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अभ्युदय और नैश्रेयस ७/जुलाई/२०१४

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लेह, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर, भारत - ७ जुलाई २०१४ - आज प्रातः ३३वें कालचक्र अभिषेक के प्रारंभिक प्रवचन को जारी रखने के लिए अपने निवास स्थान से निकलने के पूर्व परम पावन दलाई लामा ने लगभग २०० चीनियों के साथ भेंट की। उन्होंने यात्रा की कठिनाई के बावजूद उन्हें वहाँ होने के लिए बधाई देते हुए प्रारंभ किया। उन्होंने कहा कि तिब्बत और चीन के बीच के संबंध १००० वर्ष से भी अधिक प्राचीन थे। ७वीं शताब्दी में शक्तिशाली तिब्बती सम्राट सोंगचेन गमपो ने राजकुमारी वेनचेग से विवाह किया, जो तिब्बत में जोवो की प्रतिमा ले कर आई, जो अब ल्हासा में पूजा की मुख्य वस्तु है।

उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक रूप से चीनी बौद्ध हैं और वे प्रायः कहा करते हैं कि चीनी वरिष्ठ शिष्य हैं जबकि तिब्बती कनिष्ठ हैं। पर उन्होंने चुटकी लेते हए कहा कि जहाँ तक प्रशिक्षण का संबंध है कनिष्ठ शिष्य इतने बुरे नहीं हैं। कुछ वर्षों पूर्व बीजिंग विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि चीन में ३०० करोड़ बौद्ध थे और उसके बाद से यह संख्या ४०० - ५०० करोड़ हो गई है। परम पावन ने कहा कि हाल ही में फ्रांस में शी जिनपिंग ने टिप्पणी की कि चीन के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए बौद्ध धर्म महत्वपूर्ण था। उन्होंने कहा कि चीनी ग्रंथों में कांग्यूर की तुलना में अधिक अनुवादित सूत्र हैं, परन्तु तिब्बती तेंग्यूर में चीनी संग्रह की तुलना में अधिक संकलन हैं।

वह जो भी हो परम पावन ने कहा कि बौद्ध शिक्षण में वास्तविकता का पूरा विवरण शामिल है और कहा कि एक बौद्ध होने के लिए अध्ययन करना महत्वपूर्ण है।



उन्होंने कहा "मैं प्रायः चीनी मित्रों को छेड़ता हूँ, कि बार बार अमिताभ का नाम दोहराना पर्याप्त नहीं है। यदि आप केवल उस पर निर्भर हैं तो आपके अभ्यास और ईसाइयों और मुसलमानों के अभ्यास में बहुत कम अंतर होगा, जो स्वर्ग जाने की इच्छा रखते हैं। बुद्ध ने यह बिलकुल स्पष्ट कर दिया कि प्रबुद्धता आंतरिक रूप से होती है, हृदय के अन्दर।

कुछ और हँसते हुए परम पावन ने एक चीनी अधिकारी द्वारा उन्हें एक राक्षस के रूप में वर्णित करने का स्मरण िकया, पर उन्होंने कहा कि उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता कि कोई उन्हें दानव कहे या अवलोकितेश्वर। उनके लिए जो अधिक महत्वपूर्ण है वह है बुद्ध का अनुयायी होना।

परम पावन ने मग्न श्रोताओं से कहा कि उन्हें लोगों के गणतंत्र का विचार अच्छा लगता है, क्योंकि शब्द स्वयं ही समानता की भावना सुझाते हैं। उन्होंने कहा कि वे माओचे तुंग से कई बार मिल चुके हैं और स्मरण किया कि वे समानता के बड़े समर्थक थे जो राष्ट्रवाद और हान वर्चस्व से घृणा करते थे। उन्होंने कहा कि वास्तविक समानता आज अधिकांश समस्याओं को दूर करेगी।

एक परिचित विषय को दोहराते हुए परम पावन ने ज़ोर दिया कि १.३ अरब चीनी लोगों को सत्य जानने का अधिकार है। यदि वे वास्तविकता को जानें तो उनमें सही और गलत का न्याय करने की क्षमता और बुद्धि है। चीन में थोपी गयी सेंसर व्यवस्था को भारत या जापान में बनाए रखना असंभव होगा। उन्होंने कहा:

"चूँकि यह लोगों के लिए वास्तविकता का आकलन कठिन करता है इसलिए सेंसर व्यवस्था अनैतिक है। और इससे भी अधिक यह लोगों के प्रति एक आधारभूत सम्मान की कमी को दर्शाती है। जैसे जैसे चीन विकसित हो रहा है उसके पास विश्व के लिए एक सकारात्मक योगदान करने का अवसर है, पर ऐसा करने के लिए उसे पहले विश्व का विश्वास और सम्मान अर्जित करना चाहिए।"


गर्म धूप में परम पावन पुनः एक बार मंडप की ओर चले जहाँ से वे प्रवचन देते हैं और जहाँ कालचक्र रेत मंडल व्यवस्थित रूप से आकार ले रहा है। आगमन पर प्रत्येक दिन उनका अभिनन्दन लद्दाखी संगीतकारों द्वारा ड्रम और स्थानीय बाँस के साज़ सुरना के वादन के साथ होता है। लामाओं तथा आयोजक, जो सिंहासन के आसपास बैठते हैं, का अभिनन्दन कर और दर्शकों को नमस्कार करने के बाद उन्होेंने अपना आसन ग्रहण किया और कहा:

"जिस प्रकार का भी व्याख्यान दिया जा रहा हो, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि गुरु और शिष्य एक अच्छी प्रेरणा उत्पन्न करें। मोह और क्रोध जैसी भावनाओं के भार से रहित होकर और अष्ट लोक धर्म से विशुद्ध होकर हमें त्रिरत्न में शरण लेना चाहिए। एक धर्म को महायान होने के लिए, व्यक्ति को महायान होना चाहिए।"

परम पावन ने कहा कि हम जिस प्रकार भव चक्र के अस्तित्व से बाहर आते हैं, में बुद्ध के चार आर्य सत्यों की आधारभूत शिक्षा है जो दुख के कारणों की आवश्यकता पर बल देता है। बुद्धत्व की प्राप्ति के तुरन्त बाद बुद्ध ने सर्वप्रथम वाराणसी में यह शिक्षा प्रस्तुत की। उन्होंने दुख के आर्य सत्य, उसके समुदय के आर्य सत्य, निरोध के आर्य सत्य तथा मार्ग के आर्य सत्य की शिक्षा दी। उन्होंने समझाया कि दुख को जानना चाहिए, उसके कारण को त्यागना चाहिए, निरोध को यथार्थ करना चाहिए और मार्ग का विकास करना चाहिए। पर यदि एक बार दुख को समझ िलया जाए तो कुछ जानने की, कुछ त्यागने की, कुछ यथार्थ करने की और कुछ विकसित करने के लिए शेष नहीं रह जाता।

परम पावन ने समझाया कि हर आर्य सत्य का एक गुण हैः वे अनित्य, दुख, शून्यता और नैरात्म्य लिए हैं। अनित्यता के विषय में उन्होंने कहा कि स्थूल और सूक्ष्म अनित्यता है। जब किसी वस्तु का बस अंत हो जाता है, तो वह स्थूल अनित्यता है, पर क्षणिक होता परिवर्तन जो किसी वस्तु को प्रभावित करता है, तो वह सूक्ष्म अनित्यता है जो अपने कारणों से प्रेरित होता है। उदाहरण के िलए किसी स्थायी आत्म की ग्राह्यता अज्ञान है यद्यपि ऐसी कोई आत्मा नहीं है।


मार्ग में प्रवेश में त्रिशिक्षा, शील ध्यान और प्रज्ञा का अभ्यास शािमल है जो छह पारमिताओं के अभ्यास की ओर और अंततः वज्रयान के अभ्यास की ओर ले जाता है। तंत्र के साथ प्रारंभ करना इतना प्रभावी नहीं होगा। यह समझने के लिए कि मुक्ति क्या है, हमें प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाओं को समझने की आवश्यकता है। इस बीच, तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन के रूप में तथागत - गर्भ - सूत्र, व्यक्तिपरक चित्त, प्रभास्वरता को स्पष्ट करता है जो अनुत्तर योग तंत्र का सार है। अपनी शिक्षाओं में बुद्ध ने पहले आधारशिला रखी फिर दीवारों को उठाया और अंत में उस पर छत चढ़ाई। परम पावन ने टिप्पणी की कि तिब्बती छत से प्रारंभ करते हैं।

उन्होंने कहा कि जब तीन शिक्षा का विकास नैरात्म्य के आधार पर किया जाता है तो वे उन्हें तीन अधिशिक्षा बना देते हैं। सैंतीस बोधिपक्षीय धर्म में, चार स्मृत्युपस्थान, चार सम्यक् प्रहाण, चार ऋद्धिपाद, पञ्चेन्द्रियाँ, पञ्चबल, सात बोध्यंग तथा आर्य अष्टांगिक मार्ग शामिल हैं। परम पावन ने समझाया कि चार स्मृत्युपस्थानों में काय स्मृत्युपस्थान, वेदना स्मृत्युपस्थान, चित्त स्मृत्युपस्थान और धर्म स्मृत्युपस्थान शामिल हैं।

"चित्त की प्रकृति को समझना स्पष्टता और जागरूकता है", उन्होंने कहा कि "हम देख सकते हैं कि किस तरह क्लेशों को दूर किया जा सकता है। बौद्ध शिक्षण लोगों को धमकी देना नहीं है, कि यदि वे एक निश्चित रूप से व्यवहार नहीं करें तो उसके गंभीर परिणाम होंगे। अपितु मुक्ति के लाभ को समझकर, वे इसे प्राप्त करने के लिए प्रेरित होंगे।"


परम पावन ने टिप्पणी की कि आज के विश्व में लोग अपने शारीरिक आराम और ऐन्द्रिक संतोष में अधिक रुचि रखते हैं, पर फिर भी प्रेम और करुणा आंतरिक रूप से विकसित होते हैं और अधिक टिकाऊ हैं। नागार्जुन के ग्रंथ 'रत्नावली' की व्याख्या प्रारंभ करते हुए उन्होंने अभ्युदय अथवा अच्छे परा जन्म और नैश्रेयस या मुक्ति की बात की। उन्होंने यह बात दोहराई कि धर्म, जो हमें दुख से बचाता है, के लिए आवश्यक है कि हम दूसरों का अहित न करें, अपितु उनकी सहायता करें, जो प्रायः दस अकुशल कार्यों को त्यागने तथा दस कुशलों को पूरा करना है। इस संबंध में सभी दोष आत्म पोषण के कारण होते हैं, जो उन मानसिक कारकों के अंतर्गत आते हैं जो त्रिविष के नाम से जाने जाते हैं। दुख मात्र प्रार्थना से दूर नहीं होते पर आत्म की भ्रांति के अज्ञान पर काबू पाने से दूर होते हैं।

जैसे ही उन्होंने 'रत्नावली' का प्रथम अध्याय पूरा किया परम पावन ने कहा ः

"यद्यपि यह कठिन हो सकता है, पर इन ग्रंथों का अध्ययन कर उन्हें एक दूसरे से तुलना कर, यह समझने का प्रयास किया जाना चाहिए कि शून्यता जैसे विचारों का वास्तव में क्या अर्थ है।"

कालचक्र अभिषेक की प्रारंभिक शिक्षाएँ कल पुनः प्रारंभ होंगी और जारी रहेंगी। 

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