परम पावन 14 वें दलाई लामा
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चित्त शोधन के अष्ट पद ३१/अक्तूबर/२०१४

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बोस्टन, एम ए, संयुक्त राज्य अमरीका - ३१ अक्टूबर २०१४ - एक उज्ज्वल, स्पष्ट शरद ऋतु के आलोक में परम पावन दलाई लामा अपने बोस्टन होटल से आज प्रातः मोटर गाड़ी से एक छोटी यात्रा के पश्चात वांग थियेटर पहुँचे, यह थियेटर जिसका अलंकरण पुनर्जागरण शैली में हुआ है और जो सिटि कला प्रदर्शन केन्द्र का भाग है। उन्हें प्रज्ञा उपदेश फाउंडेशन द्वारा आमंत्रित किया गया था, जो कि २००९ में स्थापित वियतनामी बौद्ध धर्म समुदाय है और जो नालंदा परम्परा में रुचि रखते हैं। तीन वियतनामी भिक्षुओं द्वारा परम पावन को मंच पर पारम्परिक रूप से ले जाया गया और ३५०० की संख्या में उपस्थित श्रोता, जिनमें भिक्षु शामिल थे और कई वियतनामी और तिब्बतियों ने उनका स्वागत किया। सत्र का प्रारंभ हृदय सूत्र के वियतनामी, संस्कृत और अंग्रेजी में पाठ से हुआ।


"आध्यात्मिक भाइयों और बहनों," परम पावन ने मुस्कुराते हुए प्रारंभ किया, "अपने आप को आप लोगों के बीच पाकर मैं अत्यंत सम्मानित अनुभव कर रहा हूँ और मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मुझे आमंत्रित किया।"
कई देशों में वियतनामी समुदाय हैं, जो हमारी तरह शरणार्थी हैं। और हमारी ही तरह आपने भी अपनी संस्कृति और धार्मिक परंपराओं को जीवंत रखने के प्रयास किए हैं। बौद्ध परंपरा का संरक्षण मात्र मंदिरों या मूर्तियों के निर्माण से संबद्धित नहीं है, यह हृदय के अंदर होता है। मूलतः इसमें अनंत प्रेम शामिल है, परोपकार जो हमारी अद्भुत मानव बुद्धि के साथ संयुक्त है। उचित दृष्टिकोण अध्ययन और विश्लेषण के द्वारा है। विशेष रूप से २१वीं शताब्दी में हमें बुद्ध की सलाह पर ध्यान देना चाहिए कि हम उनके शब्दंों को जस का तस न लें अपितु उसकी जाँच तथा परीक्षण करें, उन्होंने जो कहा उसके साथ प्रयोग करें।"

परम पावन ने कहा कि वे वह 'चित्त शोधन के अष्ट पद' की व्याख्या करने वाले हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि निर्वाण हेतु बौद्ध मार्ग का आधार सूत्र, चार आर्य सत्यों में प्रस्तुत िकया गया है। दुख और उसके उद्गम, निरोध और उसके मार्ग की व्याख्या हेतु और फल के दो समूह हैं। हेतुओं तथा परिस्थितियों के कारण दुख उत्पन्न होता है। निरोध का संबंध साधारण आनंद से नहीं अपितु स्थायी सुख से है, वह भी कारणों और परिस्थितियों से आता है। चार आर्य सत्य में निहित निर्देश बौद्ध धर्म की सभी परम्पराओं में समान हैं। उनकी देशना प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन के समय दी गई थी जबकि द्वितीय प्रवर्तन का संबंध प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाओं से था तथा तृतीय का उदाहरण संधिनिर्मोचन सूत्र है।

हृदय सूत्र प्रज्ञा पारमिता सूत्रों के अंतर्गत आता है और इसमें यह शिक्षा दी गई है कि वास्तविकता को किस प्रकार समझा जाए। परम पावन ने टिप्पणी की कि जहाँ हम वस्तुओं को आत्म-परिभाषित इकाइयों के रूप में सोचने लगते हैं जो बाहर हैं, शून्यता की समझ इस भ्रांति को ढीला करती है। शून्यता की समझ उस अज्ञान का प्रतिरोध करती है जो कि दुख का स्रोत है। 'नैरात्म्य' की व्याख्या बौद्ध धर्म के लिए अनूठी है।

"जब हृदय सूत्र कहता है कि, 'रूप शून्यता है, शून्यता रूप है' क्या इसका अर्थ यह है कि रूप या वस्तु का अस्तित्व नहीं है?" परम पावन ने पूछा। "नहीं, रूप कुछ ऐसा है जिसका हम अनुभव करते हैं, इसका अस्तित्व प्रतीत्य समुत्पाद के रूप में है, जब हम रूप की जाँच करते हैं तो वह हमें नहीं िमलता, क्योंकि जिस प्रकार वह जब प्रतीत होता है, उस रूप में उसका अस्तित्व नहीं है, वह स्वभाव सत्ता से रहित है। यह केवल प्रतीत्य समुत्पाद के माध्यम से अस्तित्व में है। चूँकि पदार्थ प्रतीत्य समुत्पाद के कारण अस्तित्व में है, इसलिए रूप शून्यता है।"

परम पावन ने सुझाया कि एक अधिक प्रभावी समझ पाई जा सकती है यदि पदार्थ के स्थान पर स्वयं को प्रतिस्थापन किया जाए, यह सोचते हुए 'मैं शून्यता हूँ, शून्यता मैं है'। उन्होंने कहा कि शून्यता और पदार्थ अलग अलग नहीं हैं, वे एक ही वास्तविकता के पहलू हैं। इसमे क्वांटम भौतिकी को समझने की एक समानता है। उन्होंने कहा कि हमारी प्रबल नकारात्मक भावनाएँ जैसे कि राग और क्रोध, वस्तुओं की स्वभाव सत्ता की प्रबल भावना के परिणाम स्वरूप हैं। उन्होंने कुछ दिन पहले अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक से भेंट करने और उनकी अंतर्दृष्टि पर चर्चा, कि हमारे आकर्षण या नकारात्मक गुणों की भावना, जब हम राग युक्त अथवा क्रोधित होते हैं, का ९०% मात्र मानसिक प्रक्षेपण है, का उल्लेख किया।

इस प्रकार का भ्रांतिपूर्ण प्रक्षेपण, शून्यता का यह अज्ञान ही सत्वों को भव के चक्र में बाँधे रखता है। परम पावन ने ज़ोर दिया कि इस प्रकार की व्याख्याओं को सुनना पर्याप्त नहीं है, हमें नियमित रूप से और गहन रूप से उन पर चिंतन करना है, जब तक कि हम उन्हें समझ न लें। ऐसा करने के बाद हमें उस समझ को अपने अनुभव में व्यवहारित करना है।

मध्याह्न के भोजन में अानन्ददायी विविध वियतनामी व्यंजन खाने के बाद,परम पावन को पुनः भिक्षुओं द्वारा सम्मान सहित वापस मंच पर ले जाया गया । उन्होंने श्रोताओं को बताया कि वह उनके साथ कुछ साझा करना चाहते थे ।

"मनुष्य के रूप में हमारा विनाशकारी और रचनात्मक भावनाओं का समान अनुभव है। हमारे पास एक प्रज्ञा का विकास करने वाला मानव चित्त भी है। हम सब में एक ही बुद्ध प्रकृति है। धर्मकीर्ति, एक बात के संबंध में विभिन्न पहलुओं की बात करते हैं। उदाहरण के लिए, मैं आप सभी की तरह एक मानव हूँ, पर मैं एक धार्मिक व्यक्ति भी हूँ, एक बौद्ध हूँ। उस संदर्भ में मैं अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने का प्रयास करता हूँ। हमारी विभिन्न प्रवृत्तियों के कारण ही बुद्ध ने कभी कभी अलग अलग शिक्षाएँ दी। इसका कारण यह नहीं था कि वे उलझन में थे या स्पष्ट नहीं थे और न ही वह अपने अनुयायियों को भ्रमित करने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने अपने शिष्यों की आवश्यकता और क्षमता के अनुसार शिक्षा दी।"

परम पावन ने दोहराया कि चार आर्य सत्य जो प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन में समझाए गए हैं वे बौद्ध धर्म की सभी परम्पराओं में समान हैं। द्वितीय प्रवर्तन के प्रज्ञा पारमिता शिक्षाओं में छह पारमिताएँ आती हैं, जिनमें वास्तविकता का उचित दृष्टिकोण शामिल है। यद्यपि महायान के अंदर, उचित दृष्टि को चित्त मात्र और माध्यमक परम्पराओं के अनुसार समझाया जा सकता है।


परम पावन ने बौद्ध धर्म के तिब्बत आने के संदर्भ में ७वीं शताब्दी में बुद्ध की प्रथम प्रतिमाओं के आने का स्मरण िकया। बौद्ध धर्म की गंभीर रूप से स्थापना अगली शताब्दी में हुई जब तिब्बती सम्राट ने नालंदा के अग्रणी विद्वान शांतरक्षित को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित किया। वे एक भिक्षु, दार्शनिक तथा तर्क शास्त्री थे, जिनकी रचनाएँ उनके सधे मस्तिष्क तथा कुशाग्र चित्त को प्रकट करती हैं। उन्होंने तिब्बतियों को बौद्ध संस्कृत साहित्य को अपनी भाषा तिब्बती में अनुवाद करने के लिए प्रोत्साहित किया, प्रव्रज्या दी तथा दर्शन व तर्क शास्त्र की शिक्षा दी। इस तरह प्रमुख बौद्ध शास्त्रीय ग्रंथों का तिब्बती में अनुवाद हुआ, यह सुनिश्चित करते हुए कि तिब्बती बौद्ध धर्म सबसे विस्तृत बौद्ध परंपरा बन गई, जिसमें पालि और संस्कृत परंपराएँ और वज्रयान का भी समावेश था।

जहाँ शंातरक्षित और पद्मसंभव के अधीन जिस बौद्ध धर्म का संचरण हुआ वह ञिङमा या प्राचीन परंपरा के नाम से जानी जाती है, पर जो अनुवादक रिनछेन ज़ंगपो के समय प्रारंभ हुआ, वह नए संचरण के रूप में जाना जाता है, जिसमें कर्ग्यू और सक्या परंपराएँ शामिल हैं। 'अष्ट पद' कदमपा परम्परा के हैं, जिसके आधार अतीश और डोमतोनपा हैं। पाठ गेशे लंगरी थंगपा द्वारा लिखा गया है, जो गेशे पोतोवा के शिष्य थे और जिसका सम्बध सांवृतिक तथा परमार्थिक बोधिचित्त से है। परम पावन ने कहा कि यह उन्होंने अपने दोनों अध्यापकों लिंग रिनपोछे और ठिजंग रिनपोछे से सुना था।

प्रथम पद बताता है कि बोधिचित्त का िकस प्रकार विकास किया जाए। दो प्रमुख उपाय हैं, सप्त हेतु फल उपदेश तथा परात्मसमता और परात्म परिवर्तन। नागार्जुन और शांतिदेव दोनों ने दूसरी विधि को प्राथमिकता दी। यद्यपि 'अष्ट पद' एक गहन ग्रंथ है, पर परम पावन ने कहा कि उसे पूर्ण रूप से समझने के लिए सहायक ग्रंथों के एक समूह की आवश्यकता है। यह प्राथमिक रूप से महाकरुणा से संबंधित है, यह भावना कि न केवल दूसरों के दुख अापके लिए असहनीय हैं, पर आप उनके लिए कुछ करने हेतु प्रेरित होते हैं। परम पावन ने कहाः

"यद्यपि मैं इस प्रकार का कोई दावा नहीं करता कि मैंने बोधिचित्त का अनुभव कर लिया है, पर मेरे मन में कुछ विचार है कि उसकी अनुभूति कैसी होगी। विशुद्ध बोधिचित्त एक उन्मुक्तता की भावना लाता है, शिथलीकरण की एक गहन भावना जो कि चित्त को आकार देने का प्रारंभ है।"

दूसरा पद दूसरों को अपने से उच्च मानने की सलाह देता है। तीसरा क्लेशों के प्रति जागरूक रहने का परामर्श देता है, जबकि चौथा दुष्ट प्रवृत्ति वालों को प्रिय मानने के मूल्य की बात करता है। पाँचवाँ पद दूसरों को विजय सौंपने की सलाह देता है और छठवाँ वैरियों को आध्यात्मिक मित्र के रूप में देखने की सलाह देता है। सातवाँ पद स्पष्ट रूप से देने और लेने की व्याख्या करता है, जिसमें दूसरों के दुखों को लेने की कल्पना महाकरुणा से मेल खाती है, जबकि दूसरों को सुख देना प्रेम पूर्ण दयासे सहमति रखती है।


अंत में, आठवें पद की पहली दो पंक्तियाँ प्रशंसा तथा दोष इत्यादि अष्ट सांसारिक क्लेशों से बचकर रहने की चेतावनी देती हैं। अंतिम दो पंक्तियाँ सभी वस्तुओं को माया की भाँति देखने के लिए कहती हैं।

ग्रंथ के पाठ के समापन के पश्चात, परम पावन ने श्रोताओं के लिए बोधिचित्तोत्पाद समारोह का नेतृत्व किया। जब उन्होंने इसे आगामी सप्ताह, महीनों, वर्षों, दशकों और कल्पों, कई जन्मों तक के दैनिक जीवन में अभ्यास में लाने के महत्व पर बल दिया, तो थियेटर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

बाहर मार्ग में, तिब्बतियों के उल्लसित जनसमुदाय ने परम पावन की उपस्थिति का अानंद व्यक्त किया और उनके दीर्घायु की प्रार्थना की।
 

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