परम पावन 14 वें दलाई लामा
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जीवन जीना, प्रेम करना, हँसना और मरना: बौद्ध मार्ग के अनुसार - मुम्बई - प्रथम दिन ३०/मई/२०१४

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मुंबई, भारत - ३० मई, २०१४ - परम पावन दलाई लामा सम्प्रति मुंबई में नालंदा शिक्षा के निमंत्रण पर आए हैं। नालंदा शिक्षा, जो बंगलौर, बीड़, संकिसा और नासिक जैसे दूर दराज के स्थानों से आए भारतीय बौद्ध दलों का समूह है। उन्हें सुनने के लिए २०१२ और २०१३ में धर्मशाला आने के पश्चात, वे पहली बार मुंबई आए हैं, जहाँ इन प्रवचनों का आयोजन, एक उदार शिक्षा संस्था सोमैय्या विद्याविहार द्वारा किया जा रहा है।


आज प्रातः परम पावन ने तिब्बती सांसद, कर्मा येशे द्वारा आयोजित तिब्बती संस्कृति के एक महोत्सव को देखा, जिसमें तिब्बत के इतिहास पर केन्द्रित एक प्रदर्शनी, भैषज्य बुद्ध से संबंधित निर्माणाधीन रेत मंडल तथा तिब्बती चिकित्सा और ज्योतिष संस्था से चिकित्सकों के एक दल से परामर्श करने का अवसर, शामिल हैं।

परम पावन के मंच पर आसन ग्रहण करने के पश्चात कार्यक्रम का प्रारंभ संस्कृत में परिसर की प्रार्थना के पाठ से प्रारंभ हुआ। परम पावन का परिचय कराते हुए सोमैय्या न्यास, जिसका मोटो है, सा विद्या या विमुक्तये, के अध्यक्ष, श्री समीर सोमैय्या ने टिप्पणी की, कि यह उनका तीसरी बार आगमन है। उन्होंने उल्लेख किया कि जब उनके दादाजी ने १९५९ में सोमैय्या विहार शुरू किया तो उनका उद्देश्य था कि कोई भी व्यक्ति चाहे किसी भी पृष्ठभूमि से आता हो, शिक्षा की किसी भी शाखा में अध्ययन कर सकता है। आज एक समग्र शिक्षा प्रदान करने की इच्छा रहती है जो चित्त शोधन में सहयोग कर सके। परम पावन से अपना प्रवचन प्रारंभ करने के अनुरोध से पूर्व उन्होंने धम्मपद को उद्धृत किया कि "एक हज़ार निरर्थक शब्दों को सुनने से अच्छा, एक शब्द सुनना है जिससे शांति प्राप्त की जा सकती है।" परम पावन ने उत्तर देते हुए कहा:

"मैं यहाँ एक बार पुनः आकर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं आपके पिता से मिला हूँ एक अद्भुत व्यक्ति जो अब नहीं है। यह स्वाभाविक है कि नए चेहरे आते हैं और पुराने अदृश्य हो जाते हैं। महत्त्वपूर्ण बात एक सार्थक जीवन जीने की है ताकि हम बिना किसी पछतावे के मर सके। सार्थक का अर्थ केवल धनार्जन और ख्याति कमाना मात्र नहीं है, अपितु दूसरों की सहायता करना है। हम सभी पर अपने मानव भाइयों और बहनों की सहायता करने का उत्तरदायित्व है। आप यहाँ शिक्षा के जो अवसर और विभिन्न शैलियाँ प्रदान करते हैं, मैं वास्तव में उसकी सराहना करता हूँ।"

उन्होंने कहा कि चूँकि वह बुद्ध के उपदेशों की व्याख्या करने वाले हैं, वे पालि में 'मंगल सुत्त' और तत्पश्चात 'महान विलक्षण नालन्दा के सत्रह सिद्ध पण्डितों के प्रति श्रद्धा' का पाठ तिब्बती, हिन्दी और अंग्रेज़ी में साथ साथ करते हुए प्रारंभ करना चाहेंगे। उन्होंने उस प्रार्थना की पुष्पिका से उद्धृत किया कि उन्होंने उसकी रचना क्यों की थी ः 'वर्तमान समय में जब साधारण विश्व में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बहुत अधिक विकास हुआ है, पर अपने जीवन की व्यस्तता के कारण हमारा चित्त विचलित हो जाता है, यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि जो बुद्ध के अनुयायी हैं वे उन की शिक्षाओं के ज्ञान के आधार पर श्रद्धालु हों। इसलिए, हम उन्हें निकट से विश्लेषण कर, एक निष्पक्ष और जिज्ञासु मन से इसके कारणों की जाँच करनी चाहिए।'


"बुद्ध ने जो शिक्षा दी है उसके संपूर्ण ज्ञान के साथ हमें २१वीं सदी का बौद्ध बनना है। केवल आँखें बन्द कर शरण सूत्र पढ़ लेना पर्याप्त नहीं है, हमें यह जानना होगा कि इसका क्या अर्थ है। बुद्ध का सम्मान क्यों किया जाता है? उनके आचरण और ज्ञान के कारण। हम केवल उनके प्रेम भरे मुख पर निर्भर नहीं रह सकते, हमें उनकी शिक्षाओं का परीक्षण करना होगा। एक बौद्धिक दृष्टिकोण से बुद्ध की शिक्षाएँ अद्भुत है, पर इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हम उसे अपनी भावनाओं को परिवर्तित करने में लगाएँ। ऐसे अभ्यास के द्वारा कई जीवनों के बाद उन्हें प्रबुद्धता मिली।"

परम पावन ने कहा कि जब हम शिक्षाओं का परीक्षण करें तो उसकी जाँच बिना पूर्वाग्रह के करें। उन्होंने कहा कि हमें एक हद तक शंकालु होने की आवश्यकता है, जो प्रश्नों को जन्म देता है, जिससे परीक्षण की उत्सुकता आती है, जिनसे फिर उत्तर मिलते हैं। नालंदा के महान आचार्यों का यही दृष्टिकोण था। साधारणतया बौद्ध धर्म और विशेषकर नालन्दा परम्परा तर्क के प्रयोग पर बल देती है। परम पावन ने कहा कि नालंदा आचार्यों द्वारा लिखित ग्रंथ अत्यंत उपयोगी हैं और उन्होंने स्वयं सात वर्ष की आयु से उनसे सीखना प्रारंभ किया। उन्होंने कहा कि जब १९वीं और २०वीं सदी में पाश्चात्य लेखकों ने तिब्बती बौद्ध धर्म को लामावाद कहते हुए खारिज कर दिया, तो उन्होंने उसके वास्तविक मूल्य को अनदेखा किया था। वे उसके दर्शन और ज्ञान -मीमांसा, या बौद्ध तंत्र की सूक्ष्मता के उपयोग की सराहना करने में असमर्थ थे।

तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रारंभ ८वीं शताब्दी में तिब्बती सम्राट द्वारा आमंत्रित नालंदा के एक शीर्ष विद्वान शांतरक्षित द्वारा हुआ। उन्होंने ३०० से अधिक बौद्ध साहित्य, जिसमें अधिकतर संस्कृत, पर पालि तथा चीनी भाषाओं के संस्करणों के अुनवाद का कार्य प्रारंभ किया। तिब्बतियों ने अत्यंत परिश्रम से इन ग्रंथों का अध्ययन किया और अंत में स्वयं टीकाओं की रचना की। जब दीपांकर अतिश ११वीं शताब्दी में तिब्बत आए, तो देश खंडित था पर फिर भी उनके प्रभाव को जो नालंदा से जुड़ा हुआ था, गहन तथा व्यापक रूप से अनुभूत किया गया। परम पावन ने उल्लेख किया कि ये प्राचीन भारतीय, तिब्बतियों के गुरु थे और शिष्यों के रूप में तिब्बतियों ने स्वयं को विश्वसनीय प्रमाणित कर दिया है। उन्होंने उन मूल्यों और अभ्यासों को, जो उनके अपने देश में विस्मृत हो चुके थे, जीवंत बनाए रखा और अब वे उन्हें पुनः लौटा लाए।

"हमें आंतरिक शांति की आवश्यकता क्यों है? क्योंकि एक बात यह है कि हमारे स्वास्थ्य के लिए, एक शांत चित्त महत्त्वपूर्ण है। निरंतर भय, क्रोध और तनाव हमें रोगी बना सकते हैं। सभी सत्व एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं, परन्तु कई, जानवरों और पक्षियों की तरह, केवल एक ऐन्द्रिक स्तर पर उसे खोजते हैं। उनकी बुद्धि सीमित है पर फिर भी वे स्नेह और दयापूर्ण शब्दों से प्रभावित होते हैं। हम मनुष्यों के पास बुद्धि है जो हमें भविष्य में झाँकने तथा अतीत का स्मरण करने की अनुमति देता है। हमने भाषा और लेखन का आविष्कार किया, पर हमने श्रद्धा को भी विकसित किया।"


परम पावन ने समझाया कि ईश्वरवादी संदर्भ में एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास रहता है, परन्तु गैर आस्तिक संदर्भ में कार्य - कारण भाव में विश्वास है। अतीत में दोनों दृष्टिकोण मानवता के लिए महान रूप से लाभकारी रहे हैं और भविष्य में भी यह निरंतर रहेगें। जो ये विश्वास करते हैं कि उनका सृजन ईश्वर ने किया है, वे प्रत्येक में ईश्वर की छवि देखते हैं। दूसरी ओर बौद्ध हर किसी में तथागतगर्भता होने की बात करते हैं। गैर आस्तिक परंपराओं में अपने स्वयं के प्रयास पर अधिक बल है। यदि हम सकारात्मक कर्म करते हैं, तो हमें सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। वे कर्म जो आनंद देते हैं, हम उन्हें सकारात्मक मानते हैं, वे कर्म जो दुख भड़काते हैं, हम उन्हें नकारात्मक मानते हैं। परम पावन ने कहा:

"मेरे कुछ मित्र जो डॉ. अम्बेडकर के अनुयायी हैं, उन्हें 'कर्म' शब्द अरुचिकर है क्योंकि यह प्रमुख जातियों द्वारा जाति व्यवस्था का औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त होता है। कुछ आलसी और पराजित तिब्बती भी हैं, जो ये कहते हैं कि चूँकि सब कुछ कर्म पर निर्भर है, तो करने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता। परन्तु हमें और अधिक प्रबल कर्म जनित करने के लिए कार्य करना होगा, जिससे हम अपने नकारात्मक कर्मों को निष्प्रभावित कर सकते हैं। प्रबल सकारात्मक कार्य पहले के नकारात्मक कर्मों को परिपक्व होने से रोक सकता है। यह निर्भर करता है कि हम क्या करते हैं और इसलिए बुद्ध ने कहा कि हम स्वयं अपने स्वामी हैं।"

"हम बौद्ध, शरीर और चित्त से पृथक आत्मा में विश्वास नहीं करते। हम कहते हैं कि यद्यपि कोई स्वतंत्र आत्मा नहीं है, पर शरीर और चित्त पर निर्भर एक आत्मा का अस्तित्व है।"

कुछ लोग बौद्ध धर्म को एक धर्म के रूप में इतना नहीं पर अधिकतर चित्त के विज्ञान के रूप में वर्णित करते हैं। वास्तव में वे भारतीय परंपराएँ जो एकाग्रता और अंतर्दृष्टि को प्रशिक्षित करती हैं, के पास चित्त के प्रकार्यों की निधि है। इस बीच माध्यमक और क्वांटम भौतिकी एक समान दृष्टिकोण अपनाते हैं। भारतीय परमाणु भौतिकविद् राजा रामण्णा ने एक बार परम पावन को बताया कि जब उन्होंने नागार्जुन को पढ़ा और उसमें क्वांटम भौतिकी के दृष्टिकोण की प्रतिध्वनि सुनी तो उन्होंने गर्व का अनुभव किया। वे भावनाएँ जो हमारे आंतरिक शांति को नष्ट करती हैं, उनसे निपटने की जानकारी की भी सम्पदा है।

एक अलग विषय पर बोलते हुए परम पावन ने कहा कि भारत में प्रमुख धार्मिक परंपराएँ एक लंबे समय से साथ साथ रही हैं। उन्होंने श्री आडवाणी को उद्धृत करते हुए कहा कि भारत में अहिंसा और दूसरों के अधिकारों और विचारों के प्रति सम्मान होने के कारण लोकतंत्र सफल हुआ है। उन्होंने अपना विश्वास बनाए रखते हुए, दूसरों के विश्वास का सम्मान करने की सराहना की। अंतर्धार्मिक सद्भाव एक दीर्घकालीन भारतीय परंपरा है और एक जीवंत उदाहरण है कि यह संभव है। परम पावन ने कहा कि जब भी वे विदेश यात्रा पर जाते हैं तो स्वयं को भारत का संदेशवाहक मानते हैं।


यदि नैतिकता मात्र एक धार्मिक परंपरा पर निर्भर हो तो उसका प्रभाव सीमित होगा, जबकि नैतिकता को ७ अरब मनुष्यों के लिए सुलभ होना चाहिए, जिनमें ऐसे १ अरब लोग शामिल हैं जो किसी धर्म को नहीं मानते। उन्होंने कहा कि इसलिए हमें धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की एक प्रणाली की आवश्यकता है और उल्लेख किया कि धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का एक कार्यक्रम स्कूलों में प्रयोग के लिए तैयार किया जा रहा है।

मध्याह्न भोजन के अंतराल के पश्चात परम पावन ने पुनः प्रारंभ किया, यह स्पष्ट करते हुए कि कुछ, ईसाई और मुस्लिम मित्रों ने विरोध किया है कि धर्मनिरपेक्षता, नास्तिकता, धर्म विरोधी जैसी प्रतीत हो सकती हैं। उसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय समझ के अनुसार एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण वह है, जो भी सभी धार्मिक परंपराओं का सम्मान करता है और उनका भी जो किसी में विश्वास नहीं करते। उन्होंने जारी रखा:

"यदि हम सच्चे, ईमानदार और दूसरों के कल्याण के प्रति सच्ची चिंता, उनके प्रति सम्मान की भावना रखते है, तो वहाँ धमकाने, शोषण करने या धोखा देने का कोई स्थान नहीं होता। एक अधिक करुणाशील चित्त अपने साथ आत्मविश्वास लाता है जो ईमानदारी, सच्चाई और पारदर्शिता को जन्म देता है। इसलिए, धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का वास्तविक अर्थ, सौहार्दता की भावना है। यह आवश्यक नहीं है कि यह सौहार्दता किसी धार्मिक विश्वास से आता हो, अपितु यह स्नेह की हमारी नैसर्गिक भावना से आता है। उदाहरणार्थ कुत्ते और बिल्ली सच्चे स्नेह को समझते हैं। वे अपने ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। जैसे यद्यपि कुत्ते मुस्कुरा नहीं सकते पर वे अपनी दुम हिलाते हैं, जबकि बिल्लियाँ म्याऊँ करती हुई अपने पंजे पीछे करती हैं।"

हम सभी अपने अस्तित्व के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं, अतः हमें स्नेह की आवश्यकता है। परन्तु यह जैविक कारक केवल मित्रों और सगे संबंधियों पर लागू होता प्रतीत होता है। यह समझने के लिए हमारी बुद्धि की आवश्यकता होती है कि एक दुश्मन भी एक मनुष्य, एक मानव भाई या बहन होता है, जिसके प्रति हम प्रेम और करुणा बढ़ा सकते हैं। केवल मनुष्य ऐसा कर सकते हैं। परम पावन ने समझाया कि करुणा सुख का स्रोत है, जबकि आत्मकेन्द्रिता अंततः हिंसा की ओर ले जाती है। यह उल्लेख करते हुए कि कई मामलों में भ्रष्टाचार भी हिंसा का एक रूप है, उन्होंने सलाह दी कि अहिंसा के अभ्यास में ईमानदार और सच्चे होने को भी शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमारे कार्यों की गुणवत्ता, फिर वे सकारात्मक हों या नकारात्मक, हमारी प्रेरणा पर निर्भर करती है। इसी कारण हमें अपने चित्त को परिवर्तित करने की आवश्यकता है।

बुद्ध की शिक्षा के संबंध में, उन्होंने एक अनुरोध के प्रत्युत्तर में शिक्षा दी। वाराणसी में उन्होंने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी, प्रकृति के संदर्भ में उन्हें तीन बार समझाया - कि दुख है, उसका कारण, निरोध और मार्ग, प्रकार्य के संदर्भ में - कि हमें दुख को जानना चाहिए, उसके हेतुओं पर काबू पाना चाहिए और मार्ग का अनुशीलन करते हुए निरोध प्राप्त करना चाहिए, और परिणाम के संदर्भ में - हेतुओं को नष्ट करने के बाद, दुख पर काबू पाया जा सकता है, मार्ग का अनुशीलन कर हम निरोध को प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि दुख को समझने के पश्चात कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता, हेतुओं को नष्ट करने के बाद, कुछ नष्ट करना शेष नहीं रह जाता, निरोध प्राप्ति के बाद कोई और प्राप्ति शेष नहीं रह जाती, तथा मार्ग का विकास करने के बाद, कुछ और विकसित करना नहीं रह जाता।


परम पावन ने अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक के अवलोकन पर ध्यान आकर्षित किया कि जब हम किसी बात पर क्रोधित होते हैं या किसी वस्तु से जुड़ते हैं, तो हमें लगता है कि क्रोध या जुड़ाव की वह वस्तु पूरी तरह से नकारात्मक या आकर्षक है, परन्तु इस का ९०% हमारा अपना मानसिक प्रक्षेपण है। उन्होंने टिप्पणी की, कि यह जो नागार्जुन के शिक्षण से मेल खाता है।

उन्होंने कहा कि दुख अज्ञान पर आधारित है। कार्य कारण के अज्ञान का मूल, वास्तविकता का अज्ञान है। जहाँ प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन का संबंध चार आर्य सत्यों से था, दूसरे का संबंध वास्तविकता की प्रकृति और तीसरे का स्पष्टता और जागरूकता से था। चित्त की प्रकृति के कारण हम अपने क्लेशों को समाप्त कर सकते हैं, उसके कारणों को नष्ट कर दुख दूर कर सकते हैं, और मार्ग का पालन कर निरोध को प्राप्त कर सकते हैं।

परम पावन ने श्रोताओं के कई प्रश्नों के उत्तर दिए, जिनमें एक सलाह का अनुरोध भी था कि ध्यान किस प्रकार किया जाए। उन्होंने कमलशील के 'भावनाक्रम' पढ़ने का सुझाव दिया। क्रोध पर काबू पाने के विषय पर उन्होंने शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार' के अध्याय ६ का अध्ययन करने की सलाह दी। और अंततः यह पूछे जाने पर कि क्या अहिंसा का आचरण हमें यह नहीं सुझाता कि हमें शाकाहारी होना चाहिए, उन्होंने श्रीलंका के एक भिक्षु को उद्धृत किया, कि चूँकि एक बौद्ध भिक्षु, भिक्षा पर निर्भर रहता है, और उसका कोई रसोईघर नहीं होता, उसे जो भी दिया जाए वह उसे स्वीकार करना पड़ता है। अतः न वह शाकाहारी है और न ही मांसाहारी। ऐसा कहने के बाद परम पावन ने कहा कि तिब्बती समुदाय में विहारों और स्कूलों में मुख्य रसोई अब आम तौर पर शाकाहारी है। उन्होंने स्वीकार किया कि यद्यपि वह शाकाहारिता को प्रोत्साहित करते हैं, पर स्वास्थ्य कारणों से, तिब्बती और आयुर्वेदिक चिकित्सकों की सलाह पर वह स्वयं एक पूर्ण से शाकाहारी आहार बनाए रखने में असमर्थ रहे हैं।

परम पावन का प्रवचन कल जारी रहेगा।

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