परम पावन 14 वें दलाई लामा
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जीवन जीना,प्रेम करना , हँसना और मरना : बौद्ध मार्ग के अनुसार - मुम्बई - दूसरा दिन ३१/मई/२०१४

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मुंबई, महाराष्ट्र, भारत - ३१ मई २०१४ - अपने प्रवचन को प्रारंभ करने से पूर्व आज प्रातः परम पावन दलाई लामा का प्रथम कार्यक्रम सोमैया परिसर के दूसरे भाग में सोमैया विद्यालय का उद्घाटन करना था। उनका स्वागत बच्चों की एक मंडली द्वारा किया गया, जो ड्रम की ताल पर खुशी से नाच रहे थे। उन्होंने द्वार पर एक पट्टिका का अनावरण किया और उन्हें अंदर ले जाया गया। विद्यालय सभागार में बच्चों, अभिभावकों और शिक्षकों के समक्ष, बच्चों ने परिसर प्रार्थना का संस्कृत में पाठ किया और एक अन्य दल ने दक्षिण भारतीय नृत्य का प्रदर्शन किया।


परम पावन ने प्रारंभ किया "युवा भाइयों और बहनों, मैं यहाँ आपके बीच आकर बहुत प्रसन्न हूँ और मैं इस अवसर पर सोमैया परिवार की तीन पीढ़ियों का उनकी मैत्री के िलए धन्यवाद करना चाहता हूँ। शिक्षा के िलए आप जो कार्य कर रहे हैं, उन सबकी मैं सराहना करता हूँ।"  
 
"भारत विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला लोकतांत्रिक देश है, जहाँ विश्व की प्रमुख धार्मिक परंपराएँ शांति और सद्भाव से साथ रहती हैं। लोगों के जीवन में सुधार लाने के लिए हमें और अधिक शिक्षा की आवश्यकता है। सरकारों ने पहल की है पर शायद भ्रष्टाचार के कारण धनराशि अपने इच्छित लक्ष्य तक पहुँच नहीं पाई। इस तरह की निजी संस्थानों की स्पष्ट रूप से एक भूमिका है। मैंने भी देखा है कि विभिन्न संगठनों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में किस प्रकार प्रभावशाली योगदान दिया जा रहा है और मेरा सुझाव है कि उनके बीच और अधिक सहयोग और विचारों का आदान प्रदान बहुत उपयोगी हो सकता है।"

उन्होंने आगे कहा कि चीन अभी तक एक लोकतांत्रिक देश नहीं है, यद्यपि यह बदल रहा है। ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें भारत, चीन के िलए एक उदाहरण स्थापित कर सकता है। कई प्राचीन सभ्यताओं में यह भारत है, जहाँ प्रभावशाली चिंतकों और दार्शनिकों की सबसे बड़ी संख्या है। यहाँ अहिंसा एक लंबे समय से चली आ रही परंपरा है जिसने अंतर्धार्मिक सद्भाव के पोषण का समर्थन किया है।


"जो भी हो, अतीत महान हो सकता है, पर उसे हम केवल दोहरा नहीं सकते, हमें आगे बढ़ना है। भारत को अपने प्राचीन मूल्यों पर आधारित एक भविष्य का निर्माण करना है। इससे न केवल भारत के १.२ अरब नागरिक लाभान्वित होंगे, परन्तु यह एशिया की खुशहाली और व्यापक दुनिया के लिए योगदान देगा। चीन जाग रहा है और भारत को एक सकारात्मक प्रतिस्पर्धा प्रदान कर सकता है। भारत को शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करने और कठोर परिश्रम की आवश्यकता है। आधुनिक शिक्षा अपने आप में पर्याप्त नहीं है; बुनियादी आंतरिक मूल्यों को शामिल करने की भी आवश्यकता है। वैज्ञानिकों के साथ मेरी चर्चा में, मैं नियमित रूप से चित्त और भावनाओं के संबंध में प्राचीन भारत के गहन ज्ञान के मूल्य की प्रशंसा करता हूँ। हमें इससे सीखना होगा कि ईर्ष्या और लालच जैसी नकारात्मक भावनाओं का प्रतिकार करुणा और प्रेम जैसी सकारात्मक भावनाओं के साथ कैसे किया जाए और इस तरह के ज्ञान को शिक्षा के क्षेत्र में कैसे शामिल किया जाए। जिस तरह हम शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए शारीरिक स्वच्छता की शिक्षा देते हैं, उसी तरह हमें भावनात्मक स्वच्छता सिखाने की भी आवश्यकता है।"

परम पावन ने इस बात पर बल दिया कि किस प्रकार हमारी मानव बुद्धि को विनाशकारी भावनाओं, जिन्होंने २०वीं सदी में कई उत्पीड़कों को जन्म दिया, से भटकाया जा रहा है। इसके स्थान पर हमारे लिए महात्मा गांधी का अनुकरण करना बेहतर होगा जिन्होंने प्रेम, करुणा और एक साधारण जीवन जीने पर बल दिया।

"आप युवा लड़के और लड़कियाँ २१वीं सदी के हैं और जैसे आप बड़े होंगे आप को कई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, जैसे पर्यावरण क्षति, जो मेरी पीढ़ी ने २०वीं सदी में निर्मित किया। यहाँ आप में से जो शिक्षक हैं, को इस प्रकार से शिक्षा देनी होगी जो इन बच्चों के चित्त के खोल सके, जो उन्हें केवल जानकारी से भरे नहीं। पहल करने और रचनात्मकता को प्रोत्साहित करने के लिए तर्क और मनोविज्ञान की शिक्षा लाभकारी है। समुदाय के अन्य लोगों के लिए बच्चों को सौहार्दता और उत्तरदायित्व की भावना की शिक्षा आवश्यक है।"


परम पावन के प्रवचनों को एक साथ परिसर के कई छोटे सिनेमाघरों में प्रसारित किया जा रहा है और वे वास्तविक प्रवचन स्थल आते हुए श्रोताओं का अभिनन्दन करने के लिए उनमें से एक में गए। नालंदा के १७ सिद्धों के मंगलाचरण के विषय पर बोलते हुए उन्होंने टिप्पणी की, कि नागार्जुन ने प्रतीत्य समुत्पाद की शिक्षा देने के लिए सदा बुद्ध की प्रशंसा की और उन्होंने भी ऐसा ही किया। अगले श्लोक में उन्होंने नागर्जुन का ही स्मरण किया, जिन्होंने अपने दार्शनिक रचनाओं जैसे उनका प्रमुख ग्रंथ मूलमध्यमाकारिका के अतिरिक्त स्तुति की रचनाएँ की। ४वीं या ५वीं शताब्दी में इनका चीनी में अनुवाद किया गया और इसके तिब्बती भाषा में अनुवाद के पूर्व यह चीन, कोरिया, जापान और वियतनाम में प्रभावशाली था।

आर्यदेव नागार्जुन के प्रमुख शिष्य थे और उन्होंने 'चतुःशतक - शास्त्र - नाम -कारिका' की रचना की। उनके बाद बुद्धपालित आए जिन्होंने मूलशास्त्र का भाष्य 'बुद्धपालितवृत्ति' लिखा जो उन्हीं के नाम पर था। भावविवेक ने अपनी रचना 'तर्कज्वाला' में उन्हें चुनौती दी। इसके पश्चात चन्द्रकीर्ति आए तथा सूत्र और तंत्र के सम्पूर्ण मार्ग पर लिखा। उन्होंने नागार्जुन के विचार पर टिप्पणी की और प्रासंगिक - माध्यमक परम्परा को स्पष्ट किया और साथ ही बोधिसत्व के गहन अभ्यास का भी वर्णन किया। ये शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार' और 'शिक्षा समुच्चय' के भी मुख्य विषय थे।

शांतरक्षित एक महान विद्वान थे, जिन्होंने योगाचार - स्वातांत्रिक - मध्यमक परम्परा को जन्म दिया, जिसने चित्त मात्र और माध्यमक परम्पराओं को संश्लेषित किया। उन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म को संस्थापित किया, ऐसा कार्य जिसमें उनके शिष्य कमलशील ने उनकी सहायता की। कमलशील ने चीनी भिक्षुओं के साथ शास्त्रार्थ किया और घोषणा की, कि अभ्यास का एकमात्र मार्ग, विचार रहित ध्यान था और तिब्बत में 'भावना क्रम' की रचना की। अब तक के ये आचार्य गहन दृष्टि के वंशज हैं। इनके पश्चात व्यापक चर्या के आचार्यों के वंशजों की स्तुति आई। उनमें सर्वप्रथम असंग हैं, जिन्होंने चित्त मात्र परम्परा की स्थापना की, उनके भाई वसुबन्धु थे जिन्होंने अपनी रचना 'अभिधर्मकोष' में बौद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान की रूप रेखा दी। इसके बाद तर्क और ज्ञान - मीमांसा के आचार्य दिङ्ना़ग और धर्मकीर्ति आए। अगले थे वसुबन्धु के छात्र विमुक्तिसेन, जिनके लिए कहा जाता है कि वे अपने गुरु से भी आगे निकल गए और हरिभद्र जिन्होंने मैत्रेय के 'अभिसमयालंकार' और 'प्रज्ञापारमिता' साहित्य पर भाष्य लिखा।


हरिभद्र तक आचार्य, बौद्ध शास्त्र के सूत्र तथा अभिधर्म अंग से संबंधित थे। गुणप्रभा और शाक्यप्रभा ने विनय पर विस्तार से लिखा। अंत में 'बोधिपथ प्रदीप' के रचनाकार दीपांकर अतिश ने विहार के आचरण को पुनर्स्थापित किया और तिब्बती बौद्ध धर्म की सभी चार परंपराओं के विकास को प्रभावित किया।

परम पावन, नागार्जुन की 'रत्नावलि' की ओर लौटे, जिसकी रचना उनके मित्र राजा गौतमीपुत्र के लिए एक पत्र के रूप में की गई थी। प्रथम श्लोक बुद्ध को सभी सत्वों के एकमात्र मित्र के रूप में वर्णित करता है, क्योंकि उन्होंने ही दूसरों का मार्ग प्रशस्त किया था और जिन्होंने स्पष्ट किया कि किस पर काबू पाया जाना चाहिए और किसे अपनाया जाना चाहिए। ये वे ही थे जिन्होंने परोपकार के मार्ग और अपने ही अन्दर शून्यता की समझ का विकास किया। उन्होंने शिक्षा दी कि अभ्युदय और निश्रेयस प्राप्त करने के लिए हमें कार्य - कारण के नियम को समझना होगा, जिससे नकारात्मक कार्यों को नियंत्रित और सकारात्मक का विकास किया जा सके।

मध्याह्न भोजन से लौटने पर परम पावन ने श्रोताओं से सत्र का प्रारंभ प्रश्नों के साथ करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया। पहला यह जानना चाहता था कि जब वे घर पर होते हैं तो अपना दिन कैसे बिताते हैं, उन्होंने उत्तर दिया:

"सबसे पहले एक बौद्ध भिक्षु के रूप में, मैं विनय नियम के अनुसार रहता हूँ। मैं मूलसर्वास्तिवादी परंपरा के २५३ सिद्धांतों का पालन करता हूँ। नालंदा आचार्यों, जिनकी हम पहले चर्चा कर रहे थे, के एक विद्यार्थी के रूप में, जब भी संभव हो तो मैं विशेषकर नागार्जुन, चन्द्रकीर्ति और शांतिदेव के ग्रंथों का पठन और अध्ययन करता हूँ। मैं लगभग नित्यप्रति पठन, चिंतन और ध्यान करता हूँ। मैं प्रातः ३ बजे उठता हूँ और ५ घंटे ध्यान करता हूँ। फिर मैं लोगों से िमलता हूँ और बातें करता हुआ समय बिताता हूँ। शाम ७ या ७.३० बजे मैं सो जाता हूँ। परोपकार के विकास और शून्यता से संबंधित समझ को लेकर मेरा अभ्यास अत्यंत लाभदायी है। मै ७९ वर्ष का हूँ और मैंने अपने जीवन का अधिकांश भाग एक शरणार्थी के रूप में बिताया है, पर मुझे लगता है कि यह काफी उपयोगी रहा है।"

नालंदा विश्वविद्यालय के पुनर्विकास के बारे में उन्होंने समझाया कि १९५६ में जब वे भारत आए थे तो इस परियोजना में आर्थिक योगदान के लिए अपने साथ चाउ एनलाई की ओर से एक चेक लेकर आए थे। १९५९ में भारत आने के पश्चात कोई विशेष प्रगति नहीं हुई जब पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने दिलचस्पी दिखाई। परन्तु कुछ राजनीतिक कारणों से वे पीछे हो गए।

उनसे पूछा गया कि बुद्ध, धर्म और संघ में किस प्रकार शरण लेना चाहिए और उन्होंने उत्तर दिया कि यद्यपि बुद्ध को शिक्षक के रूप में देखा जाता है, असली शरण धर्म है, जिसे हम अपने चित्त में विकसित करते हैं। एक प्रश्नकर्ता जानना चाहता था कि आज 'सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र' को किस प्रकार प्रासंगिक बनाया जाए, और पहले परम पावन वे कहा कि वे उस ग्रंथ से बहुत अच्छी तरह परिचित नहीं थे। उन्होंने कहा कि वह एक विशेष विशुद्ध भूमि में पुनर्जन्म देने के लिए एक पुस्तक की क्षमता या प्रार्थना के एक रूप के बारे में शंकाकुल थे और उन्होंने प्रश्नकर्ता से अन्य पुस्तकों से और अधिक पढ़ने की सिफारिश की।


विपश्यना के संबंध में एक प्रश्न के उत्तर में परम पावन ने समझाया कि चेतना के विभिन्न स्तर हैं, प्रतिदिन की जागरूकता, स्वप्नावस्था, गहरी निद्रा, और बेहोशी और मृत्यु के समय की सूक्ष्म चेतना। उन्होंने उल्लेख किया कि पिछले ५५ वर्षों में कई लामाओं के मामले सामने आए हैं, जिनके शरीर नैदानिक ​​मृत्यु प्रदर्शित होने के बाद भी वैसे के वैसे बने रहे। उन्होंने ठिसुर रिनपोछे का उदाहरण दिया जो उस अवस्था में २३-२४ दिनों के लिए उसी तरह बने रहे, इतना समय कि धर्मशाला को देलेग अस्पताल के प्रशिक्षित लोग वहाँ जाकर शरीर पर उपकरण लगा सकें। उन्होंने जो दर्ज किया उसने, अन्यथा समझने में कठिन, मस्तिष्क की गतिविधियों को स्पष्ट किया जिसे तिब्बती बौद्ध, अत्यंत सूक्ष्म चेतना की निरंतर उपस्थिति के रूप में व्याख्यायित करते हैं जिसे प्रज्ञा को अनुभूत करने में लगाया जा सकता है।

नागार्जुन की 'रत्नावलि' के प्रथम अध्याय की व्याख्या पर पुनः लौटते हुए परम पावन ने बचे १०० श्लोकों का शीघ्रता से सर्वेक्षण किया। उन्होंने भव चक्र, एक ऐसा चित्र जो कि एक शैक्षिक उपकरण के रूप में बुद्ध द्वारा बनवाया गया, के विवरण पर बात की। उन्होंने धुरी पर के सुअर, मुर्गे और साँप जो अविद्या, काम और द्वेष का प्रतिनिधित्व करते हैं, का वर्णन किया, अस्तित्व के छह लोक और धुरी के चारों ओर प्रतीत्य समुत्पाद के द्वाद्वशांग, जिसका प्रारंभ अविद्या से और अंत जरा और मृत्यु के साथ।

जब वह अध्याय के अंत पर पहुँचे तो उन्होंने टिप्पणी की कि यह कठिन है, पर वे १३ वर्ष की आयु से शून्यता की समझ से स्वयं को परिचित करा रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब वह लगभग ३० साल के थे, तो उन्हें ऐसी भावना हुई कि दुख का स्रोत अज्ञान है, पर मुक्ति संभव थी। उन्होंने कहा कि परोपकारिता का विकास बहुत अच्छा है, पर यह अज्ञान का प्रतिकारक नहीं है, केवल शून्यता की समझ ऐसा कर सकती है। उन्होंने कहा कि पिछले साल उनकी भेंट एक अद्भुत स्वामी से हुई, एक ऐसा व्यक्ति जो गरीबों को भोजन देने का महान काम करता है। उसने उनसे कहा कि बौद्ध और हिंदू धर्म जुड़वां भाइयों की तरह हैं, जो नैतिकता, एकाग्रता और ज्ञान के अभ्यास को मानते हैं। अंतर मात्र इतना था कि स्वामी आत्मा में विश्वास रखते हैं और उससे उन्हें लाभ होता है और परम पावन अनात्मा, आंतरिक रूप से विद्यमान आत्मा का अभाव पर विश्वास करते हैं, पर दोनों का ये अपना वैयक्तिक मामला था।

नियोजित कार्यक्रम से एक घंटे अधिक प्रवचन के पश्चात, परम पावन ने अपने श्रोताओं को शुभ रात्रि कहा। वे प्रातः पुनः अपना प्रवचन जारी रखेंगे।

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