परम पावन 14 वें दलाई लामा
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परम पावन दलाई लामा की टोक्यो में भारतीयों, चीनी और सोतोशु भिक्षुओं से भेंट १६/अप्रैल/२०१४

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 टोक्यो, जापान - १६ अप्रैल २०१४ - कल शाम टोक्यो में आ चुके, परम पावन दलाई लामा की कई विभिन्न समुदायों के लोगों के साथ बैठकें थी। पहला भारत से व्यावसायिक लोगों का एक समूह था। उन्होंने यह कहते हुए प्रारंभ किया कि किस प्रकार वे सम्पूर्ण विश्व में भारत की, उसके धार्मिक सद्भाव और किस तरह विभिन्न धर्म, कुछ जिनका उद्गम भारत में हुआ है और कुछ जो बाहर देश से आए हैं, साथ साथ शांतिपूर्ण ढंग से जीते हैं, की प्रशंसा करते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि वे जहाँ भी रहें, विदेशों में निवास कर रहे भारतीय समुदाय को इसे और बढ़ाना चाहिए। २१वीं सदी में भारत का धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का उदाहरण पूरे विश्व में और अधिक प्रासंगिकता रखता है। अपने मेजबान देश की प्रशंसा अभिव्यक्त करते हुए उन्होंने कहा:

"पिछले ५५ वर्षों से भारत मेरा घर रहा है। मैं अपने आप को भारत का एक पुत्र मानता हूँ। मेरा सारा ज्ञान भारत से लिया गया है। मेरा मस्तिष्क नालंदा विचार से भरा हुआ है। इस का महत्त्व जे चोंखापा द्वारा वर्णित किया गया था, जिन्होंने एक पद की रचना की कि: 'बर्फ की भूमि में, बर्फ धवल चमकीला है, पर फिर भी भारत के प्रकाश के इस धरा तक पहुँचने तक, तिब्बत अंधकार से ढँका था।'"

परम पावन ने आगे कहा, कि पिछले ५५ वर्षों में उनका शरीर भारतीय दाल और रोटी द्वारा पोषित हुआ है। और तो और, जब से ८वीं शताब्दी में शांतरक्षित ने तिब्बत को बौद्ध धर्म से परिचय कराया, दीर्घ काल से तिब्बतियों ने भारत को अपने गुरु के रूप में और स्वयं को शिष्यों के रूप में माना है। उन्होंने उल्लेख किया कि कुछ पाश्चात्य लेखक तिब्बती बौद्ध धर्म को लामावादी कहकर संदर्भित करते हैं, जो गलत है। यह वास्तव में नालंदा विश्वविद्यालय की विशुद्ध परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। यह मात्र धर्म का विषय नहीं है, अपितु दर्शन और तर्क का भी है। उन्होंने कहा कि वह इतना तक कहेंगे कि बुद्ध एक वैज्ञानिक थे जिन्होंने अपने अनुयायियों को चित्त के साथ परीक्षण करने और प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया।



"आज मैं आशा करता हूँ कि भारतीयों की युवा पीढ़ी प्राचीन भारतीय साहित्य में निहित चित्त और भावनाओं के ज्ञान की ओर अधिक ध्यान देगी तथा अपनी आधुनिक शिक्षा के गुणों के साथ उन्हें जोड़ेगी। मैं कभी कभी अपने भारतीय मित्रों से शिकायत करता हूँ कि मंदिर बहुत हैं पर पर्याप्त शिक्षा के केन्द्र नहीं है। परन्तु मैं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लगभग ७० वर्षों में, दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या वाले लोकतंत्र भारत के विकास को देख प्रभावित हूँ। क्या नेहरू ने भारत की तुलना एक हाथी से नहीं की, जिसे खड़े होने में समय लग सकता है, किन्तु एक बार ऐसा करने पर सशक्त तथा और स्थिर रहेगा?"

जब इस समूह ने कहा कि वे केवल परम पावन का आशीर्वाद चाहते थे, तो उन्होंने वही कहा जो उन्होंने मुंबई के एक धनी परिवार से कहा था जिन्होंने यही माँगा था। उन्होंने कहा कि उनके पास उन्हें देने के लिए ऐसा कुछ नहीं था, पर आशीर्वाद का स्रोत उनके अपने हाथों में था। वे धनवान थे और मुंबई में रहते थे जहाँ हज़ारों निर्धन और बेघर हैं। उन्होंने कहा कि यदि वे अपने धन के कुछ हिस्से को जरूरतमंदों की स्वास्थ्य और शिक्षा की सहायता में लगाएँ तो वे अपना आशीर्वाद स्वयं ही निर्मित कर लेंगे।

***

दूसरा दल, जिनसे परम पावन आज मिले, वे चीनी थे और उन्होंने उनका हार्दिक अभिनन्दन किया और स्मरण दिलाया कि आज चीन में विश्व के बौद्धों की सबसे बड़ी संख्या है। पीकिंग विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार यह संख्या ३०० अरब से अधिक है जिनमें से अधिकांशतः शिक्षित लोग हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री शी जिनपिंग ने बौद्ध धर्म को चीन के महत्त्वपूर्ण परंपराओं में से एक होने की घोषणा की है। यह महत्त्वपूर्ण है कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चार पुराने के विरुद्ध अभियान के समय बौद्ध धर्म को नष्ट करने के प्रयासों के बाद, चीनी नेताओं की पांचवीं पीढ़ी अब इसके महत्त्व को स्वीकार करते हैं।

"आज, चीन में धनवानों और निर्धनों के बीच एक बड़ा अंतर है। मैं गाँवों के किसानों से मिला हूँ जो बताते हैं कि उनकी कितनी कठिनाइयाँ हैं और उनकी सहायता करने के िलए कोई नहीं है। स्थानीय अधिकारियों को केवल अपने पैसे और सत्ता की ही चिन्ता है। इसलिए जब तीसरे प्लेनम के दौरान शी जिनपिंग ने कृषकों की आवश्यकता तथा चीनी न्यायपालिका में सुधार की बात की, तो मैं बड़ा प्रोत्साहित हुआ। एक चीनी विद्वान, जिनसे मैं न्यूयॉर्क में मिला था, ने बताया कि नैतिक ह्रास के वातावरण में बौद्ध धर्म का बड़ा योगदान हो सकता है।"

परम पावन ने १९६० के दशक से प्रचार के एक अंश का स्मरण किया, जिसमें कहा गया था कि बौद्ध धर्म केवल अंधविश्वास का एक विषय था, जो वैज्ञानिक ज्ञान के विकास के साथ गायब हो जाएगा। जिसने भी यह लिखा हो, वह विख्यात आधुनिक वैज्ञानिकों में बौद्ध धर्म और चित्त तथा भावनाओं के बारे में और प्राचीन भारतीय खोज के प्रति जो रुचि और सम्मान है, उसे देखकर आश्चर्यचकित हो जाएगा।


"इन दिनों मैं बौद्धों को २१वीं सदी का बौद्ध होने की सलाह देता हूँ, जिसका अर्थ यह जानने के लिए कि वास्तव में बौद्ध धर्म क्या है उन्हें अध्ययन की आवश्यकता है। कल मैं एक दो बौद्ध ग्रंथों पर प्रवचन दूँगा और उसमें आने के लिए आप का स्वागत है।"

उन्हें उत्सुकता से सुन रहे लोगों में से िकए गए प्रश्नों में परम पावन से अंग दान के विषय में पूछा गया। उन्होंने खंगसर रिनपोछे का उल्लेख किया, जिन्होंने विशेष रूप से कहा था कि अंतिम संस्कार करने के बजाय उनके शरीर को पक्षियों को खिलाया जाए क्योंकि वह चाहते थे कि यह दूसरों के लिए काम आए। अंग दान के सिद्धांत की प्रशंसा करते हुए, परम पावन मृत्यु से पूर्व अंगों को निकालने को लेकर चिंतित थे। उन्होंने फालुंग गोंग के बंदी सदस्यों साथ ऐसा होने की सूचना के बारे में सुना है।

उन मरणासन्न लोगों के लिए जो चिंतित हैं, उन्होंने कहा, मृत्यु आएगी। यदि आपने अपने शरीर, वाणी और मन का प्रयोग सार्थक उपयोग के लिए किया है तो आप एक अच्छे पुनर्जन्म के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं। उन्होंने एक तिब्बती कहावत को उद्धृत करते हुए कहा कि, श्रेष्ठ बौद्ध अभ्यासी मृत्यु का स्वागत करते हैं; मंझले लोग दुखी नहीं होते और यहाँ तक ​​कि निम्नतम श्रेणी के अभ्यासी भी मृत्यु से बिना पश्चाताप के मिलते हैं। इसलिए, सबसे अच्छा यही है कि मृत्यु के विषय में चिंता न करें अपितु एक अच्छा जीवन जिएँ।

एक महिला ने परम पावन को बताया कि वह काम करने के साथ साथ अध्ययन भी कर रही है, जबकि उसके नियोक्ता इसे लेकर कठोर हैं, तो वह क्या करे। उन्होंने प्रथमतः उसे मंजुश्री मंत्र के जाप की सलाह दी और फिर उनके सामने एकत्रित लोगों को तत्काल मंजुश्री आशीर्वाद देने का निश्चय किया।

उन्होंने उनसे मंजुश्री की कल्पना करने के लिए कहा, जिनके दाहिने हाथ में प्रज्ञा की एक ज्वलंत तलवार थी तथा दूसरे में वे कमल की डंठल पकड़े थे जिस पर एक पुस्तक धारित थी, उन के शीर्ष पर, उनकी भौंहों, ग्रीवा और हृदय से झरता प्रकाश उन्हें आप्लावित कर रहा था। उन्होंने कहा कि वे उनके पीछे मंत्र को दोहराएँ और कहा कि इससे उन्हें व्यापक, स्पष्ट, गहन और प्रत्युत्पन्न प्रज्ञा का विकास करने में सहायता प्राप्त होगी। उन्होंने उनसे प्रत्येक दिन प्रातः उस मंत्र का जाप करने की सलाह दी और कहा कि एक साँस में वे जितनी बार धी का उच्चारण कर सकते हों, करें। उन्होंने उनसे कहा इस अभ्यास को वह बाल्यकाल से ही करते थे और जिसका अच्छा प्रभाव था। इसके अतिरिक्त उन्होंने २१ अथवा १०० की गिनती तक अपनी साँस पर ध्यान देते हुए जागरूकता के विकास की सलाह दी।

एक प्रश्न के उत्तर में, जो दूसरा मुद्दा उन्होंने उठाया वह तिब्बती बौद्ध अनुयायियों के बीच सांप्रदायिकता का था। उन्होंने कहा कि यह अज्ञान का परिणाम है और कई तिब्बती आचार्यों के नाम गिनाए जिन्होंने एक व्यापक और सांसारिक दृष्टिकोण अपनाया था, जिनमें जे चोंखापा, गेदुन ज्ञाछो, द्वितीय दलाई लामा और अधिक हाल ही में जमयंग खेनचे वंगपो, दिलगो खेनचे रिनपोछे और ठुलशिग रिनपोछे थे। उन्होंने टिप्पणी की, कि अंततः सभी तिब्बत की बौद्ध परंपराओं का स्रोत नालंदा रहा है।

***

तीसरे दल, जिनके साथ परम पावन ने भेंट की, वे सोतो ज़ेन परंपरा के भिक्षु और समर्थक थे, एक सामाजिक रूप से जागरूक समूह, जो अपने बौद्ध अभ्यास के अतिरिक्त जेल के लोगों के लिए आध्यात्मिक सलाहकार का भी कार्य करते हैं। वे उन लोगों के लिए भी अपने समर्थन में सक्रिय थे, जिनका जीवन बड़े तोहोकू भूकंप और उसके परिणामों से ध्वस्त हो गया था। उनका नारा है: 'मानव अधिकारों के प्रति सम्मान, शांति की स्थापना और पर्यावरण की सुरक्षा।'


उन्होंने परम पावन को उनसे मिलने के लिए टोक्यो के एक होटल में आमंत्रित किया, आगमन पर उनका अभिनंदन किया और उन्हें उस कक्ष में ले गए जहाँ उनका परिचय वरिष्ठ भिक्षुओं के एक समूह के साथ करवाया जा सकता था। सोतो परंपरा के उपाध्यक्ष, एब एकाइ व्यक्तिगत रूप से उनके साथ थे। भिक्षुओं ने अपना परिचय दिया और अध्यक्ष ने परम पावन को एक परंपरागत जापानी चाय पात्र उपहारस्वरूप दिया और मध्याह्न के भोजन के लिए साथ बैठने से पूर्व उन्होंने तस्वीरों के िलए पोज़ किया।

एक मंदिर की तरह विन्यस्त सभागार में, पावन ने सर्वप्रथम बुद्ध की प्रतिमा के समक्ष अपना श्रद्धार्पण किया। अध्यक्ष और मुख्य पुजारी ने इसी तरह अपनी श्रद्धा व्यक्त करने में सभा का नेतृत्व किया और उन सभी ने लय में हृदय सूत्र का पाठ किया। परम पावन को संबोधन के लिए आमंत्रित करने से पूर्व उनके समक्ष संक्षिप्त परिचयात्मक भाषण दिए गए। उन्होंने प्रारंभ किया:

"आदरणीय अध्यक्ष और अतिथियों, आप लोगों के बीच यहाँ अपने को पाकर मैं सम्मानित हूँ। सबसे पहले मैं इस वयोवृद्ध भिक्षु के प्रति श्रद्धा व्यक्त कर दूँ, जो जब से मैं आया हूँ, मेरी देख रेख में लगे हैं, इसके बावजूद कि उनकी ९० वर्ष की आयु की तुलना में, मैं कनिष्ठ ७९ वर्ष का हूँ। जापान के लिए इस यात्रा पर, वहाँ के भूकंप पीड़ितों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए मैं सर्वप्रथम सेंदाइ गया और मैंने एक शिंतो प्रार्थना सभा में भाग लिया। ओसाका में मैंने स्कूल में छात्रों को संबोधित किया और कोयासन में मैंने तांत्रिक परंपरा की एक कड़ी निर्मित की।"


"मैं यहाँ केवल, सात अरबों के बीच एक मनुष्य के रूप में आया हूँ। दुख न चाहने को लेकर हम सभी समान हैं और हम सब को इस लक्ष्य को पूरा करने का अधिकार है। मुख्य कारक अपने चित्त में शांति उत्पन्न करना है। सभी धार्मिक परम्पराएँ प्रेम और करुणा के अभ्यास को बढ़ावा देते हुए इसमें योगदान करती है, अतः यह महत्त्वपूर्ण है कि हमारी अपनी परंपरा में विश्वास बनाए रखते हुए दूसरों के प्रति सम्मान का विकास करें। जब आप हृदय सूत्र का पाठ कर रहे थे, बुद्ध के प्रति आभार भाव ने मेरे मर्म को छू लिया और तदनुसार प्रार्थना की।"

परम पावन का स्वयं का सम्बोधन संक्षिप्त था किन्तु प्रश्नों के उत्तर देते हुए उन्होंने बोलना जारी रखा। उन्होंने टिप्पणी की कि बौद्ध परंपरा में दुख का मूल अज्ञान है, जिस कारण हम अपने मित्रों और संबंधियों से जुड़े होते हैं। जहाँ हम दूसरों का अहित करना नहीं चाहते पर क्रोध और शंका ऐसा करने के लिए हमें प्रेरित करती है। हमारा अज्ञान, वस्तुओं में आंतरिक अस्तित्व को मानते हुए उनके दृश्य रूप पर हम जिस तरह चिपकते हैं, उस पर आधारित है। इसका उच्छेद प्रज्ञा है। जैसा कि हृदय सूत्र में आया है, 'रूप शून्यता है, शून्यता रूप है।'

ध्यान के विषय में, उन्होंने शारीरिक स्थिति को अपनाने तथा वस्तु पर चित्त को रखने और साथ ही विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के प्रयोग का वर्णन किया। उन्होंने न केवल चित्त के उचाट होने, परन्तु अधिक हानिकारक शैथल्य के प्रति भी चेताया और मित्रों का उदाहरण दिया कि जिन्होंने किस तरह ध्यान एकांतवास के अंत में अनुभव किया था कि उनकी बुद्धि में गिरावट आई है। उन्होंने विपश्यना तथा शमथ ध्यान के लाभ की भी सराहना की।

मानव अधिकारों के प्रति सोतो परम्परा के समर्पण का स्मरण करते हुए परम पावन ने उन्हें सूचित किया कि मृत्यु दंड को समाप्त करने के पक्ष में एमनेस्टी इंटरनेशनल की घोषणा के समर्थन में वे एक हस्ताक्षरकर्ता हैं। उन्होंने कहा कि यह बौद्ध कार्य कारण, और यह कि वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं, से मेल खाता है। अपने प्रारंभिक जीवन में आपसे त्रुटि हो सकती है, पर आप बाद में बेहतर रूप में परिवर्तित हो सकते हैं।


इस पर कि विश्व बेहतर हो रहा है या बदतर, उन्होंने उल्लेख किया कि शांति की खोज के लिए एक सतत आंदोलन है और परमाणु शस्त्रों के होने के प्रति बढ़ता विरोध। जहाँ कोई भी पर्यावरण को लेकर बात नहीं किया करता था, आज यह प्रत्येक के होठों पर है। वैज्ञानिक जो कभी केवल भौतिक चीज़ों पर ध्यान देते थे, अब चित्त और उसके प्रकार्यों की ओर ध्यान दे रहे हैं। परम पावन ने आशावादिता व्यक्त की, कि लोग आम तौर पर अधिक परिपक्व हो रहे हैं। क्वींसलैंड में बाढ़ की तरह पूर्वी जापान में जिस प्रकार की आपदाएँ आई है, और तिब्बत में भी कठिनाइयों को लेकर उन्होंने नागार्जुन की सलाह उल्लेख किया, कि यदि आप स्वयं को उदास रहने देंेगे तो आप उन कठिनाइयों से कभी नहीं उबरेंगे जो आप पर हावी हैं।

शिक्षा के संदर्भ में उन्होंने श्रवण और पठन, चिंतन और मनन के माध्यम से बुद्ध की शिक्षाओं को समझने के प्रयासों को प्रोत्साहित किया। यह ज्ञान, विश्वास और अंतर्दृष्टि देगा। उन्होंने पहले कोयासन में जो कहा था वह दोहराया, कि बौद्ध धर्म जापान का धर्म है और हल्की हँसी के साथ कहा कि जापानी बच्चे के जन्म पर शिंतो परम्परा से जुड़ते हैं, विवाह के लिए ईसाई समारोह और मृत्यु पर बौद्ध संस्कार का पालन करते हैं।

जैसे ही बैठक समाप्त होने को आई, परम पावन ने बुद्ध की एक प्रतिमा सोतोशु परम्परा को और दूसरी उपाध्यक्ष को व्यक्तिगत रूप से भेंट की। अपने धन्यवाद ज्ञापन में अध्यक्ष ने अपने संबंध में घोषणा की कि वे हर्ष से फूले नहीं समा रहे कि परम पावन यहाँ आए। उन्होंने उन्हें प्रेम, करुणा, सहिष्णुता और संतोष का साकार कहा और वहाँ उपस्थित सभी लोगों की उन गुणों का अनुकरण करने के इच्छा व्यक्त की। अपनी ओर से परम पावन ने कहा:

"इन वरिष्ठ भिक्षु के प्रति मुझे बड़ा अपनापन लगता है, जिन्होंने मेरे प्रति इतनी दयालुता का भाव रखा। मेरी थकान को कम करने के लिए उन्होंने मेरी मालिश भी की। परसों मैं भारत लौट जाऊँगा और मुझे उनके साथ की बहुत याद आएगी।"
 

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