परम पावन 14 वें दलाई लामा
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बाइलाकुप्पे से बंगलौर के लिए रवाना ५/जनवरी/२०१४

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बंगलौर, कर्नाटक, भारत - ४ दिसंबर २०१४ - बोधिपथक्रम पर दस दिनों के प्रवचन के बाद, कई लोगों से निजी रूप और सामूहिक रूप से भेंट करना, सब कुछ सरलता से और िबना किसी बाधा के हो गया और परम पावन दलाई लामा के बाइलाकुप्पे छोड़ने का समय आ गया। वे सेरा जे महाविहार के प्रार्थना सभा में आए, प्रार्थनाएँ की और प्रबुद्धता प्राप्त सत्वों की छवियों को नमस्कार किया। भिक्षु, जिन्होंने ३०,००० से अधिक जमा हुए लोगों के दौरान स्वयंसेवक के रूप में काम किया था, ने सभा के केन्द्र से एक गलियारे जैसा बनाया। गेलुगपा के विभिन्न वर्ग, बाइलाकुप्पे और अन्य विहाराध्यक्षों की सभा उन्हें विदा करने आई थी। लिंग रिनपोछे जिन्होंने प्रवचन का अनुरोध किया था, वे परम पावन की गाड़ी के दरवाजे पर थे।


जैसे परम पावन का गाड़ी का काफिला आवास से होते हुए रास्ता बनाते निकला, सड़क पर जीवन के सभी क्षेत्रों से तिब्बती, युवा, वृद्ध, साधारण लोग और भिक्षु अपने हाथंो में खाता, फूल या धूप लेकर पंक्ति के साथ कुछ दूर गए। अधिकांश मुस्कुराए, कुछ रोने लगे। विहाराध्यक्ष वापस मुड़ने से पहले परम पावन के साथ कुछ दूर गए।

परम पावन का पहला पड़ाव एक कच्चे सड़क पर बाइलाकुप्पे के किनारे बसे थोड़ी दूर पर चौकुर तिब्बती आवास था। यहाँ केवल ४००० लोगों का निवास है। परम पावन को एक पारम्परिक तिब्बती स्वागत दिया गया और उन्हें एक छोटे से सभागार में ले जाया गया जहाँ उन्होंने निवासियों को संबोधित किया। प्रारंभ में उन्होंने छोटे बच्चों को छेड़ा जो मंच के किनारे बैठे हुए थे, एक छोटे बालक की ओर देखते हुए जिसके सामने के दाँत गिर गए थे उन्होंने पूछा कि क्या नए दाँत आ रहे हैं। जब वे अधिक उम्र वाले लोगों से बात कर रहे थे, तो बात सामने आई कि वृद्ध पुरुषों में से कई तिब्बत में भिक्षु थे। परम पावन ने याद किया कि जब वह पहली बार इस स्थान पर आए थे, तो प्रत्येक व्यक्ति तंबुओं में रह रहा था। तब से वस्तुओं का विकास हुआ है। उन्होंने ध्यान दिया कि महाविहारों की उपस्थिति के कारण बड़े आवासों का और अधिक विकास हुआ है, पर उन्होंने कहा कि चौकुर की परिस्थिति बहुत खराब नहीं लग रही थी। उन्होंने पूछा:

"क्या आपको यहाँ घर जैसा लगता है?" और उन्हें एक स्वर में उत्तर मिला 'हाँ', और परम पावन ने उत्तर दिया:

"अच्छा। अपना देश को खो कर शरणार्थी बनना ऐसा ही है। जब मैंने नोर्बुलिंका छोड़ा था तो मेरी भारत आने की आशा न थी, पर हमारे निकलने के कुछ समय बाद ही पोताला और नोर्बुलिंका में बमबारी प्रारंभ हो गई। हमें क्यीछु नदी के रास्ते पर चीनी सैन्य शिविर मिले। हम डरे हुए थे और जितना शांत रह सकते थे, उतने बने रहे, यद्यपि घोड़ंों के खुर आवाज़ कर रहे थे और हमने किसी भी रोशनी का प्रयोग नहीं किया। दूसरी तरफ एक नदी और एक दर्रा पार करने के बाद हम ल्होका पहुँचे जहाँ हमारी भेंट छुशी गंगडुग सैनिकों, भिक्षुओं और अन्य लोगों से हुई और हम दक्षिण की ओर चल पड़े। हम इस बात को लेकर अनिश्चित थे कि भारत सरकार हमें प्रवेश की अनुमति देगी अथवा नहीं और हमने चर्चा की कि हम भूटान की ओर जाएँ अथवा मोन की ओर। हमने पूछताछ के लिए एक अग्रिम दल भेजा। जो अधिकारी मोन की ओर गया था, उसने लौट आकर कहा कि भारत सरकार के अधिकारी हमसे मिलने की तैयारी कर रहे थे। उस समय, जैसा हम कहते हैं, पूरे विश्वास के साथ हम केवल पृथ्वी और आकाश जानते थे।"

"जब हम पहले निर्वासन में आए तो हम नहीं जानते थे कि क्या होने वाला है। हम अभी भी आशा कर रहे थे कि स्थिति का समाधान निकल आएगा। पंडित नेहरू मुझसे मिलने आए। मैं उनसे पहली बार १९५४ में चीन में मिला था जब वह वहाँ की सरकारी यात्रा पर थे। यह चाउ एन लाई द्वारा आयोजित एक भोज था जो चीनी अधिकारियों से उनका परिचय करा रहे थे। जब वह मेरे पास आए और कहा, "और यह दलाई लामा हैं", नेहरू मौन हो गए और कुछ भी नहीं कहा। मेरे मन में विचार आया कि वह पहले से ही तिब्बत के बारे में एक निर्णय ले चुके थे और मैं सोच रहा था कि क्या वे भारत और तिब्बत के बीच लम्बे समय के संबंधों पर चिंतन कर रहे थे।"


परम पावन ने समझाया कि अगली बार उनकी नेहरू से भेंट उस समय हुई जब वे भारत सरकार के निमंत्रण पर १९५६ में भारत आए। यात्रा को लेकर अनिश्चितता थी क्योंकि चीनी अधिकारियों ने कहा कि महाबोधि सोसायटी का निमंत्रण बहुत ही नगण्य था कि परम पावन उसे स्वीकार करें, पर जब भारत सरकार की ओर से निमंत्रण आया तो वे पर्याप्त रूप से प्रभावित थे। उन्होंने तिब्बत में आ रही कठिनाइयों की सूचना दी और सुझाव दिया कि वह तिब्बत न लौट कर भारत में एक शरणार्थी के रूप में रहने की सोच रहे थे। नेहरू असहमत थे और उन्होंने कहा कि उससे कोई उद्देश्य पूरा न हो पाएगा और वापस जा कर चीनियों के साथ १७ सूत्री समझौते के आधार पर स्थितियों का समाधान ढँूढना बेहतर होगा। अपनी सलाह को और भारी बनाने के लिए वे उसकी एक प्रति भी लेकर आए। १९५७ में परम पावन ल्हासा लौट गए, पर स्थितियाँ और बिगड़ती गई और १९५९ में वे तिब्बत से भाग निकले।

"मैंने नेहरू की सलाह का पालन करने का प्रयास किया था पर निर्वासन में आने के बाद ऐसा लगता है कि हमारे साथ जो कुछ भी हुआ उससे उनका दिल भारी हो गया। हमने युवा पीढ़ी को शिक्षित करने की बात की और ऐसा करने में उन्होंने सहायता करनी चाही। चूँकि अब हम एक स्वतंत्र देश में थे हमें इस तरह का आवास बनाने का अवसर मिला। साथ ही साथ हमने समर्थन के लिए संयुक्त राष्ट्र से संपर्क किया और कई भागों से हमें बहुत सहायता मिली। इस आवास के आप जैसे लोगों ने हमारे उद्देश्य के लिए कड़ा परिश्रम किया है। आपने एक बहुमूल्य योगदान दिया है। हमें उन लोगों के लिए प्रार्थना करनी चाहिए जो दिवंगत हो चुके हैं और अब आप में से जो वृद्ध हैं, आपको जानना चाहिए कि हम आपकी देख- रेख करेंगे। चूँकि हम पूर्व और आगामी जीवन काल में विश्वास करते हैं, आप भविष्य में हमारे उद्देश्य को पूरा करने में सक्षम होने की प्रार्थना कर सकते हैं।"

"आप में से जो युवा पीढ़ी के हैं उन्हें जानना चाहिए कि तिब्बतियों के विषय में जो कई लोग मूल्यवान मानते हैं वह हमारी सौहार्दता और हमारा सकारात्मक दृष्टिकोण है। आप को हमारे सुनाम को बनाए रखने के लिए सतर्क रहना चाहिए। दयालु रहो, ईमानदार रहो और मैत्री भाव बनाए रखो।"

"नेहरू ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ में याचिका देने से कोई लाभ न होगा और मैंने उनसे कहा कि हमारे िलए केवल सहायता की अपेक्षा करना इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं था, पर हम तिब्बत के प्रश्न को जीवित रखना चाहते थे। उन्होेंने कहा कि ऐसा करने का सबसे अच्छा उपाय युवा पीढ़ी को शिक्षित करना होगा। इस तरह जब पुरानी पीढ़ी के लोग जो तिब्बत से बाहर आए थे, वे न रहेंगे तो यह महत्त्वपूर्ण है कि आप जो युवा हैं भली भांति शिक्षा ग्रहण करें। आधुनिक शिक्षा के बिना आप आगे न बढ़ पाएँगे, पर आपके लिए हमारी तिब्बती भाषा और हमारी बौद्ध परंपरा को जानना भी आवश्यक है। इसलिए हमने नेहरू से तिब्बतियों के लिए अलग स्कूलों की स्थापना के लिए सहायता माँगी।"

अपने सामने बच्चंों की ओर देखते हुए परम पावन ने उनसे पूछा कि क्या वे मंजुश्री का मंत्र बोलते हैं। उन्होंने उनसे कहा कि इससे उन्हें अध्ययन में सहायता मिलेगी और उन्हें ऊँ अ र प च न धी बोलना और किस तरह अंतिम वर्ण धी को कई बार दोहराते हैं, सिखाया। उन्होंने वहाँ उपस्थित माता पिता से अपने बच्चों को ऐसा करने में मदद करने के लिए कहा, यह कहते हुए कि बचपन से वे स्वयं इसे दोहराते रहे हैं और उन्होंने इसे बहुत सहायक पाया है। वे इतालवी समूह के सदस्यों की ओर मुड़े जो इस आवास का समर्थन कर रहे हैं और अपनी सराहना व्यक्त की।


चूँकि आवास के सदस्य अप्रत्याशित रूप से मरने वाले लोगों की संख्या के विषय पर चिंतित हो गए हैं, परम पावन ने अस्वस्थ होने पर तुरंत उपचार लेने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि जहाँ तिब्बत में चिकित्सा सुविधाएँ कम थी, यहाँ निर्वासन में वे उपलब्ध हैं और उन्हें उनका उपयोग करना चाहिए। समापन करने के लिए उन्होेंने बुद्ध, अवलोकितेश्वर, तारा और हयग्रीव के मंत्रों का प्रसारण दिया। रवाना होने से पहले उन्होंने छोटे कालीन के कारखाने का दौरा किया जिसमें इतालवियों ने सहायता की है, और एक स्तूप और बड़ी प्रार्थना चक्र की परिक्रमा की जो कि अब स्विट्जरलैंड में बसे एक परिवार द्वारा दान किया गया था।

बंगलौर के लिए यात्रा को जारी रखते हुए, परम पावन दलाई लामा उच्च शिक्षा संस्थान में मध्याह्न के भोजन के लिए रुके। यद्यपि यह अवकाश काल है पर कुछ छात्र, कर्मचारी और शिक्षक उनके स्वागत के लिए उपस्थित थे। इस नई संस्था में संप्रति लगभग २२० छात्र और ५० कर्मचारी हैं और तिब्बतियों के लिए उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और संभावना में सुधार करने की अपेक्षा रखते हैं। भली भांति भोजन करने के बाद, बैंगलूर में उनके होटल जहाँ वे रात में आराम करने हेतु रुके, की यात्रा अपेक्षाकृत छोटी थी।

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