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जीवन जीना, प्रेम करना ,हँसना और मरना : बौद्ध मार्ग के अनुसार - मुम्बई - चौथा दिन ३/जून/२०१४

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मुंबई, महाराष्ट्र, भारत - ३ जून, २०१४ - परम पावन दलाई लामा ने अपने मुंबई आवास के अंतिम दिन का प्रारंभ सोमैया इंस्टिट्यूट ऑफ बुद्धिस्ट स्टड़ीज़ के लिए नींव के पत्थर का अनावरण करते हुए किया, जिसके पश्चात उन्होंने एक संक्षिप्त व्याख्यान दिया और सोमैया स्कूल के सभागार में प्रश्नों के उत्तर दिए।


एक अच्छा जीवन जीने के लिए उनकी सलाह माँगे जाने पर उन्होंने बताया कि, इसके प्रति जागरूक होने का अवसर आ गया है कि आज जिस प्रकार भौतिकता में उलझी वर्तमान शिक्षा प्रणाली है, वह पर्याप्त नहीं है। उन्होंने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में आंतरिक मूल्यों को लाने के िलए, सभी मनुष्यों के प्रति सौहार्दता लाने के लिए एक व्यवस्थित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। वह दृष्टिकोण ऐसा हो, जिसका सार्वभौमिक आकर्षण हो, जो इससे अथवा उससे सीमित न हो, एक दृष्टिकोण जो भारत की धर्मनिरपेक्ष समझ से प्रेरित हो, जिसमें सब शामिल होते हों। उन्होंने कहा कि इस परियोजना पर धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को लेकर कार्य प्रारंभ हो चुका है पर और अधिक शोध किए जाने की जरूरत है।

उन्होंने सोमैया कॉलेज के इंजीनियरिंग कॉलेज के सभागार में छात्रों के साथ एक वार्ता में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के विषय पर विस्तार जारी रखा।

"युवा भाइयों और बहनों, आप सभी २१वीं सदी की पीढ़ी का अंग हैं, जबकि मेरी पीढ़ी २०वीं सदी के अंतर्गत आती है। हमने सभी प्रकार की समस्याएँ निर्मित की, जिनको हल करने और साफ सुथरा करने का उत्तरदायित्व आपका है। चूँकि कई समस्याएँ जिनका सामना हम कर रहे हैं, वह मानव निर्मित हैं, हम उनका समाधान प्रार्थनाओं से नहीं अपितु कार्यों से करेंगे। स्वतंत्रता के बाद से भारत ने बहुत विकास किया है, अर्थव्यवस्था में वृद्धि हुई है पर फिर भी बहुतों को भोजन की आवश्यकता है। हमें भौतिक विकास की आवश्यकता है, पर हमें इसके विषय में पुनर्विचार करना होगा कि इसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं।"

उन्होंने उल्लेख किया कि किस तरह सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप की केंद्रीकृत अर्थव्यवस्थाएँ ठहराव के कारण ढह गई थी और बाजार द्वारा संचालित अर्थव्यवस्थाओं के गतिशील बल को स्वीकार किया। परन्तु उन्होंने कहा कि पूंजीवादी व्यवस्था धनाढ्यों व निर्धनों के बीच की विशाल खाई की उपेक्षा करती जान पड़ती है, उन्होंने कहा कि यह सब यह संकेत करता है कि एक नई सोच की आवश्यकता है।


परम पावन ने पोप फ्रांसिस द्वारा एक जर्मन बिशप को, उनकी भव्य जीवन शैली के लिए आड़े हाथों लेने के प्रति अपनी प्रशंसा व्यक्त की। उन्होंने कहा कि जब उनमें लोग अब ईमानदार नहीं रह गए, पर केवल गति में चलते चले जाते हैं, तो धार्मिक संस्थाएँ भी भ्रष्ट हो सकती हैं। पर जब कुछ लोग धर्म को एक नशे का संदर्भ देते हैं, कोई भी इस तरह प्रेम और करुणा का संदर्भ नहीं देता, जो कि धार्मिक संदेश का सार है। उन्होंने स्मरण किया कि, माओ चे तुंग ने उनसे ऐसी एक टिप्पणी की थी, और कहा था कि जिस प्रकार की रुचि आज वैज्ञानिक, चित्त तथा भावनाओं को लेकर दिखा रहे हैं, उसे देखकर चीनी नेता संभवतः आश्चर्य में पड़ जाते।

परम पावन ने कहा "कि जिस कारण से मैं धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के लिए हमारी आवश्यकता पर बल दे रहा हूँ, क्योंकि कई लोग उपेक्षा प्रेम, करुणा, सहिष्णुता और संतोष की उपेक्षा करते हैं, क्योंकि वे उन्हें धार्मिक गुणों के रूप में देखते हैं। पर जब तक हम मनुष्य हैं, सामाजिक प्राणी हैं, हमें साथ रहने में सक्षम होने के लिए इस तरह के मूल्यों की आवश्यकता होती है। और तो और वैज्ञानिकों बता रहे हैं कि विनाशकारी भावनाओं का शिकार होना हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।"

जब एक छात्र ने सृजनकर्ता के अस्तित्व के विषय में पूछे गए प्रश्न पर बुद्ध के मौन पर टिप्पणी करने के लिए बल दिया, तो उन्होंने कहा कि एक बौद्ध परिप्रेक्ष्य से, चार आर्य सत्यों की व्याख्या में एक अंतर्निहित अस्वीकृति है। यह कहता है कि सत्व तथा उनके अनुभव उनके कार्यों और भ्रांति के फलस्वरूप आते हैं। पर साथ ही बुद्ध ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने जो भी कहा उसे, उनके अनुयायियों को केवल उनके प्रति श्रद्धा अथवा सम्मान के कारण स्वीकार नहीं करना चाहिए, अपितु स्वयं उसकी परख और जाँच के आधार पर स्वीकार करना चाहिए।


स्त्रियों के विषय में एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि जब नेतृत्व के लिए मानव की आवश्यकता पहली बार उभरी तो कसौटी शारीरिक शक्ति थी। आज जब शिक्षा ने पुरुषों और स्त्रियों को समान रूप से सक्षम कर दिया है तो स्त्रियों को भी नेतृत्व में और अधिक सक्रिय होना चाहिए। जब यह पूछा गया कि क्या बौद्ध धर्म सबसे अच्छा है, तो उन्होंने कहा कि वे भिक्षु संवर के विनय में कहे अनुसार कभी भी बौद्ध धर्म का प्रचार नहीं करते और आमंत्रित किए जाने पर ही शिक्षा देते हैं। उन्होंने अपनी हमेशा की सलाह दोहराई कि आम तौर पर आपका जन्म जिस धर्म में हुआ है, उसी में बने रहना अधिक सुरक्षित है।

क्षमा के संबंध में उन्होंने कहा कि कर्ता और उसके या कार्य के बीच अंतर करना महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि जब आवश्यक हो तो दूसरों के गलत कार्यों का मुकाबला करने के लिए कदम उठाना उचित है, उनके प्रति क्रोध से अपने आप को भर लेना उचित नहीं है। उन्होंने कहा कि तिब्बती ऐसा ही कर रहे हैं, जब वे चीनी अधिकारियों के कट्टरपंथियों का खुले रूप में विरोध और उनके कार्यों का विरोध करते हैं, परन्तु उनके साथ क्रोधित होने पर रेखा खींचते हैं।

मध्याह्न में, नालंदा शिक्षा द्वारा अनुरोध की गई शिक्षाओं के अंतिम सत्र में उन्होंने शांतिदेव के,'बोधिसत्वचर्यावतार' के अध्याय ८ का सार समझाया और अपनी व्याख्या के दौरान विशिष्ट श्लोकों की ओर ध्यान आकर्षित किया। अध्याय ८ का विषय ध्यान है और परम पावन ने एकाग्रता और विश्लेषणात्मक ध्यान के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए प्रारंभ किया। सामान्य निर्देश की चर्चा के दौरान उन्होंने उन वस्तुओं की चर्चा की जो ध्यान के केंद्र की वस्तुएँ हो सकती हैं, और कहा कि चित्त को ही ध्यान की वस्तु बना लेना विशेष रूप से प्रभावी हो सकता है। परन्तु चित्त की पहचान करना महत्त्वपूर्ण ही नहीं, कठिन भी है। उन्होंने उस चित्त की पहचान करने का प्रयास जो क्षण प्रतिक्षण परिवर्तित होता है और उस चित्त के वर्तमान क्षण को पकड़ पाने की तुलना की। हम अतीत और भविष्य के बारे में स्पष्ट अनुभव कर सकते हैं, पर वर्तमान को पकड़ पाना कठिन है।


क्योंकि सबसे पहले तो मन उत्तेजित होने लगता है, परम पावन ने नौ आवर्तन ध्यान को करने के ढंग को प्रदर्शित किया जिसमें शारीरिक और मानसिक अनुशासन शामिल है। यह चित्त की चंचलता को दूर करने में सहायक हो सकता है और उसके बाद २०, ५० अथवा १०० की गिनती कर श्वासों की गिनती के प्रति जागरूक होना। बाद में इस अध्याय में बोधिचित्तोत्पाद की बात कही गई है। ग्रंथ में आया है, "चित्त को शांत करने के बाद, बोधिचित्तोत्पाद उत्पन्न करो।" उन्होंने कार्य कारण सप्त बिंदु और परात्मसमभाव और परात्मसमपिरवर्तन के अंग के रूप में सभी सत्वों के प्रति समभाव उत्पन्न करने की रूप-रेखा देते हुए शांतिदेव को उद्धृत करते हुए कहा ः

"जब दूसरों को और मुझे सुख समान रूप से प्रिय है, तो मुझ में ऐसा क्या विशेष है कि मैं मात्र स्वयं के लिए सुख की कामना करूँ? इस जगत में जो दुखी हैं, वे केवल अपने सुख की कामना करने के कारण अत्यंत दुखी हैं। इस जगत में जो सुखी हैं वे दूसरों के सुख की कामना करने के कारण आनन्दमय हैं।"

निष्कर्ष में परम पावन ने अपने श्रोताओं से कहा कि उनके पास शांतिदेव के पाठ की प्रतियाँ थी और उन्होंने आग्रह किया कि जब भी संभव हो, वे उसे पढ़ें।

उन्होंने कहा कि "यह एक शिक्षा है जो बताती है कि किस प्रकार एक सार्थक जीवन जिया जाए।" मूल रूप से, यथासंभव जब भी, जहाँ भी हो, दूसरों की सहायता करो और यदि ऐसा नहीं भी कर सकते, तो कम से कम उनका अहित करने से स्वयं को नियंत्रित कर लो।"

समीर सोमैया ने आगे आकर परम पावन से वहाँ आने और प्रवचन देने के लिए कृतज्ञता व्यक्त की और प्रत्येक का आभार व्यक्त किया जिन्होंने वहाँ आकर उनकी यात्रा को सफल बनाने में योगदान दिया था। नालंदा शिक्षा की ओर से अनीता दुधाने ने कृतज्ञता व्यक्त की और परम पावन के सबसे प्रिय श्लोक का संस्कृत में पाठ किया ः
 
"जब तक आकाश की स्थिति है, जब तक जगत की स्थिति है,
तब तक मैं भी बना रहूँ लोगों के कष्ट दूर करने के लिए।"

कल अत्यंत तड़के परम पावन दिल्ली होते हुए धर्मशाला के लिए उड़ान भरेंगे।

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