध का पालन करते हैं और हमारी बोधिचित्तोत्पाद में रुचि है, 'परम पावन ने इसे स्वप्न में भी नहीं खोने की' सलाह दी। यदि आप में बोधिचित्त है, तो आप पूरी तरह से अन्य प्राणियों के लाभ और कल्याण के लिए समर्पित होंगे।"

"इस अभ्यास का सबसे बड़ा प्रभाव जो मुझ पर हुआ वह मेरे चित्त की शांति पर है। मैं शून्यता की अनुभूति या बोधिचित्त के विकास का कोई दावा नहीं करता, पर मुझ में शून्यता की कुछ समझ है और यह बोधिचित्त की समझ है जिसने मुझे साहस और आत्म विश्वास दिया है। यह बहुत बहुत उपयोगी है।"

चूँकि 'बोधिसत्वचर्यावतार' के पाँचवें अध्याय के श्लोकों का पाठ प्रारंभ कर दिया गया था, इसलिए परम पावन ने सुझाव दिया कि कल का प्रातःकालीन सत्र प्रश्नोत्तर से शुरू हो सकता है।

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