परम पावन 14 वें दलाई लामा
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तिब्बतियों के साथ बैठक और युवा और पुरानी पीढ़ी के साथ धर्म नैतिकता पर चर्चा १५/मई/२०१४

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फ्रैंकफर्ट, जर्मनी - १५ मई २०१४ - परम पावन दलाई लामा ने आज आधुनिक कला के प्रतिष्ठित संग्रहालय, जो अपने त्रिकोणीय आकार के कारण, 'केक का टुकड़ा' कहा जाता है, में स्थानीय तिब्बतियों के साथ एक बैठक की। उन्होंने विशिष्ट उत्साहित रूप से प्रारंभ िकया ः


"आप सभी को अभिनन्दन। हम बर्फ की भूमि से आए तिब्बती हैं; एक विशिष्ट लोग। अमदो में हुए पुरातत्व खोज से ३०,००० वर्ष पूर्व वहाँ लोगंों के होने का संकेत देते हैं। एक चीनी पुरातत्वविद्, जिनसे कई वर्षों पूर्व मैं हार्वर्ड विश्वविद्यालय में चुपचाप मिला था, ने मुझे प्रमाण दिखाए जो सरकारी चीनी कथन के बिलकुल विपरीत थे कि तिब्बती सभ्यता चीन से जन्मी। उनकी खोज ने यह बताया कि इसका प्रादुर्भाव तिब्बत में हुआ। हमारी अपनी भाषा और लिपि है जो विश्व के दस सबसे प्राचीनतम में से एक है।"
परम पावन ने कहा कि ७वीं शताब्दी के दौरान, थोनमी सम्भोट ने वर्तमान तिब्बती लिपि का विकास किया और कहा जाता है कि उन्होंने तिब्बती व्याकरण की आठ से अधिक पुस्तकों की रचना की, यद्यपि इस समय केवल दो ही उपलब्ध हैं। उन्होंने कहा कि जैसे जैसे तिब्बतियों ने संस्कृत से बौद्ध साहित्य का अनुवाद करना प्रारंभ किया तिब्बती भाषा विकसित होती गई। इसमें प्रायः विशिष्ट प्रयोजनों के लिए नए शब्दों का निर्माण करना पड़ा, जिसका अर्थ है कि अनुवाद विशेष रूप से सटीक और सही हैं। यद्यपि प्रज्ञापारमिता ग्रंथ चीनी में उपलब्ध हैं, वे सटीक नहीं हैं, और उनको समझना अधिक कठिन है। एक उदाहरण के रूप में हृदय सूत्र के तिब्बती पाठ में 'भी' शब्द का समावेश है जो मूल संस्कृत में मौजूद है, पर चीनी पाठ से लापता है। यह स्पष्ट करता है कि न केवल व्यक्ति स्वभाव निहित है, पर चैतसिक और शारीरिक स्कन्ध भी इसी प्रकार हैं।

पिछले ३० वर्षों में उनकी आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ हो रही चर्चाओं का उल्लेख करते हुए परम पावन ने कहा, कि प्रारंभ में उन्होंने बड़े विश्वास के साथ घोषित किया कि चित्त मस्तिष्क का केवल प्रकार्य था। न्यूरोप्लास्टिसिटि की खोज ने दिखा दिया है कि चित्त में परिवर्तन के अनुसार मस्तिष्क बदल सकता है। पर वह वयस्क मानव मस्तिष्क के बारे में निकाले गए निष्कर्ष से असहमत हैं, जो कि बच्चों या पशुओं के मस्तिष्क पर किए प्रयोगों से तैयार हुए हैं।

उन्होंने बौद्ध परंपरा में पाए जाने वाले चित्त तथा भावनाओं के समृद्ध ज्ञान का संदर्भ दिया, जो कि नालंदा विश्वविद्यालय और ज्ञान - मीमांसा और तर्क के अध्ययन के महत्त्वपूर्ण महत्त्व से आया है, जिसने अध्ययन और जाँच के उपकरण उपलब्ध कराए हैं। तिब्बती बौद्ध परंपरा एक मात्र परम्परा है जो तर्क का उसी रूप में प्रयोग करती है जैसा नालंदा में किया जाता था। यह प्रशिक्षण वैज्ञानिक ज्ञान को आत्मसात करने में तिब्बती भिक्षुओं की क्षमता के लिए, जिनमें परम पावन भी शामिल हैं, महत्त्वपूर्ण रहा है। अब स्कूलों में भी तर्क और बहस प्रभावशाली रूप से प्रयोग में लाया जा रहा है।

परम पावन ने उल्लेख किया कि एक समय का शक्तिशाली तिब्बत ९वीं शताब्दी में खंडित हो गया पर जिसने तिब्बतियों को सदियों से जोड़ कर रखा है वह तिब्बती बौद्ध धर्म है। इस निरंतरता का एक और अंग राजनैतिक उत्तरदायित्व है जो परम पावन ने तगडग रिनपोछे से प्राप्त की जब वे १६ वर्ष के थे और जिसे उन्होंने २०११ में सिक्योंग, र्निवाचित तिब्बती नेता को दे दी जब वे पूर्ण रूप से सेवानिवृत्त हुए। परम पावन ने लोकतंत्र में विश्वास व्यक्त किया और प्रत्येक तिब्बती का आह्वान करते हुए अपने आचरण के प्रति जागरूक बने रहने को और अपने देशवासियों के सुनाम को किसी भी प्रकार से खराब न करने को कहा।

तिब्बत हाउस जर्मनी के अनुरोध पर बाकी के दो कार्यक्रम जिनमें परम पावन ने भाग लिया, वे सेंट पॉल चर्च - पॉलस्कर्श, जो प्रतीकात्मक महत्त्व का एक भवन है, में आयोजित की गई थी। इसका प्रारंभ १७८९ में एक लूथरवादी चर्च के रूप में हुआ था। १८४९ तक, यह फ्रैंकफर्ट संसद, सार्वजनिक रूप से पहली और स्वतंत्र रूप से निर्वाचित जर्मन विधायी निकाय का स्थान बन गया था। १९४४ में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, चर्च नष्ट हो गया था। स्वतंत्रता के प्रतीक को एक श्रद्धांजलि के रूप में और जर्मनी के पालने के रूप में, युद्ध के बाद पुनर्निर्माण शहर फ्रैंकफर्ट में यह पहली संरचना थी। इस अंडाकार चर्च के भवन में परम पावन ने प्रातः युवा छात्रों से भेंट की और मध्याह्न में एक बिशप और दार्शनिक जिनके साथ उन्होंने धर्मनिरपेक्ष नैतिकता पर चर्चा की।


प्रातः परम पावन का स्वागत फ्रैंकफर्ट के लार्ड मेयर, पीटर फेल्डमान द्वारा किया गया जिन्होंने बताया कि फ्रैंकफर्ट कई धर्मों और कई भाषाओं का एक सहिष्णु, बहु - सांस्कृतिक समाज है। ऐसे वातावरण के भीतर तिब्बत हाउस, नगर के जीवन में एक प्रमुख रचनात्मक योगदान करता है। परम पावन ने उत्तर दिया:

"आदरणीय बड़े भाई और छोटे भाइयों और बहनों, एक मनुष्य के रूप में मैं यहाँ आकर बहुत खुश हूँ। जब भी मैं इस तरह के युवा भाइयों और बहनों से मिलता हूँ, तो मैं भी युवा अुनभव करता हूँ। जब मैं अधिक आयु के लोगों से मिलता हूँ तो यह सोचता हूँ कि ​​हममें से कौन पहले जाएगा। जहाँ मैं २०वीं सदी की पीढ़ी का हूँ, ये युवा स्पष्ट रूप से २१वीं सदी के हैं। अतीत, अतीत है और परिवर्तित नहीं जा सकता। परिवर्तन की संभावना मात्र भविष्य में निहित है। चूँकि २०वीं सदी हिंसा और विनाश की विशिष्टता लिए हुए है, जिस दौरान, एक अनुमान के अनुसार २०० लाख लोग मारे गए, हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि २१वीं सदी और अधिक शांतिपूर्ण हो।"

छात्रों से प्रश्नों के उत्तर में, परम पावन ने मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी के रूप में संदर्भित किया जिसमें स्नेह की क्षमता जन्मजात है। स्नेह और करुणा की यह स्वाभाविक क्षमता कम होने लगती है क्योंकि आधुनिक शिक्षा प्रणाली आंतरिक मूल्यों की वृद्धि के स्थान पर भौतिकवादी लक्ष्यों की ओर उन्मुख है। उन्होंने कहा, कि यद्यपि सभी धार्मिक परंपराएँ नैतिकता पर आधारित हैं, अतः हमें आज ऐसी नैतिक प्रणाली की आवश्यकता है जो सब को सम्मिलित कर सके जो कि धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का लक्ष्य है।

एक छात्र ने परम पावन से उनके सबसे सुंदर पल के क्षण के बारे में पूछा और उन्होंने कहा कि एक मनुष्य के रूप में सौहार्दता का विकास श्रेष्ठ है, जबकि एक बौद्ध के रूप में अनंत परोपकारिता विकसित करने का कार्य उन्हें परम संतोष प्रदान करता है। इस विषय के क्रम में उन्होंने कहा:

"वैज्ञानिकों ने यह स्थापित कर दिया है कि निरंतर क्रोध और भय हमारा अहित करते हैं, जबकि एक शांत मन आत्मविश्वास को जन्म देता है। करुणा भी आंतरिक शक्ति और विश्वास लाती है जो विश्वास और मैत्री को आकर्षित करते हैं।"

जब उनसे पूछा गया कि यूक्रेन में कठिनाइयों को किस प्रकार हल किया जा सकता है, परम पावन ने कहा कि इस पर टिप्पणी करने के लिए उनके पास पर्याप्त सूचना नहीं थी। पर उन्होंने कहा:

"हिंसा और इसके अप्रत्याशित परिणाम संकट लाते हैं। आप एक छोटे से बल प्रयोग के बारे में सोचते हैं पर वह बढ़ता जाता है। हिंसा लोगों को शारीरिक रूप से नियंत्रित कर सकती है, पर यह हृदयों और चित्त को जीत नहीं सकती और भय, क्रोध और घृणा छोड़ जाती है।"

मध्याह्न में परम पावन ने 'एथिक्स बियोंड रिलिजियन' (धर्म से परे नैतिकता) विषय पर एक परिचर्चा में भाग लिया जिसका परिचय, गर्नबर्ग, राज्य सरकार के एकीकरण विभाग के प्रमुख डॉ. एस्कांडेरि ने दिया। साथी प्रतिभागी थे, दार्शनिक रेनर फॉर्स्ट और बिशप, स्टीफ़न एकरमैन, जिन्होंने स्वाभाविक रूप से अपनी प्रस्तुति जर्मन भाषा में की। चर्चा का संचालन गर्ट स्कोबल ने किया। जहाँ चर्चा दर्शन और धर्मशास्त्र की झाड़ियों में इधर उधर होती हुई मुड़ी, परम पावन ने टिप्पणी की:


"एक व्यावहारिक स्तर पर, भारत विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले लोकतांत्रिक देश में रहते हुए, विगत ५५ वर्षों में मैंने देखा है कि एक बहु - धार्मिक, बहु - सांस्कृतिक समाज होने के बावजूद, संविधान में सन्निहित, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण, यह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अभूतपूर्व रूप से स्थिर रहा है। कोई भी यह नहीं मानता कि भारत की धर्मनिरपेक्षता धर्म विरोधी है। मेरा दृष्टिकोण वैज्ञानिक निष्कर्ष और सामान्य ज्ञान की ओर देखना है। वो कार्य जो स्वयं और दूसरों को सुख देते हैं सकारात्मक हैं, जबकि वे कार्य जो स्वयं और दूसरों के दुख का कारण हैं, वे नकारात्मक हैं। इस संदर्भ में दूसरों के हितार्थ एक करुणाशील चिंता धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का आधार है।"

कल प्रातः एक संक्षिप्त व्याख्यान देने के बाद, परम पावन लातविया, नॉर्वे, नीदरलैंड और जर्मनी की एक सफल और सार्थक यात्रा के समापन पर भारत लौटने के लिए रवाना होंगे।

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