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जापानी बौद्ध धर्म की शिनगोन परंपरा के मुख्यालय कोयासन की तीर्थयात्रा १३/अप्रैल/२०१४

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कोयासन, जापान - १३ अप्रैल २०१४ - आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा कोयासन जाने हेतु क्योतो से रवाना हुए तो नभ मटमैला था और हवा में ठंड थी। ओसाका के दक्षिण में कोयासन पर्वत, जापानी बौद्ध धर्म की शिनगोन परंपरा, जिसे कभी कभी गुह्य बौद्ध धर्म और गुह्य मंत्र मार्ग की संज्ञा से भी संदर्भित किया जाता है, के मुख्यालय हैं। इसी को कोबो दाइशि शिनगोन परंपरा के संस्थापक ने सीखा और नौवीं शताब्दी ईस्वी में चीन की यात्रा के बाद वापस जापान लेकर आए। उनकी यात्रा का एक उद्देश्य बौद्ध धर्म ग्रंथों को और अच्छी तरह समझने के लिए संस्कृत सीखना था और ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी प्रारंभिक शिक्षकों में से एक भारतीय पंडित थे जिनका नाम प्रज्ञा था और जिन्होंने नालंदा में अध्ययन किया था। कोबो दाइशि ने ८१६ में कोयासन में कोंगुबुजी मंदिर की स्थापना की और ८३५ में ६२ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। परम पावन को प्रवचन देने तथा महाकरुणागर्भोद्भाव मंडल दीक्षा के लिए आमंत्रित किया गया है।


आगमन पर, परम पावन का भव्य मुख्य द्वार पर स्वागत किया गया और उन्हें लकड़ी के गलियारों, कमरों से जो रंगी लकड़ी और कागज़ के स्क्रीन से विभाजित है, इमारतों के परिसर से होते हुए जिससे कोंगुबुजी बना है, उनके आवास ले जाया गया। एक परंपरागत जापानी भोज के बाद उन्हें कम दूरी पर स्थित कोयासन विश्वविद्यालय सभागार को गाड़ी में ले जाया गया जहाँ जापान के कई हिस्सों के लोग और विदेशी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
"कोयासन के विहाराध्यक्ष, धर्म के भाइयों और बहनों जिनमें चीन से कुछ शामिल हैं, मुझे यहाँ आकर और आप से बात करने का अवसर प्राप्त बहुत प्रसन्नता है," परम पावन के प्रारंभिक शब्द थे। "मैं यहाँ दो बार पहले आ चुका हूँ और मैंने पहले भी वैरोचन की दीक्षा दी है। इस बार अंतर यह है कि इस बार बहुत ठंड है। जो भिक्षु मुझ से पहले आए थे, उन्होंने बताया कि यहाँ बर्फबारी हुई थी और पिछले सप्ताह बहुत ठंड थी और यहाँ आते हुए रास्ते में मैंने पिघले बर्फ के कुछ शेष ढेले देखे। संभवतः हम तिब्बतियों को घर जैसा अनुभव करने के लिए बर्फ थी।"

अपने बौद्ध व्याख्यान को संदर्भ में रखने के लिए, उन्होंने विश्व में धार्मिक अभ्यास की पृष्ठभूमि समझाते हुए प्रारंभ किया और सुझाया कि धर्म की शरुआत ३ - ४००० साल पहले हुई। २६०० वर्ष पूर्व भारत में जैन धर्म की प्रतिस्थापना हुई जिसके कुछ समय बाद बौद्ध धर्म स्थापित हुआ। यहूदी, ईसाई और इस्लाम, मध्य पूर्व से उभरा, जबकि प्राचीनतम धार्मिक परंपराओं में से एक, पारसी धर्म ने फारस में जन्म लिया। ये परंपराएँ प्रेम और करुणा को बढ़ावा देती है, यद्यपि इतिहास से पता चलता है कि धर्म के नाम पर बार बार संघर्ष हुए। पर अफसोस कि जब ऐसा होता है तो यह औषधि का विष में परिवर्तित होने के समान है। यद्यपि परम पावन कहते हैं कि आवश्यक नहीं कि ऐसा हो, क्योंकि सभी प्रमुख वैश्विक धर्म भारत में सौहार्दपूर्ण ढंग से अस्तित्व में हैं, जहाँ वे साथ साथ शांति और सद्भाव से रहते हैं और शताब्दियों से रह रहे हैं। यदि भारत में अंतर्धार्मिक सद्भाव प्राप्त किया जा सकता है तो उन्होंने कहा, कि यह अन्य स्थानों पर भी हो सकता है।


उन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म का आधार चार आर्य सत्य है जिसकी शिक्षा बुद्ध ने दी क्योंकि हम दुख नहीं चाहते। दुख का कारण अज्ञान है, परन्तु अज्ञान को ज्ञान से मिटाया जा सकता है। प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन में चार आर्य सत्य, विनय, भिक्षु शील और समाधि की शिक्षा है और इसकी शिक्षा सार्वजनिक रूप से दी गई। दूसरे धर्म चक्र प्रवर्तन का संबंध प्रज्ञा पारमिता सूत्रों से है, जिसका संक्षिप्त उदाहरण हृदय सूत्र है। इसमें शिष्य शारिपुत्र और बोधिसत्व अवलोकितेश्वर के बीच संवाद है। इसमें एक अधिक चुने लोगों ने भाग लिया जो अपने पुण्य के कारण अवलोकितेश्वर को देख और सुन सकते थे। तीसरे धर्म चक्र प्रवर्तन ने तथागत गर्भ और चित्त के प्रभास्वरता की शिक्षा दी।

अपनी आँखें घड़ी पर गड़ाए परम पावन ने कहा यदि वह घोषित समय से आधा घंटा और प्रवचन दे पाएँ तो वह उस पाठ को समाप्त कर सकते हैं। उनके प्रश्न का उत्तर तालियों की गड़गड़ाहट थी। उन्होंने अमदो के एक वयोवृद्ध लामा की एक कहानी सुनाई जिन्हें पड़ोस के विहार में प्रवचन के िलए आमंत्रित किया गया था, पर उन्होंने कहा कि वे यात्रा करने के लिए बहुत वृद्ध हो चुके थे। उनके मेजबान ने अपने अनुरोध को स्पष्ट किया और कहा कि उन्हें प्रवचन देने की आवश्यकता नहीं, वहाँ आकर आशीर्वाद देना पर्याप्त होगा। वे गए और वहाँ एक लम्बा, पूरी तरह से गहन प्रवचन दिया और चेतावनी के साथ समाप्त किया कि वे एक ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो केवल लोगों पर हाथ रखने के िलए यहाँ वहाँ जाएँ, "मैं शिक्षा देता हूँ  , " उन्होंने कहा ।


"७वीं शताब्दी तिब्बत में, तंग सम्राट की बेटी का विवाह तिब्बती सम्राट सोंगचेन गमपो से हुआ, जिन्होंने एक नेपाली राजकुमारी से भी विवाह किया था। दोनों पत्नियाँ अपने साथ बौद्ध प्रतिमाएँ लेकर आई थी जिसने तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रति रुचि को अधिक किया। नालंदा विश्वविद्यालय के प्रमुख विद्वानों में से एक शांतरक्षित को तिब्बत में आमंत्रित किया गया। वह एक महान दार्शनिक और तर्कशास्त्री थे जो तंत्र का भी अभ्यास किया करते थे और इन गुणों ने तिब्बत में बौद्ध धर्म के विकास के लिए एक वातावरण खड़ा कर दिया। गुरु पद्मसंभव, जो भिक्षु नहीं थे, ने तिब्बत में धर्म की बाधाओं पर नियंत्रण कर लिया। उपाध्याय, आचार्य और धर्मराज के इस त्रय ने विनय के बाहरी अभ्यास, बोधिसत्व के आंतरिक अभ्यास और तंत्र के गुह्य अभ्यास को प्रतिस्थापित किया।"

"बाद में ९वीं शताब्दी में तिब्बत के खंडित होने के बाद, धर्म के दूसरे प्रसार ने सक्या, काग्यू और गेलुग परम्पराओं को जन्म दिया जिसका इतिहास नालंदा तक जाता है। नालंदा परम्परा का स्रोत नागार्जुन जैसे भारतीय आचार्यों के कार्य और लेखन हैं, जिनके ग्रंथ आज भी हम शब्दशः कंठस्थ करते हैं। फिर हम उनका अच्छी तरह से अध्ययन कर परीक्षण करते हैं और अंततः शास्त्रार्थ द्वारा अपनी समझ के लिए प्रयास करते हैं।"

परम पावन ने वहाँ उपस्थित लोगों को स्मरण कराया कि जब धर्म का प्रश्न आता है तो यह महत्त्वपूर्ण है कि शिक्षक और शिष्य एक अच्छी प्रेरणा रखें। उन्होंने कहा कि एक बौद्धाभ्यासी होने के िलए जो इस से जुड़े हैं उन्हें बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेना चाहिए। महायान से जुड़ने के लिए उन्हें बोधिचित्तोत्पाद करना चाहिए। हृदय सूत्र का जापानी में सस्वर पाठ के बाद, परम पावन ने शरणगमन और बोधिचित्तोत्पाद के प्रचलित पद के पाठ का नेतृत्व किया। फिर उन्होंने चोंखापा के बोधिपथक्रम संक्षिप्त का शीघ्रता से पाठ किया और कई बार रुक रुक कर बिन्दुओं को समझाया। अंत में वे हँसे और अपने श्रोताओं से कहा कि वे और चोंखापा तिब्बत के एक ही भाग कुबुम से आए थे जो तकछेर से केवल एक दिन की घुड़सवारी की दूरी थी।

कल परम पावन अपना प्रवचन पूरा करेंगे और महाकरुणागर्भोद्भाव मंडल दीक्षा प्रदान करेंगे। 

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