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थेगछेन छोलिंङ् चुगलगखंग में भैषज्य बुद्ध अभिषेक ३१/मार्च/२०१४

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धर्मशाला, भारत - ३१ मार्च २०१४ - परम पावन दलाई लामा आज प्रातः निर्धारित समय पर भैषज्य बुद्ध अभिषेक की तैयारी की प्रक्रियाओं को प्रारंभ करने हेतु थेगछेन छोलिंङ् चुगलगखंग पहुँचे। तिब्बतियों और विदेशियों के एक आतुर समूह से मंदिर तथा नीचे बगीचे का क्षेत्र भरा हुआ था।

"आज, तिब्बती चिकित्सकों के संघ ने मुझसे भैषज्य बुद्ध अभिषेक का अनुरोध किया है, संभवतः उनका सोचना है कि यह उनके कौशल में सुधार लाएगा। फिर भी केवल भैषज्य बुद्ध मंत्र के जाप से, जो आप कर रहे हैं, उसमें सुधार न होगा, अध्ययन और अभ्यास उचित मार्ग हैं" परम पावन ने प्रारंभ किया। "हम तिब्बतियों के पास एक बहुत गहन चिकित्सा पद्धति है। ८वीं शताब्दी के दौरान सम्राट ठिसोंग देचेन की अध्यक्षता में चिकित्सा का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजन किया गया था, जिसके परिणाम स्वरूप तिब्बती चिकित्सा कई परंपराओं का एक संश्लेषित रूप बन गया। अब २१वीं सदी में, हम इसमें और अधिक सुधार लाने के िलए अवसरों का लाभ उठाने की आवश्यकता है।"

 
उन्होंने कहा कि प्रवचन लंबा हो अथवा छोटा और चाहे आप इसे दे रहे हैं अथवा सुन रहे हैं, एक शुद्ध प्रेरणा का होना महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने चरी नछोग रंगडोल नाम के एक लामा का स्मरण किया जिन्होंने अपने प्रवचन के संदर्भ में मात्र तीन प्रतिज्ञाएँ ली थी ः घोड़े की सवारी न करना, शाकाहारी भोजन लेना और धर्म का व्यापार न करना। परम पावन ने कहा कि वे वास्तव में इससे अत्यंत प्रभावित हुए थे।

उन्होंने यह कहते हुए कि धर्म ही वास्तविक शरण है, बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेने की बात की। उन्होंने आगे कहा कि संस्कृत परंपरा में मुख्य अभ्यास बोधिचित्तोत्पाद और शून्यता का ज्ञान है तथा लक्ष्य पूर्ण बुद्धत्व है। यह टिप्पणी करते हुए कि तिब्बती चिकित्सक आज के प्रमुख शिष्य थे, उन्होंने एक बड़ी संख्या में भाग ले रहे स्कूल के छात्रों का भी उल्लेख किया।

"यद्यपि हम सुख चाहते हैं, पर हम दुख के कारणों के पीछे भागते हैं" परम पावन ने उल्लेख किया और यह स्मरण किया कि दलाई लामा के रूप में प्रतिस्थापित करने के पश्चात उन्हें धर्म के अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। परन्तु पोताल महल और नोर्बुलिंगा में सीिमत होने के कारण उनका साधारण लोगों और उनके जीवन के साथ बहुत कम संपर्क था। वह उसी समय संभव हो सका जब उन्होंने भ्रमण करना प्रारंभ किया, पहले तो दक्षिणी तिब्बत में डोमो, फिर चीन जहाँ वे कई साम्यवादी नेताओं से िमले और उसके बाद भारत, जहाँ उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों से भेंट की जो महात्मा गांधी के अनुयायी रह चुके थे। जैसे जैसे उनकी यात्राओं का क्रम १९६० के दशक में थाईलैंड और सिंगापुर के लिए और १९७० में यूरोप और अमरीका तक बढ़ा, उनकी भेंट जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों से हुई। उन्होंने कहा कि सभी भौतिक विकास की ओर ताकते हैं, इस आशा से कि सुख पीछे पीछे आएगा। यद्यपि धीरे धीरे, लोगों ने यह अनुभव करना प्रारंभ कर दिया है कि भैतिक विकास अपने आप में पर्याप्त नहीं है। आजकल, वैज्ञानिक तक यह कहते हैं कि चित्त की शांति महत्त्वपूर्ण है और चित्त की शांति अच्छे स्वास्थ्य की ओर ले जाती है।

"सभी मनुष्य अपनी माताओं से जन्म लेते हैं जिनके साथ लगभग सभी स्नेह के प्रबल संबंध विकसित करते हैं। स्नेह हमारा एक अंग बन जाता है। आपके जीवन में प्रेम व करुणा का भाव जितना अधिक होगा आप उतने अधिक सुखी होंगे। मधुमक्खियों की तरह हममें एक सामाजिक भावना है और उस संदर्भ में प्रेम व करुणा वास्तविक सुख का सच्चा स्रोत हैं।"

"मैं पहले एक मनुष्य हूँ और उसके पश्चात ही एक तिब्बती बौद्ध हूँ। एक मनुष्य होने के नाते मेरी चिंता यह है कि मैं किस प्रकार मानवता को सुख दे सकूँ। जो मैंने सीखा है, वह यह कि यदि आप में सौहार्दता है तो आप अधिक सुखी होते हैं। यही कारण है कि मैं धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को बढ़ावा देने का प्रयास करता हूँ। मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूँ कि यदि आज बुद्ध प्रकट हों तो वे जो शिक्षण देंगे, वह धर्मनिरपेक्ष नैतिकता होगी। आज जीवित ७ अरब मनुष्यों के लिए यह सबसे अधिक सहायक होगी। जो बात स्पष्ट है, वह यह कि आत्मकेन्द्रितता संकटों का स्रोत है जबकि दूसरों के विषय में सोच रखना सुख का आधार है।"


परम पावन ने आगे स्पष्ट किया कि जहाँ शंका, अविश्वास और दूसरों के साथ व्यवहार करने की असमर्थता की ओर जाता है, ईमानदारी, निष्ठा, प्रेम और करुणा मित्रों को आकर्षित करते हैं। इस प्रकार के आंतरिक गुणों को जो धर्मनिरपेक्ष नैतिकता से संबंध रखते हैं, खरीदा नहीं जा सकता, और न ही उन्हें कारखाने में निर्मित किया जा सकता है, वे हमारे चित्त को परिवर्तित कर पाए जाते हैं। ईश्वरवादी धर्मों के अनुयायी, एक सृजनकर्ता में विश्वास करते हैं। अन्य प्राणियों को उसके सृजन के रूप में देखने से उनके लिए प्रेम और करुणा की भावना को प्रोत्साहन प्राप्त होता है। दूसरी ओर अनीश्वरवादी धर्म, जैसे सांख्य की एक शाखा, जैन और बौद्ध कार्य कारण के नियम, कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और सुख देता है और दुष्कर्मों का बुरा परिणाम होता है, पर विश्वास करते हैं। यह भी दूसरों के लिए प्रेम और करुणा की भावना को प्रोत्साहित करती है। जो बौद्ध धर्म को दूसरों से अलग करती है, वह उसके प्रतीत्यसमुत्पाद की शिक्षा है। उन्होंने टिप्पणी की कि हमारी मानव बुद्धि हमें इस बात की सराहना करने में सक्षम करती है कि ये सभी विभिन्न धार्मिक परंपराएँ कितनी सहायक हो सकती है।

व्यापक और कठोर अध्ययन और प्रशिक्षण जो तिब्बती बौद्ध धर्म की विशेषताएँ हैं, की ओर संकेत करते हुए परम पावन ने नालंदा परंपरा को सही रूप से व्यक्त करने के लिए तिब्बती भाषा को एक श्रेष्ठ भाषा कहा और इस ओर उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख किया। उन्होंने प्रारंभिक तिब्बती सम्राटों के प्रति आभार व्यक्त किया, जिन्होंने भारतीय बौद्ध साहित्य को तिब्बती भाषा में अनुवाद करने की शांतरक्षित की पहल का उत्तरदायित्व उठाया, एक ऐसी उपलब्,धि जिस पर हर तिब्बती गर्व कर सकता है।
 
भैषज्य बुद्ध अभिषेक के दौरान परम पावन ने जन समूह का बोधिचित्तोत्पाद अनुष्ठान में नेतृत्व किया।

समापन करते हुए परम पावन ने भापा फुनछोग वांगज्ञल, जिनका कल निधन हो गया था, के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि वे उन्हें १९५१ से व्यक्तिगत रूप से जानते थे और उन्हें एक तिब्बती नायक के रूप में मानते थे। एक ओर तो वे एक साम्यवादी क्रांतिकारी थे पर दूसरी ओर वे गौरवपूर्ण, दिग्गज तिब्बती थे। इस कारण उन्हें १९५७ से बन्दी बना लिया गया था। पर फिर भी वे अपने जीवन पर्यन्त तिब्बती लोगों के कल्याण के लिए समर्पित रहे। परम पावन ने बड़े स्नेह भाव से स्मरण किया कि पिछले वर्ष फुनछोग वांगज्ञल ने अपना एक चित्र भेजा था जिसमें वे हाथ में खाता (तिब्बती पारम्परिक दुपट्टा) लिए हाथों को जोड़े हुए थे, यह संकेत देते हुए कि साम्यवादी अंततः बौद्ध बन गए। परम पावन ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों से फुनछोग वांगज्ञल, अन्य उन लोगों के लिए जो तिब्बती संघर्ष में मारे गए, जिनमें वे भी जिन्होंने आत्मदाह किया था, के िलए मंत्र जाप करने का आग्रह किया।

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