परम पावन 14 वें दलाई लामा
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प्रज्ञा पारमिता पर एक ग्रीष्म संगोष्ठी और बुद्ध की एक प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा ३०/जून/२०१४

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लिकिर गोमपा, लद्दाख, भारत, ३० जून २०१४ - लिकिर विहार में प्रज्ञापारमिता पर एक ग्रीष्म संगोष्ठी का प्रथम बार आयोजन हुआ, जिसका प्रारंभ भिक्षु समुदाय द्वारा बुद्ध के प्रति श्रद्धांजलि के छंद और मैत्रेय के 'अभिसमयालंकार' के प्रथम अध्याय के पाठ से हुआ। ङारी रिनपोछे के प्रबंधक, गेशे लोबसंग समतेन ने अन्य गणमान्य व्यक्तियों और अतिथियों के बीच परम पावन दलाई लामा और गदेन ठि रिनपोछे का स्वागत किया। उन्होंने भारत में तिब्बती विहारों की पुन: स्थापना और इस के कारण लद्दाखियों को मिले अध्ययन के अवसर की बात की। उन्होंने तिब्बती बौद्ध परंपरा के मूल्य का भी उल्लेख करते हुए यह भी कहा कि मानवता के कल्याण हेतु इसे संरक्षित किया जाना चाहिए।


"परन्तु", उन्होंने कहा कि "इस तरह का संरक्षण प्रार्थना और मंत्रों के पाठ से नहीं, अपितु अध्ययन से प्राप्त होगा। और इस संगोष्ठी की स्थापना के उद्देश्यों में यह एक है।"
 
इसके बाद विभिन्न बौद्ध द्वंद्वात्मक शास्त्रार्थ का प्रदर्शन हुआ, जो बोधिचित्तोत्पाद के विभिन्न रूपों और ऐसे प्रश्नों, कि क्या बुद्ध में आत्म स्वार्थ जैसी कोई भावना है, पर केन्द्रित था।

लद्दाख गोमपा एसोसिएशन के अध्यक्ष, गेशे कोनछोग नमज्ञल ने संबोधित िकया तथा परम पावन दलाई लामा, गदेन ठि रिनपोछे और राज्य सरकार के मंत्रियों की उपस्थिति की सामान्य रूप से सराहना की। उन्होंने देहरादून और दक्षिण भारत जैसे स्थानों में तिब्बती शिक्षा केद्रों की पुन: स्थापना का उल्लेख किया। इससे लद्दाखी एक बार पुनः अध्ययन करने में सक्षम हुए हैं, जैसा वे अधिकांश रूप में तिब्बत में करते थे। उन्होंने यह कामना करते हुए समाप्त िकया कि परम पावन दीर्घायु हों और तिब्बत पर धर्म का सूर्य एक बार फिर दैदीप्यमान हो।

छोफेल सोपा ने ङारी छंग विहार के सांस्कृतिक और शैक्षिक सोसायटी के सलाहकार के रूप में परम पावन, ठि रिनपोछे, और संघ, विहाराध्यक्ष, मंत्रियों और अन्य अतिथियों का स्वागत किया। लिकिर विहार शिक्षा समिति की ओर से उन्होंने सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की, जिनके कारण यह कार्यक्रम संभव बन पाया था। यह टिप्पणी करते हुए कि पूर्व वक्ता ने प्रज्ञापारमिता संगोष्ठी की प्रशंसा की थी, उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि परम पावन की प्रेरणा और प्रोत्साहन के कारण निर्वासन में पुनर्स्थापित तिब्बती विहारों ने कुछ हद तक, १९५९ की तिब्बती आपदा का सामना किया था।


नारी समुदाय के सात विहारों ः फुतकर, लिंगसे, गर्शा, मुनि, रंगदोम, तोंगदे तथा लिकिर के सफल उम्मीदवारों को गदेन ठिपा रिज़ोंग रिनपोछे ने गेशे, काचेन तथा ङगरमपा की स्नातक उपाधियाँ प्रदान की। प्रत्येक स्नातक को एक प्रमाण पत्र और बुद्ध की एक प्रतिमा दी गई। उसके बाद ठि रिनपोछे ने एकत्रित भिक्षुओं को आगामी कालचक्र, किस प्रकार समझा जाए, पर सलाह दी।

अपने संबोधन में परम पावन दलाई लामा ने हँसी हँसी में कहा कि जहाँ लद्दाख कभी कभी बहुत ठंडा हो जाता है, आज यह बहुत गर्म है। उन्होंने टिप्पणी की, कि जब वह ५० वर्षों से अधिक पहले भारत आए थे तो अधिक कुछ नहीं हो रहा था। पर तब से बहुत विकास हुआ है, जिसमें नालंदा परंपरा का व्यापक अध्ययन शामिल है, जिसके लिए उन्होंने उससे जुड़े सबको बधाई दी।

"तिब्बत में अध्ययन किए जा रहे सभी शास्त्रीय बौद्ध ग्रंथ मुख्य रूप से नालंदा विश्वविद्यालय के विद्वानों द्वारा रचित थे। भारतीय साहित्य और परंपरा में तिब्बती बौद्ध धर्म के मूल के प्रति अज्ञानता के कारण कुछ पश्चिमी लेखकों ने ग़लती से उसे लामावादी कहकर वर्णित किया है। परन्तु तिब्बत में अध्ययन किए जा रहे प्रज्ञापारमिता का अध्ययन चीन, कोरिया, जापान और वियतनाम में भी होता है और वे सभी माध्यमक के प्रमुख प्रस्तावक नागार्जुन के भी प्रशंसक हैं।"

परम पावन ने कहा कि उन शिक्षाओं के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है जो कि मूल रूप से विशिष्ट व्यक्तियों के लिए थे, जैसे कि भारतीय सिद्ध विरूप द्वारा प्राप्त दर्शन जो कि सक्या परम्परा के लिए आवश्यक हैं और कई अन्य शिक्षाएँ जो उनके समान हैं, जो मिलारेपा को मरपा से मिले थे जो काग्यु परम्परा बनाता है। दूसरी ओर नालंदा परंपरा से संबंधित शिक्षाएँ न केवल तिब्बती बौद्ध धर्म के चार प्रमुख परंपराओं में मान्यता रखती हैं, अपितु लेकिन यह उत्तरी प्रसारण के सभी बौद्ध देशों में भी हैं। उन्होंने कहा:


"यदि आप एक सफेद कौवे की तरह बनना नहीं होना चाहते, तो आप को बौद्ध परंपरा के सामान्य रूप से स्वीकृत ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए और मुख्यधारा का अंग बन जाना चाहिए। यदि आप ये आम तौर पर समझे जाने वाले ग्रंथ समझ नहीं पाते तो विशिष्ट व्यक्तियों की शिक्षाओं को लेकर आप बहुत सफल न हो पाएँगे।"

परम पावन ने कहा कि विगत ३० वर्षों से भी अधिक वैज्ञानिकों और अन्य विचारकों के साथ हुई उनकी बातचीत के दौरान उन्होंने परा जन्म जैसे विषयों पर चर्चा नहीं की है, अपितु व्यावहारिक मुद्दों, जैसे कि किस प्रकार आंतरिक शांति यहाँ और अभी प्राप्त की जा सकती है पर चर्चा की है। इन पर कारण और तर्क के आधार पर विचार विमर्श किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि पांच बौद्ध विज्ञान में सबसे महत्वपूर्ण प्रज्ञापारमिता और मध्यम मार्ग दृष्टिकोण है जो ज्ञान और मीमांसा द्वारा समर्थित है। उन्होंने आगे कहा कि, जहाँ १९५६ में भारत में उनके प्रथम आगमन के बाद बहुत विकास हुआ है, वहाँ उसी के सम आध्यात्मिक विकास भी होना चाहिए।

परम पावन ने टिप्पणी की, कि "यद्यपि मैं व्यक्तिगत रूप से बुद्ध धर्म के विषय में अधिक नहीं जानता, मैं कई विस्तृत बातें विस्मृत कर चुका हूँ जिन्हें मैंने उस समय सीखा था जब मैं छोटा था। पर चूँकि तब से मैंने अपना अध्ययन जारी रखा है अतः मैं प्रमुख बिंदुओं से परिचित रहता हूँ। और मैं इन्हें अन्य संदर्भों में, जैसे विज्ञान, जिसे मैं नालंदा परम्परा के माध्यम से देखता हूँ, में प्रयोग करने के लिए तैयार हूँ।"

"कुछ विद्वानों ने बौद्ध धर्म की व्याख्या एक धर्म के रूप में नहीं अपितु चित्त के विज्ञान के रूप में की है जो सच है। वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के साथ मेरी चर्चा में हम इस पर सहमत हैं कि हमारी विनाशकारी भावनाएँ आंतरिक शांति की विध्वंसक हैं। कुछ चिकित्सा विशेषज्ञों ने दिखाया है कि निरंतर क्रोध तथा भय हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को खाकर हमारे स्वास्थ्य को कमजोर करते हैं। इस बीच, वे पाते हैं कि एक करुणाशील चित्त हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। अधिक से अधिक वैज्ञानिक प्राचीन भारतीय और विशेष रूप से बौद्ध मनोविज्ञान से सीखने में रुचि दिखा रहे हैं। आप भिक्षु यहाँ हमारी मानवीय भावनाओं को बदलने के लिए मानव बुद्धि का उपयोग कर चित्त की जाँच कर रहे हैं।"


"हम बुद्ध को एक विचारक और दार्शनिक के रूप में देख सकते हैं। उन्होंने अपने भिक्षुओं और अनुयायियों को आगाह किया था कि वे केवल श्रद्धा के आधार जो भी शिक्षा दी जा रही है, उसे स्वीकार न करें पर स्थिरता के लिए उसकी जाँच तथा परीक्षण करें और तभी उसे स्वीकार करें।"

परम पावन ने उनकी रुचि और समर्थन के लिए विदेशी अतिथियों की सराहना की। उन्होंने भारतीय अतिथियों से कहा कि वे प्रायः इंगित करते हैं कि तिब्बती, प्राचीन भारतीय विद्वानों और अभ्यािसयों को अपने गुरु के रूप में देखते हैं। उन्होंने आगे कहा कि, वे न केवल शिष्य हैं अपितु विश्वसनीय शिष्य हैं क्योंकि उन्होंने अत्यंत सावधानी से उन परम्पराओं को सुरक्षित रखा है जो उनके जन्म स्थान से अदृश्य हो चुके हैं। परिणामस्वरूप बढ़ती भारतीयों की संख्या चित्त तथा प्रतीत्य समुत्पाद के बौद्ध ज्ञान के प्रति रुचि दिखा रही है।

एक लघु संगीत प्रदर्शन हुआ, जिसमें एक स्थानीय व्यक्ति ने पाइप और ड्रम की संगत पर एक मधुर गीत गाया। इस के बाद, गेशे लोबसंग ज्ञलछेन ने धन्यवाद के शब्द कहे और सभा मध्याह्न के भोजन के लिए समाप्त हो गई।


दोपहर को परम पावन लेह की सड़क पर कुछ दूर गाड़ी से गए और फिर पहाड़ियों में स्थित ने गाँव गए, जहाँ उन्हें बुद्ध शाक्यमुनि प्रतिमा निर्माण समिति द्वारा आमंत्रित किया गया था। बुद्ध की विशाल प्रतिमा, जिसकी नींव का पत्थर उन्होंने २००२ में रखा था अब पूरा हो गया था। आधार के चारों ओर घूमते हुए उन्होंने भीतर मंदिर का दौरा किया और कई ध्यान देवताओं के चित्रों की प्रशंसा की। अपने आसन पर बैठ और ऊँची प्रतिमा को निहारते हुए उन्होंने अभिषेक प्रार्थना का पाठ किया।

जन समुदाय को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा:

"बुद्ध की यह भव्य प्रतिमा, इस भाग्यशाली कल्प के चौथे बुद्ध, हमारे समक्ष पूर्ण रूप में खड़ी है। बहुत सुन्दर, आप सब जो इससे जुड़े हैं, को साधुवाद। आप को प्रार्थना करनी चाहिए कि आपने जो पुण्य निर्मित किया है वह सभी सत्वों के िलए हितकारी होगा और उन्हें प्रबुद्धता की ओर लाएगा।"

"परन्तु बुद्ध की चमत्कारी गतिविधि के तीन क्षेत्रों में प्रमुख उनका शिक्षण था। काय, वाक् तथा चित्त की गतिविधियों में सबसे महत्वपूर्ण वाक् है। उन्होंने कहा:

बुद्ध पाप को जल से धोते नहीं,
न ही जगत के दुःखंो को अपने हाथों से हटाते हैं;
न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थान्तरण करते हैं;
वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं।


"बुद्ध ने एक ऐसे मार्ग की शिक्षा दी, जो प्रतीत्य समुत्पाद की प्रक्रिया का अंत करता है। यद्यपि हम ऐसे काय को निहारते हुए पुण्य का संभार कर सकते हैं जैसा कि मैंने छो पेमा में भक्तों को बताया था, जो गुरु पद्मसंभव की एक विशाल प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की माँग कर रहे थे, कि ये महान प्रतिमाएँ १००० वर्ष तक रहेंगी पर वे कभी बोलेंगी नहीं। हमें बुद्ध के वाक् की भी आवश्यकता है जो कि १०० से अधिक कांग्यूर के ग्रंथों में निहित हैं। प्रतीत्य समुत्पाद के सार को अभिव्यक्त करने वाले छन्द में चार आर्य सत्य का सार भी शामिल है जो कि सभी बौद्ध शिक्षा का मूल है।"
 
ये धर्मा हेतु प्रभवा, हेतुम् तेषाम् तथागतो ह्यवदत
तेषाम् च यो निरोधो, एवम् वादी महाश्रमणः।

परम पावन ने बुद्ध शाक्यमुनि से संबंधित एक लघु प्रसरण के साथ समापन किया जिसमें एक छंद और एक मंत्र शामिल था। वे गाड़ी से लिकिर गोमपा लौटे। कल प्रातः तड़के ही वे हृदय सूत्र की एक व्याख्या देंगे। 

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