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टोक्यो में संपूर्ण दिन का प्रवचन १७/अप्रैल/२०१४

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टोक्यो, जापान - १७ अप्रैल २०१४  -  परम पावन दलाई लामा को सुनने के लिए टोक्यो में आज जो १२०० लोग एकत्रित हुए थे उनमें से अधिकांश जापानी थे, पर उनमें कोरियाई, मंगोलियाइ और चीनी, कुछ ताइवान से और कुछ चीन से शामिल थे। शुरू करने से पूर्व परम पावन ने समझाया कि प्रारंभ में किस का पाठ किया जाएगा, पालि का एक पद, जापानी में हृदय सूत्र, नागार्जुन की 'मूलमध्यमककारिका' के वन्दना छन्द और मैत्रेय का 'अभिसमयालंकार'।


परम पावन ने कहा "हम यहाँ जापान में हैं, जहाँ बौद्ध धर्म सदियों से फला फूला है, जहाँ प्रज्ञापारमिता की शिक्षाएँ लोकप्रिय हैं और हृदय सूत्र का सस्वर पाठ व्यापक है। शिक्षा देने के विभिन्न रूप हैं" शिक्षक व्याख्या के साथ अथवा बिना व्याख्या के अधिगम किया जा सकता है। एक ऐसा भी उपाय है जिसके द्वारा, प्रतिदिन व्याख्या दी जाती है और छात्र उसका पुनः पठन करते हैं और जो सुना है उस पर चिंतन करते हैं, और एक ऐसी परंपरा भी है जिसमें विद्यार्थी ने जो कुछ भी सुना उस पर उस समय तक समीक्षा करता है जब तक वह उसे समझ नहीं लेता और उसके पश्चात आगे और व्याख्या खोजता है। इस अवसर पर मैं एक अधिगम दूँगा, कुछ व्याख्याओं के साथ हृदय सूत्र का पठन, उसके बाद कुछ स्पष्टीकरण के साथ नागार्जुन का 'धर्मधातुस्तव' तथा थोगमे संगपो का "बोधिसत्व के ३७ अभ्यास।"

सर्वप्रथम, उन्होंने विश्व के धर्मों के संदर्भ में बौद्ध धर्म के स्थान की समीक्षा की। उन्होंने दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ और उसके बिना, और जो एक सृजनकर्ता को मानते हैं और जो नहीं मानते, को लेकर धर्म की बात की। जो एक सृजनकर्ता को नहीं मानते उनमें जैन धर्म २६०० वर्ष पूर्व भारत में उभरा है और बौद्ध धर्म ३०-४० वर्ष बाद दिखाई दिया। जहाँ जैन और नास्तिक सांख्य मनोवैज्ञानिक शारीरिक स्कंधों के अतिरिक्त आत्मनिर्भर, स्वायत्त आत्मा के अस्तित्व पर बल देते हैं, बौद्ध ऐसा नहीं करते। बौद्धों का विश्वास है कि पीड़ा और आनंद के अनुभव अकारण नहीं हैं, पर उसमें निहित कारण और स्थितियाँ हमारी निर्मित हैं। जो व्यक्ति पीड़ा तथा आनंद का अनुभव करता है, वह मात्र स्कंधों के आधार पर ज्ञापित है।

नैरात्म्य के संदर्भ में, निम्न बौद्ध परम्पराएँ, वैभाषिक और सौत्रांतिक मात्र पुद्गल नैरात्म्य की बात करते हैं जबकि चित्तमात्र और माध्यमक धर्म नैरात्म्य पर भी ज़ोर देते हैं। परम पावन ने अमृतसर, भारत में एक अंतर्धार्मिक बैठक में भाग लेने का स्मरण किया जिसमें एक सूफी शिक्षक ने कहा कि सभी धर्म तीन प्रश्नों से जूझते हैं ः आत्मा क्या है? क्या इसका कोई प्रारंभ है अथवा क्या इसका कोई अंत होता है? बौद्ध धर्म बल देता है कि ५ विज्ञान - शारीरिक स्कंधों के आधार पर आत्मा को ज्ञापित या नामित किया जाता है। जो एक सृजनकर्ता में विश्वास करते हैं, उनके लिए आत्मा का प्रारंभ तब होता है जब वह नूतन सृजन करता है। बौद्धों के लिए पाँच स्कंधों का प्रमुख विज्ञान है, और आत्मा विज्ञान के आधार पर ज्ञापित की जाती है।



वस्तुएँ जो आती और जाती हैं वे, परिवर्तन के आधीन हैं। विज्ञान का मूल कारण एक पूर्व विज्ञान है, अतः विज्ञान का न कोई प्रारंभ है न ही इसका कोई अंत होता है। इस तरह इस पर आधारित जो आत्मा ज्ञापित की जाती है, उसका न कोई प्रारंभ है, न अंत।

परम पावन ने धर्म और साईंस के बीच अंतर पर बात करने के लिए विषयांतर किया। अभी हाल तक पारंपरिक साईंस विज्ञान को मात्र मस्तिष्क के एक प्रकार्य के रूप में देखता था। जहाँ धर्म का चित्त के साथ कोई संबंध था पर साईंस का अधिकांश रूप से संबंध भौतिक वस्तुएँ, जो मापी जा सकती हैं, से था। परन्तु साईंसदानों के भी चित्त हैं, वे भी आनंद और विषाद, प्रेम और करुणा का अनुभव करते हैं। तथा धार्मिक अभ्यासियों को भौतिक सुविधाओं जैसे भोजन, वस्त्र और आश्रय की आवश्यकता है। २०वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और और २१वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में तंत्रीसाईंसदानों ने यह बात पहचाननी प्रारंभ कर दी कि चित्त का मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है, कि उदाहरण के लिए मानसिक प्रशिक्षण मस्तिष्क को प्रभावित करता है।साईंस और बौद्ध साईंस के बीच की कड़ियाँ निकट आ गई हैं।

परम पावन ने स्पष्ट किया कि एक समय बुद्ध हमारी ही तरह थे, पर चँूकि उन्होंने अपने चित्त को एक लंबे समय तक प्रशिक्षित किया, उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुई। हम भी अपने चित्त को परिवर्तित कर सकते हैं और वह उपकरण जिससे हम परिवर्तन ला सकते हैं, वह चित्त है।

'ऐसा मैंने सुना, भगवान गृध्रकूट पर विहार कर रहे थे ... '  हृदय सूत्र का प्रारंभ इस प्रकार होता है। परम पावन ने स्पष्ट किया कि कभी कभी भिक्षुओं के संदर्भ से अर्हत का अर्थ निकल सकता है और जब यह आता है कि बुद्ध 'गंभीरावसंबोध' नाम की समाधि में समापन्न थे तो गंभीर शब्द शून्यता का द्योतक है, और संबोध का संदर्भ प्रतीत्य समुत्पाद के लिए है। इस संदर्भ में ५ स्कंधों का वर्णन किया गया है, साथ ही स्वभाव रहित का भी। चूँकि अज्ञान सभी क्लेशों में व्याप्त हो जाता है, इसिलए नैरात्म्य को प्रारंभ में ही दिया जाता है।

अपने ही अनुभव के बारे में बोलते हुए परम पावन ने कहा:

"मैं किसी विशिष्टता का दावा नहीं करता, पर १५ या १६ वर्ष की आयु से ही मैंने शून्यता में रुचि ली। ३० साल की आयु के आसपास मैंने आत्मा को न तो स्कंधों के साथ और न ही स्कंधों से पृथक होने के बारे में सोचा और मुझमें आत्मा के अभाव की एक प्रबल रूप से एक प्रबल भावना थी। जब मैंने इसी तर्क को स्कंधों पर व्यवहृत किया तो मुझ में उस प्रकार की अनुभूति न हुई। मैं ऐसे लोगों से मिला हूँ जिन्होंने मुझसे कहा कि नागार्जुन के शून्यता तथा प्रतीत्य समुत्पाद की व्याख्या एक ऐसा बौैद्धिक व्यायाम है जिसका व्यावहारिक रूप बहुत कम है। वास्तव में यह सच नहीं है।"


"वस्तुओं का कोई निहित स्वभाव नहीं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि वहाँ कुछ नहीं है। वे मात्र अन्य कारकों पर निर्भर होकर अस्तित्व में आती है। रूप शून्यता है, स्वभावता से शून्य, परन्तु हमें जो दृश्य होता है वह इस प्रकार का आभास नहीं देता। यह क्वांटम भौतिकी दृष्टिकोण के विषय नहीं है क्योंकि यदि आप वस्तु को उसके भागों में तोड़ें तो वहाँ ऐसा कुछ नहीं जिसके स्वभावगत अस्तित्व की ओर आप इंगित कर सकें।"

"मेरे समक्ष रखें पुष्प को देखें, यदि हम उसे उसके रंग में, उसके आकार में उसके लघुतम कण तक भी देंखे, तो हमें पुष्प जैसा कुछ न मिलेगा। यह प्रतीत्य समुत्पाद है जिसे हम पुष्प का नाम देते हैं। यद्यपि कोई इसे न नकारेगा कि यहाँ एक पुष्प है, परन्तु जैसा मेरे मित्र हारून बेक कहते हैं ९०% हमारा अपना प्रक्षेपण है।"

परम पावन ने समझाया कि हृदय सूत्र के अंत में मंत्र या धारणी आध्यात्मिक विकास के पथ का प्रतिनिधित्व करता है। प्रथम दो शब्द 'गते, गते' क्रमशः संभार मार्ग और प्रयोग मार्ग को संदर्भित करता है। पारगते 'दर्शन मार्ग' की ओर संकेत करता है जिसमें शून्यता प्रत्यक्ष दृष्टिगत होती है। 'पारसंगते' भावना मार्ग को संदर्भित करता है, जबकि बोधि स्वाहा 'अशैक्ष मार्ग' तथा बुद्ध की प्रबुद्धता को संदर्भित करता है।

परम पावन ने 'धर्मधातुस्तव' और बोधिसत्व की सैंतीस अभ्यास का पाठ शीघ्रता के साथ किया और यहाँ वहाँ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को स्पष्ट किया। अंत में उन्होंने कहा:

"ये पाठ एक पुस्तिका के रूप में मुद्रित किए गए हैं और मैंने आपको एक प्रारंभिक स्पष्टीकरण दिया है। अब यह आप पर है कि आप उन्हें पुनः पढ़ें तथा वे जो कहते हैं उसके विषय में सोंचें। उनका अध्ययन करें। यदि मैं एक वर्ष में लौटूँ तो मैं इस पर आपकी परीक्षा लूँगा, मैं देखना चाहता हूँ कि ये पुस्तिकाएँ उपयोग के कारण पुरानी सी हो गई है।"

"मैं जापान में दो सप्ताह से हूँ जिसका प्रारंभ शिंतो पुजारियों के नेतृत्व में सेंडाइ में प्रार्थना के साथ हुआ। मैं यहाँ वहाँ अपने कई जापानी मित्रों से मिला हूँ; मैं आशा करता हूँ कि आपको भी कुछ लाभ की अनुभूति हुई होगी। अब मैंने जो कुछ सिखाया, उस पर चिंतन करने के िलए आप अपने मस्तिष्क को काम में लाएँ। एक तिब्बती लामा ने सलाह दी कि भले ही आप जानते हो कि आप की मृत्यु कल होने वाली है, फिर भी इस अध्ययन को निरंतर रखना सार्थक होगा क्योंकि यह भविष्य के िलए एक निवेश के समान है।"

कोयासन विश्वविद्यालय के श्रद्धेय फुजिता - सान ने धन्यवाद प्रस्तुत किया जिसका उत्तर करतल ध्वनि थी, और परम पावन धीरे धीरे सभागार से बाहर निकले और उनके बीच से होकर निकलते समय मुस्कुराते लोग उनका हाथ थामने के िलए अपना हाथ बढ़ाते हुए सामने आए।

कल परम पावन भारत लौटने हेतु उड़ान भरेंगे। 

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