परम पावन 14 वें दलाई लामा
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सिडनी में परम पावन दलाई लामा का रत्नदीपः बोधिचित्त की प्रशंसा पर प्रवचन प्रारंभ १४/जून/२०१३

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सिडनी, ऑस्ट्रेलिया, जून 14, 2013 - सिडनी में दूसरे दिन सुबह के नाश्ते के तुरंत बाद 200 से अधिक चीनी विद्यार्थी, विद्वान और मित्र परम पावन दलाई लामा से मिलने की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने तिब्बती भाषा में उनका अभिनंदन किया, जिसका अनुवाद तत्काल चीनी भाषा में किया गया।

“हमारे संबंध न केवल निजी व्यक्तिगत स्तर पर हैं, पर लोगों के बीच के हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से तिब्बतियों और चीनियों के बीच एक लंबा संबंध रहा है। राजनैतिक प्रणालियाँ आती जाती हैं, पर हमारे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संबंध नहीं बदलेंगे।”


अतीत का पुनः हवाला देते हुए, उन्होंने कहा कि 7-9 शताब्दी में तिब्बत और चीन अलग देश थे, जैसा कि चीनी दस्तावेजों में आया है। पर उन्होंने आगे कहा कि चीज़ें बदलती हैं और आज चीन बहुत ही विकसित आर्थिक शक्ति है, जबकि तिब्बत आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत अविकसित है। इसलिए तिब्बत का चीनी गणतंत्र के साथ रहने में ही लाभ निहित है। तिब्बितियों की अपनी अनोखी भाषा है और एक अत्यंत परिष्कृत बौद्ध संस्कृति;  उन्हें एक सच्चे स्वायत्तता की आवश्यकता है जैसा कि चीनी संविधान में दिया गया है।

सिडनी मनोरंजन केन्द्र में पारम्परिक अभिवादन के पश्चात, परम पावन मंच के सामने वाले भाग में एक आरामकुर्सी पर बैठे। वह कई परम्पराओx के भिक्षु और भिक्षुणियों से घिरे हुए थे। उनके निर्देश पर पहले पालि में मंगल सुत्त का पाठ हुआ, फिर चीनी में हृदय सूत्र और तिब्बती में एक लघु पद।

जब मैं बौद्ध धर्म पर प्रवचन देता हूँ तो इसे एक प्रसंग में रखने के लिए मैं पहले एक भूमिका रखना पसन्द करता हूँ। उन्होंने कहा, “इस ग्रह पर 7 अरब लोग हैं। हम सब में आत्म की भावना है पर साथ ही पीड़ा और सुख की भावना भी है। हममें सुखी जीवन जीने की एक आंतरिक इच्छा है। और जो हमें जानवरों से अलग करती है वह है विचार और कल्पना शक्ति। हमारे सुखी जीवन की भावना हमारे इन्द्रियों के अनुभव तक सीमित नहीं है।’’

उन्होंने समझाया कि किस तरह लोगों ने भावनात्मक रूप से रहस्यों पर निर्भर होकर धर्म में तसल्ली और आशा पाई है। कुछ धार्मिक व्याख्याएँ आस्तिकवादी हैं और उनमें एक सृजनकर्ता शामिल है; अन्य, जिनमें सृजनकर्ता शामिल नहीं है वे नास्तिकवादी हैं। भारत में मुक्ति के विचारों का जन्म हुआ, प्रज्ञा द्वारा भ्रांति को दूर कर और शरीर शुद्धि के लिए शारीरिक तपस किया गया। बुद्ध ने तपस की अति और ऐशो आराम के बीच एक मध्यम मार्ग की शिक्षा दी। उन्होंने बल दिया कि शारीरिक कठिनाइयाँ मानसिक अवरोधों को दूर नहीं करती, जिन्हें केवल चित्त से दूर किया जा सकता है।

उन्होंने स्मरण कराया कि नास्तिकवादी जैसे सांख्य, जैन और बौद्ध किसी सृजनकर्ता में विश्वास नहीं करते। यह निर्देश कि शरीर और चित्त से अलग कोई आत्म नहीं है, बौद्ध धर्म को अलग करता है। जो बात बौद्ध धर्म के संदर्भ में अनूठी है, वह यह, कि शरीर और चित्त के आधार पर आत्म मात्र विज्ञप्ति या पदनाम है। फिर उन्होंने शरीर और चेतना के विभिन्न स्तरों और सूक्ष्मताओं की श्रेणियो की ओर संकेत किया। स्वप्नावस्था का शरीर, साधारण शरीर के रूप से सूक्ष्म होता है और गहरी निद्रावस्था में, शरीर और चित्त और भी सूक्ष्म होते हैं।

परम पावन ने एक जर्मन न्यूरोसाइंटिस्ट (तंत्रिका वैज्ञानिक) वुल्फ सिंगर का उल्लेख किया, जिसने मस्तिष्क की व्याख्या की है कि उसका कोई केन्द्रीय आधिपत्य नहीं है, जो उनके विचार में बौद्ध विचारों के अनुसार एक स्वतंत्र आत्म के न होने के तथ्य से मेल खाता है।

कारण हेतु नियम के अनुसार, जो हम पर बीतता है और जो हम पर बीतेगा, वह हमारे कंधों पर टिका है। यदि हमारे कार्य अच्छे हैं तो हम सकारात्मक परिणाम भोगते हैं, और यदि नहीं हैं तो, नहीं। अच्छे और बुरे कार्यों की विभाजक रेखा है, कि जो दूसरों के लिए लाभकारी हो वह सकारात्मक और अच्छा है, जबकि जो अहितकारी है वह नकारात्मक है।


बुद्ध द्वारा अलग अलग समयों और स्थानों पर दी गई शिक्षाओं में ऊपरी तौर से दिखाई पड़ने वाले विरोधाभास की ओर ध्यान केन्द्रित करते हुए परम पावन हँस पड़े और कहा कि ऐसा नहीं था कि बुद्ध संभ्रम में थे अथवा दूसरों को भ्रम में डालना चाहते थे। उन्होंने लोगों की अलग अलग मानसिक प्रवृत्ति के कारण अलग प्रकार की शिक्षा दी। बुद्ध ने यह भी सलाह दी कि हम सब अपने ही स्वामी हैं और यद्यपि उन्होंने शिक्षा दी पर अभ्यास हमें करना है।

उन्होंने चार आर्य सत्यों को सामने रखा जो सभी बौद्ध परम्पराओं का आधार है। कोई दुःख नहीं चाहता पर उस पर काबू पाने के लिए मात्र भक्ति और प्रार्थना पर्याप्त नहीं है; हमें दुःख के कारण को दूर करना है, जिसके लिए अज्ञान पर काबू पाना है।

यदि जाँच किया जाए तो शरीर और चित्त के मिले रूप पर हम जो आत्म आरोपित करते हैं वह नहीं मिलता। इसलिए हमें कहना पड़ता है कि आत्म केवल एक विज्ञप्ति है।

प्रातः और दोपहर सत्रों के बीच खाने के दौरान परम पावन 1000 से भी अधिक वियतनामियो से मिले, जिनका अभिनंदन उन्होंने चिर परिचित रूप से कियाः

“मैं अपने यहाँ वियतनामी भाई बहनों से मिलकर बहुत खुश हूँ; आपके अनुभव भी हम तिब्बतियों जैसे ही हैं और आपको अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा है। हाल ही में वियतनामियो का एक दल मेरे प्रवचनों में शामिल होने के लिए धर्मशाला आया था और मैं अन्य दलों से फ्रांस और स्विटज़रलैंड में मिला हूँ, अतः आपकी भाषा के संगीतमय ध्वनि से मैं अब परिचित हूँ। एक शरणार्थी समुदाय के रूप में अपनी भाषा, संस्कृति और परम्परा को बनाए रखना वास्तव में महत्त्वपूर्ण है।”

जैसे ही 3500 से अधिक श्रोता हॉल में लौटे, परम पावन ने अपना प्रवचन फिर से शुरू किया जो उन्होंने प्रातः प्रारंभ किया था, यह कहते हुए कि भव चक्र का मूल व्यक्तियों के आत्म की भ्रांति है, जिसका प्रतिकारक व्यक्तियों का अनात्म है। इसी प्रकार सभी क्लेशों का जड़ अज्ञान है। उन्होंने कहा कि यदि हमें अपने चित्त में परिवर्तन लाना है, तो हमें अपने मानवीय बुद्धि को पूरी तरह काम में लाना होगा। चित्त की स्वाभाविक प्रकृति ही स्पष्टता और जागरूकता है। उस जागरूकता की बाधाओं को प्रज्ञा से दूर करना निर्वाण का आधार है। अन्य सत्त्वों को मुक्त करने के लिए, जो कि अत्यधिक पुण्य का स्रोत है वह प्रज्ञा परम निर्वाण की प्रेरणा से संवर्धित होती है।

रत्न दीपः बोधिचित्त की प्रशंसा पर लौटते हुए वे बोलेः

इस ग्रंथ के मौखिक निर्देश मुझे सीधे इसके रचयिता खुनु रिनपोछे से प्राप्त हुए, पहली शिक्षा जो मुझे उनसे मिली। यह बोधिचित्त से संबंधित है, जो कि सभी सत्त्वों के लिए निर्वाण प्राप्त करने की परोपकारी प्रेरणा है। इसके लिए दो प्रमुख मार्ग हैं;  कारण तथा फल के सप्त अंगीय निर्देश, जिसमें सभी सत्त्वों आपकी माँ रही हैं के रूप में पहचानने का भाव है, और उनकी करुणा को पहचानना और उस ऋण के चुकाने की इच्छा  का पोषण है। दूसरा रूप जो परात्मसमताभाव कहलाया जाने वाला शांतिदेव के बोधिसत्वचर्यावतार में मिलता है।”

परम पावन ने समझाया कि खुनु रिनपोछे का जन्म किन्नौर, उत्तर भारत में हुआ था और वे अध्ययन के लिए तिब्बत गए, पहले केन्द्रीय तिब्बत और बाद में खम प्रांत के दर्गे में। उन्होंने एक गैर साम्प्रदायिक दृष्टिकोण अपनाया, यद्यपि उनका स्थानीय मठ डुगपा काग्यु से जुड़ा था। उन्होंने पूरी निष्ठा तथा निरंतरता से बोधिचित्त जनित किया और वे अपनी विपश्यना ध्यान के दौरान प्रत्येक दिन एक पद रचा करते थे। बाद में किसी को इस के विषय में पता चला और उन्हें इन पदों को एक पुस्तक के रूप में छपवाने के लिए राजी करवा लिया गया।


महान अभ्यासी टेहोर क्योरपोन, जिन्होंने अपनी स्वयं की शिक्षा समाप्त करने के बाद एकांत संन्यासी का मार्ग चुना था, ने यह ग्रंथ देखा और टिप्पणी की, कि इसमें रचयिता ने कई शास्त्रीय ग्रंथों का निचोड़ रखा है। खुनु रिनपोछे ऐसे विद्वान थे जो कि अध्ययन के सभी बड़े, छोटे विषयों से परिचित थे और जिनका काव्य, व्याकरण और लेख पर अधिकार था। जब यह कौशल वे दूसरों को सिखाते थे तो वे ऐसे वाक्यों और पदों की रचना करते थे जिनमें पाँच महान विषयों के भाव प्रतिबिम्बित होते थे। खेनसुर पेमा ज्ञलछेन, जो स्वयं एक सर्वश्रेष्ठ विद्वान थे, ने खुनु रिनपोछे के ज्ञान की गहनता को लेकर आश्चर्य प्रकट किया।

“वे वाराणसी में अपने एक मित्र के आश्रम में एक सन्यासी का जीवन जी रहे थे, जहाँ उनसे शिक्षा लेने के लिए मुझे ले जाया गया।” परम पावन ने याद किया।

यह बताने के बाद कि पहला पद बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति अभिवादन है, उन्होंने इन शब्दों के अर्थ और उनकी शरण में जाने के महत्त्व के विषय में बताया। जैसा कि उन्होंने अन्य जगहों में किया है, परम पावन ने अपने श्रोताओं से 21 शताब्दी का बौद्ध बनने का आग्रह किया और सुझाव दिया कि उनका अभ्यास केवल श्रद्धा पर ही नहीं बल्कि समझ और कारण पर निर्मित हो।
परम पावन अपना प्रवचन कल जारी रखेंगे।

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