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जीवन जीना, प्रेम करना ,हँसना और मरना : बौद्ध मार्ग के अनुसार - मुम्बई - तीसरा दिन १/जून/२०१४

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मुंबई, भारत - जून १, २०१४ - परम पावन दलाई लामा के तीसरे दिन का प्रवचन सत्र एक व्याख्या से प्रारंभ हुआ, जो कि शांतिदेव के,'बोधिसत्वचर्यावतार' से लिया गया था।


"मैंने चर्चा के लिए अध्याय ६ और अध्याय ८ का चयन किया है क्योंकि अध्याय ६ का विषय क्रोध तथा विद्वेष है, जो कि अनंत परोपकारिता के विकास में सबसे बड़ी बाधाएँ हैं, अतः यह बहुत सहायक है। अध्याय ८ में समझाया गया है कि परोपकारिता कितनी उपयोगी है। बोधिचित्त में अनंत परोपकारिता का प्रज्ञा के साथ संयोजन शामिल है। कल हमने जो पाठ देखा, उसका संबंध एक मनुष्य के रूप में अभ्युदय और निश्रेयस के लिए प्रज्ञा की खोज में सकारात्मक कार्यों का विकास करना तथा नकारात्मकता को नष्ट करना था। आज मैं अध्याय ६ का सार समझाऊँगा।"
उन्होंने कहा कि हम दो प्रकार के करुणा में भेद कर सकते हैं, एक जो दूसरों की दुखों से मुक्ति की कामना करता है और एक दूसरी दृढ़ता जो यह कहती है: "कि मैं दूसरों को पीड़ा से मुक्त करने में सक्षम होऊँ।" इसे पूरा करने के लिए हमें यह जानना होगा कि दुख पर काबू पाया जा सकता है। हमें यह पहचान करने की आवश्यकता है कि दुख तीन या पाँच प्रमुख विनाशकारी भावनाओं से आता है: अज्ञान, क्रोध और राग, जिसमें हम ईर्ष्या और अहंकार जोड़ सकते हैं। इनका मूल अज्ञान है, जिसका प्रतिकारक बल है कि वस्तुएँ जिस रूप में हैं उसी रूप में देखा जाए। नागार्जुन ने अज्ञान के लिए कहा, कि यह ऐसा मानकर कि उनका वास्तविक अस्तित्व है वस्तुओं के दृश्य रूप से चिपके रहना। परम पावन ने आर्यदेव के ‘चतुःशतक’ में से उनके कथन को उद्धृत करते हुए कहा कि चूँकि सभी विनाशकारी भावनाओं में अज्ञानता व्याप्त होती है, तो जब हम अज्ञान को नष्ट करते हैं, तो विनाशकारी भावनाओं भी नष्ट हो जाएँगी।
हम इसे किस प्रकार कर सकते हैं? प्रतीत्य समुत्पाद की समझ से। स्वयं और अन्य वस्तुएँ स्वतंत्र अस्तित्व लिए दिखाई पड़ते हैं। जब हम यह पहचान जाते हैं कि सभी वस्तुएँ अन्य कारकों पर निर्भर करती हैं, तो हम यह पहचानते हैं कि वे स्वतंत्र नहीं हो सकते। अतः हमें अपने सभी प्रयासों को प्रतीत्य समुत्पाद की समझ में लगाना होगा। अज्ञान उससे चिपके रहना है, जो वास्तविकता नहीं है, पर इस पर काबू पाना संभव है। हमारी विकृत दृष्टि पर काबू पाया जा सकता है।

शांतिदेव के ग्रंथ का अध्याय ६, क्षांति पर केंद्रित है और इस सलाह से प्रारंभ होता है कि उदारता जैसे कार्यों से दीर्घ काल से संचित सभी पुण्य, क्षणमात्र के क्रोध से नष्ट हो जाते हैं। चूँकि हमारी विनाशकारी भावनाओं में स्वेच्छा से परिवर्तन किए जाने की आवश्यकता है, हमें क्रोध और द्वेष के पक्ष और विपक्ष को समझने की जरूरत है। वे बताते हैं कि यदि हृदय में द्वेष का काँटा रहा तो हमें न शांति प्राप्त होगी और न ही आनन्द। वे एक यथार्थवादी और व्यावहारिक सलाह देते हैं कि यदि किसा समस्या का कोई समाधान है, तो चिंता और हताशा का कोई स्थान नहीं है और यदि कोई उपाय नहीं तो चिंता और हताशा से कोई सहायता नहीं मिल सकती। अष्ट लोक धर्म का संदर्भ देते हुए वे कहते हैं कि हम अपने परिवार और मित्र यहाँ तक कि स्वयं भी अपकीर्ति या तिरस्कार नहीं चाहते, पर अपने शत्रुओं के विषय में इसका विपरीत चाहते हैं।

घृणा जैसे वास्तविक दुश्मन पर काबू पाने के लिए साहस वांछित है। इस बीच में हम अहंकार, दया और नम्रता से मुक्त दूसरों के प्रति करुणा की भावना का विकास करते हैं। चूँकि चित्त भौतिक नहीं है, तो अन्य इसका अहित नहीं कर सकते। यद्यपि गाली गलौच के शब्द शरीर को कोई हानि नहीं पहुँचाते, तो चित्त क्यों क्रोधित होता है? यह पुनः अष्ट लोक धर्म पर काबू पाने से संबंधित है। उन पर हम क्यों क्रोधित हों जो हमें दुख पहुँचाते हुए, बुद्ध के समान हमारे प्रति दयालु हैं, क्योंकि वे हमें धैर्य के अभ्यास का अवसर देते हैं। इसके स्थान पर हमें उनके प्रति आभार और करुणा का अनुभव करना चाहिए।

यदि यह आपत्ति उठाई जाती है कि हमारे दुश्मनों का हमारे लिए अच्छा करने का कोई मंतव्य नहीं है, तो औषधि को विश्वास या सम्मान के साथ क्यों देखा जाए जबकि उसका भी हमारा हित करने का कोई मंतव्य नहीं है। ऐसे शत्रुओं के अतिरिक्त कोई और धैर्य का अभ्यास करने का अवसर नहीं देता; इसलिए हम उन्हें सम्मान की भावना के साथ देख सकते हैं। इस जीवन में सौभाग्य, ख्याति और सुख अन्य सत्वों की सहायता करने के परिणामस्वरूप प्राप्त होते हैं। धैर्य के अभ्यास से हम सुन्दर, स्वस्थ, दीर्घायु तथा सुखी रहते हैं।


परम पावन ने श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर दिए। उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्होंने शांतिदेव के अध्याय ६ और ८ के सार की व्याख्या का चयन किया क्योंकि क्रोध से निपटने और एक परोपकारी दृष्टिकोण के उत्पाद के लिए वे जो सलाह दे रहे हैं वे सभी के लिए लाभकारी है, फिर चाहे वे किसी भी धर्म के हों। जब किसी अन्य ने अन्य धािर्मक समुदायों की मंशा और आचरण के बारे में चिंता व्यक्त की, तो परम पावन ने कहा कि केवल एक धर्म और एक सत्य का विचार, अतीत में उचित रहा होगा और आज एक व्यक्ति के लिए उचित हो सकता है। पर जहाँ तक ​​समाज का संबंध है, हमें यह स्वीकारना होगा कि कई धर्म और कई सत्य हैं। उन्होंने कहा कि अंतर्धार्मिक संघर्ष अपर्याप्त संपर्क और समझ के कारण उत्पन्न होते हैं।

उन्होंने आगे कहा कि कुछ समस्याएँ जिनका हम आज सामना कर रहे हैं, और ३०-४० वर्षों के लिए बनी रहेगी, पर यदि हम उनमें संशोधन करने के िलए अभी कदम उठाएँ तो समय रहते स्थितियों में परिवर्तन होगा। यही कारण है कि वह धर्मनिरपेक्ष नैतिकता और इस धारणा को आधार मान कर कि हम सभी एक मानव परिवार से संबंध रखते हैं, सौहार्दता के महत्त्व के विचार को बढ़ावा देते हैं। इस संदर्भ में मतों में अंतर, जाति और राष्ट्रीयता के अंतर गौण हैं। अपने जीवन काल में बुद्ध ने सभी को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने का कोई प्रयास नहीं किया। हमें दूसरों का सम्मान करते हुए अपने स्वयं के धर्म को बनाए रखने की आवश्यकता है।

शिक्षा में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को प्रारंभ करने के पाठ्यक्रम के बारे में, जिसकी चर्चा परम पावन ने की थी, उन्होंने कहा कि वह अभी भी निर्मित हो रहा है। वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों और संबद्ध लोग, अमरीका, यूरोप और दिल्ली में इस पर काम कर रहे हैं। उन्होंने पुष्टि की कि जब यह तैयार हो जाएगा तो इसे उपलब्ध कराया जाएगा और इसे स्कूलों में एक पायलट परियोजना के रूप में चलाया जा सकता है। यदि यह सफल हो जाए तो इसे अधिक व्यापक रूप से लागू किया जा सकता है।

मध्याह्न में परम पावन को दक्षिण मुंबई के सोमैय्या भवन में व्यापार जगत के नेताओं के एक समूह को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया। जैसा वे आमतौर पर करते हैं उसी तरह उन्होंने उनका अभिनन्दन करते हुए कहा:

"भाइयों और बहनों, आप सब से मिलना मेरे लिए एक सम्मान की बात है। हम मनुष्य के रूप में सभी एक समान हैं; हम में से प्रत्येक में एक सच्ची मुस्कान द्वारा विश्वास और खुशी को व्यक्त करने की क्षमता है। निश्चित रूप से आप एक कृत्रिम मुस्कान की शक्ति से भी परिचित होंगे। मैं आपको अपनी रुचियों और प्रतिबद्धताओं के बारे में बताना चाहूँगा।"
 
उन्होंने मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने की अपनी प्रतिबद्धता को समझाया जो कि हर किसी के एक सुखी जीवन जीने की इच्छा और हम में से प्रत्येक की मित्रों की आवश्यकता पर आधारित है। उन्होंने कहा कि दूसरों के हित के लिए चिंता की एक सच्ची भावना का विकास, उस विश्वास का आधार है जो सुख और मैत्री को संभव करता है। यह हमारे अपने स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने पाया है कि निरंतर क्रोध, भय और संदेह हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करता है। उन्होंने कहा:

"आपने अनुभव किया होगा कि यद्यपि आप के पास बहुत धन हो पर यदि आप द्वेष और अविश्वास से भरे हुए हों तो आप दुखी होंगे। दूसरी ओर एक परिवार जो निर्धन है, पर स्नेह से भरा हुआ है, वह संतुष्ट होता है। सौहार्दता और दूसरों के कल्याण की चिंता, सुख के लिए एक शर्त है, फिर चाहे आप धार्मिक हों या नहीं। मात्र एक मनुष्य के रूप में, मैं आप के साथ हमारे आपसी संबंधों में स्नेह के महत्त्व को साझा करना चाहता हूँ। दूसरी ओर एक बौद्ध के रूप में, मेरा विश्वास है कि दार्शनिक मतभेदों के बावजूद, सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएँ प्रेम और करुणा का एक जैसा संदेश देती हैं और इसलिए हमारे सम्मान के योग्य हैं।"

उन्होंने सुझाव दिया कि व्यापार जगत के नेता समाज की बेहतरी के लिए एक महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। उन्होंने संकेत किया कि अभी भी बहुत अधिक लोग गरीबी में रह रहे हैं, कि हमारी भव्य इमारतों के बीच बस्तियों में रहने वाले लोग हैं, जो अभी भी हमारी तरह इंसान हैं। उन्होंने कहा कि धनवानों का गरीबों को शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए सुविधाएँ प्रदान कर और सहायता करने का एक उत्तरदायित्व बनता है, पर साथ ही गरीबों का अपने स्वयं के विश्वास का निर्माण करने और कठोर परिश्रम करने का एक उत्तरदायित्व है।

परम पावन ने सुझाया कि चूँकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, ग्रामीण क्षेत्रों का विकास उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना शहरी विकास। शहरों में, मोटर गाड़ियों की बढ़ती संख्या के साथ सड़कें और फ्लाईओवर निर्मित की जा रही हैं, पर ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पतालों, स्कूलों और उद्योग का प्रावधान भी महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने वहाँ उपस्थित लोगों से कहा कि उन्होंने जो कहा उसके विषय में सोचें ताकि वह मात्र एक इच्छाधारी सोच बनकर न रह जाए।


यह पूछे जाने पर कि क्या लोभ मानव स्वभाव का एक अंग नहीं है और उसे कैसे परिवर्तित किया जाए, परम पावन ने कहा कि संतोष की आवश्यकता के विषय में जागरूकता उत्पन्न कर। उन्होंने ध्यानाकर्षित किया कि एक अरबपति की भी केवल दस उंगलियाँ होती हैं और उनमें से प्रत्येक में हीरे की अंगूठी पहनना अति और अजीब होगा। इसी तरह अमीर आदमी का पेट भिखारी के पेट से बड़ा नहीं है। प्रतिस्पर्धा के विषय में परम पावन ने कहा कि वह दो प्रकार की प्रतिस्पर्धा देखते हैं। प्रतिस्पर्धा, जो अपने प्रतिद्वंद्वियों और विरोधियों को नष्ट करने पर केंद्रित हो, जो अनिवार्य रूप से नकारात्मक है और ऐसी कामना से प्रेरित प्रतिस्पर्धा कि सभी सफल हों। उन्होंने सुझाया कि बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेने की बौद्ध प्रार्थना के संघ अनुभाग में एक प्रकार की प्रतिस्पर्धा और आपसी प्रेरणा शामिल है ताकि सभी को मुक्ति प्राप्त हो।

परम पावन ने सलाह दी कि एक बढ़ती वैश्विक आबादी, धनवानों तथा निर्धनों के बीच की बढ़ती खाई, प्राकृतिक संसाधनों में कमी का सामना करते हुए दूसरों के प्रति चिंता महत्त्वपूर्ण है। जीवन के उद्देश्य के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि यह सुख और संतुष्टि पाने में है।

यह स्मरण करते हुए कि तिब्बती पारम्परिक रूप से भारतीयों को अपना गुरु मानते हैं, परम पावन ने १४वीं सदी के एक तिब्बती आचार्य का उद्धरण दिया जिन्होंने एक छंद लिखा कि यद्यपि बर्फ की भूमि, तिब्बत का प्राकृतिक रंग श्वेत है, पर जब तक भारत से प्रकाश नहीं आया तिब्बत अंधकार में था। उन्होंने उल्लेख किया कि वह जहाँ भी जाते हैं, अहिंसा की भारतीय परम्परा और अंतर्धार्मिक सद्भाव में रहने वाले भारतीयों की प्रशंसा करते हैं। उन्होंने कहा कि वे प्रायः स्वयं को भारत के पुत्र के रूप में संदर्भित करते हैं क्योंकि उनका मस्तिष्क नालंदा परंपरा के ज्ञान से भरा है जबकि लगभग ५५ वर्षों से उनका शरीर भारतीय चावल, दाल और रोटी से पोषित हुआ है।

वहाँ उपस्थित कई लोगों के साथ अपनी तस्वीर खिंचवाने और उनके लिए पुस्तकों पर हस्ताक्षर करने के बाद परम पावन उसी भवन के सेंटर फॉर लर्निंग से जुड़े किताबों की दुकान पर गए और उसके बाद दिन के लिए अवकाश लिया। कल परम पावन धर्मनिरपेक्ष नैतिकता पर एक सार्वजनिक व्याख्यान देंगे और शांतिदेव के ग्रंथ के बचे भागों की व्याख्या पूरी करेंगे।

 

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