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मुंडगोड में अंतिम दिन २९/दिसम्बर/२०१४

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मुंडगोड, कर्नाटक, भारत - २९ दिसंबर २०१४- आज प्रातः डेपुंग लाची मंदिर और दालान प्रत्याशा की ध्वनि से गुंजित था जब परम पावन दलाई लामा पालदेन ल्हामो की अनुज्ञा देने पहुँचे। उन्होंने कहा कि मुख्य शिष्य गदेन जंगचे और डेपुंग के भिक्षु थे, जिन्होंने अनुरोध किया था।

मध्याह्न भोजनोपरांत परम पावन ने एक समूह को संबोधित किया जो तिब्बत से आए थे। उन्होंने उनसे कहा:

"हम तीन प्रांतों में एकजुट होकर रहते थे, अब विभिन्न प्रशासनिक वर्ग हैं पर हम सब अभी भी तिब्बती बोलते हैं। और तो और तिब्बती तिब्बत के वास्तविक स्वामी हैं। और आपकी देशभक्ति और साहस की भावना श्रेष्ठ है। मैं आपको धन्यवाद देता हूँ।"

"इस समय हमें शिक्षा पर बल देना चाहिए। हमें बौद्ध धर्म और बौद्ध मनोविज्ञान के विषय में अपनी भाषा में शिक्षा की आवश्यकता है। इसमें पश्चिम के वैज्ञानिक भी रुचि ले रहे हैं। हमें यह सीखना है कि चित्त को िकस प्रकार परिवर्तित िकया जाए। महत्वपूर्ण बात समझ की है। यदि आप समझ के साथ २१ मणि मंत्र कह सकते हैं, तो वे बिना समझे कहे गए १००० संख्या की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली होंगे।"

"देंग जियाओ पिंग के आर्थिक सुधारों के बाद बहुत अधिक लोग धनवान बन गए। हमें धनवान लोगों की आवश्यकता है। पर जो बात महत्वपूर्ण है वह यह कि, अपने धन को शराब तथा जुए में व्यर्थ न गँवाया जाए अपितु उसे सत्कार्यों में लगाया जाए। स्कूलों और अस्पतालों की स्थापना की जाए। गरीब बच्चों की शिक्षा में सहयोग करें। यदि आप कर सकें तो सामाजिक लाभ के लिए अपने संसाधनों का उपयोग करें।"


परम पावन डेपुंग लाची से रवाना हुए और निकट के क्षेत्र में कई विहारों की यात्रा की। सबसे प्रथम सेचेन डोङग छोलिंग सक्या विहार था। मंदिर के द्वार की ऊँचाई पर बर्रे के घोंसले की भिनभिनाहट चिंता का एक छोटा कारण थी पर सुरक्षा कर्मियों ने निश्चय िकया कि यदि फोटो लेने वाले फ्लैश का उपयोग कर उन्हें नहीं छेडें तो सब ठीक होगा। एकत्रित भिक्षुओं को संबोधित करते हुए परम पावन ने टिप्पणी की, कि सक्या लोग अध्ययन में एक प्रतिष्ठा रखते हैं। यद्यपि तिब्बत में सभी चार प्रमुख बौद्ध परम्पराएँ नालंदा परम्परा से आई हैं पर जे चोंखापा ने शास्त्रीय ग्रंथों के अध्ययन के स्रोत के रूप में विशेष रूप से सक्या परम्परा की प्रशंसा की। परम पावन ने कहा कि इस पर ध्यान देने से पूर्व, कि हमारी िवशिष्ट परम्परा किस रूप में अनोखी है, हमें सामान्य रूप से धर्म के एक अच्छे समझ की आवश्कता है। उन्होंने उल्लेख किया कि उन्हें प्रमुख सक्या लम डे परम्परा की व्याख्या चोपज्ञे ठिछेन िरनपोछे से प्राप्त हुई।

 
अगले पड़ाव रातो विहार पर, विहाराध्यक्ष ने परम पावन के गाड़ी से उतरते ही उनका स्वागत िकया और उन्हें मंदिर ले गए। जब उन्होंने भिक्षुओं और प्रायोजकों की सभा के समक्ष अपना आसन ग्रहण कर लिया तो परम पावन हँसे और घोषणा की, कि आज जिस बात ने ऐतिहासिक रातो विहार को अनूठा बनाया है, वह उनके विहाराध्यक्ष थे, जो एक अमेरीकी हैं तिब्बती नहीं। वह क्योंगला रातो रिनपोछे के पुराने छात्र हैं जो परम पावन के अपने मुख्य शिक्षक लिंग रिनपोछे के वरिष्ठ शिष्य हैं। उन्होंने आगे कहा ः

"हमारे बड़े और छोटे सभी विहारों में धर्म का संरक्षण केवल अध्ययन और अभ्यास द्वारा किया जा सकता है। तिब्बत में रातो एक ऐसी संस्था के रूप में जानी जाती थी जहाँ शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन होता था, यद्यपि कई छोटे विहार कोई अध्ययन नहीं करते थे। वे मात्र अनुष्ठान करते थे। हम उसे बदलने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन एक और परिवर्तन जो मैं करना चाहूँगा, वह तिब्बत में रचे ग्रंथ को लेकर है, जैसे लमरिम जिन्हें हमने हाल ही में देखा है, वे इस धारणा के साथ लिखे गए थे कि पाठक या श्रोता पहले से ही बौद्ध थे। दूसरी ओर शास्त्रीय भारतीय ग्रंथंों ने एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाया और उनके रचना काल में जो कई विरोधी विचार धाराएँ अस्तित्व में थीं, उन्हें संबोधित किया।"

डेपुंग गोमंग में परम पावन को एक लिखित रिपोर्ट दी गई जिसे उन्होंने देखा। उन्होंने उल्लेख किया कि बक्सा से जो ६२ मूल गोमंग भिक्षु आए थे उनमें से अब मात्र २६ बचे हुए हैं। उन्होंने समझाया ः

"१९५९ में तिब्बत में उथल-पुथल होने के कारण कई गोमंग विद्वान चीनियों द्वारा बंदी बना लिए गए। भारत में पहुँचे शरणार्थियों में भारत सरकार पहले केवल ५०० भिक्षुओं की देख रेख के लिए ही तैयार थी। हमने उन्हें इस संख्या को १५०० तक बढ़ाने के लिए राजी कर लिया, तो जो शिविर बक्सा, आसाम में स्थापित किया गया उसमें १३०० भिक्षु थे जिनमें से अधिकांश गेलुगपा और कुछ सक्या थे। गोमंग के भाग्य की निचली बिंदु पर हिमालय के लोग उनके समर्थन के लिए एकजुट हुए, जिसके कुछ समय बाद अमदो से भिक्षुओं की एक बाढ़ आई और उसके कुछ समय बाद मंगोलियाई आए। यह विहार नालंदा की परम्परा का पालन करता है जो कि युक्ति तथा तर्क के प्रयोग पर आधारित है। जिन ग्रंथों का हम अध्ययन करते हैं उसका मुख्य जोर चित्त का परीक्षण है जो आज भी वैज्ञानिकों की रुचि को आकर्षित करती है।"

"पिछले वर्ष से मैं गदेन ठि रिनपोछे, शरपा छोजे और जंगचे छोजे और विहाराध्यक्षों से विचार विमर्श करता रहा हूँ कि यहाँ चीजों में सुधार करने के लिए हम क्या कर सकते हैं। आज मध्याह्न, भोजन के दौरान हमने पुनः बात की। हमें अपने अध्ययन में सुधार और अपने आप को लोगों की बेहतर सेवा करने हेतु आगे लाना है। मैं आप सभी को शामिल होने और परस्पर इन बातों पर चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहूँगा।"

मार्ग के उस पार डेपुंग लोसेललिंग में, परम पावन ने कहाः

"गदेन ठि रिनपोछे, शरपा छोजे और मेरे अपने वरिष्ठ अध्यापक, लिंग रिनपोछे सभी इस विहार के हैं। यह ऐसा विहार है जिसने जमगोन लामा चोंखापा की परम्परा का पालन करते हुए कई महान विद्वानों को जन्म िदया है। परन्तु इसका आधार, िकसी भी बात को उसी तरह मान लेना नहीं होना चाहिए। हमें यह धारणा नहीं रखना चाहिए कि सब कुछ पहले की तरह होगा। हमंें यह देखने की आवश्यकता है कि अध्ययन और आवास की स्थिति के संदर्भ मे स्थिति में सुधार के लिए क्या किया जा सकता है फिर चाहे ऐसी चीज़ें हों, जिनके िवषय में अभी कुछ नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के िलए शिक्षा में गिरावट आती है जब पर्याप्त योग्य शिक्षक नहीं होते। कई लोग धनार्जन की संभावना से पश्चिम में जाने के लिए प्रेरित होते हैं।"


"पिछले वर्ष जब मैंने नमडोललिंग विहार की यात्रा की, जहाँ वे एक ९ वर्ष का अध्ययन कार्यक्रम चलाते थे, मैंने सुझाव दिया कि वे शांतरक्षित के ग्रंथ तत्वसंग्रह का अध्ययन शामिल करें जो बौद्ध तथा अबौद्ध विचारों के सिद्धांत से संबंधित है। उस पर उनके विद्यार्थी, कमलशील की एक कारिका भी है। जिस प्रकार नमडोललिंग ने किया है यहाँ इसके अध्ययन को प्रारंभ करने का विचार अच्छा हो सकता है।"

गोमंग तथा लोसेललिंग दोनों में परम पावन ने विहार की सीढ़ियों पर सैकड़ों भिक्षुओं के साथ तस्वीरों के लिए पोज़ किया। जब वह डेपुंग लाची लौटे तो भिक्षु,भिक्षुणियाँ और आम लोग, तिब्बती, मंगोलियायी, मोनपा, स्थानीय भारतीय उन्हें जाता हुआ देखने के लिए बहुत दूर तक मार्ग पर पंक्तिबद्ध थे। कल वह प्रातः शीघ्र ही पुणे के लिए मोटर गाड़ी से रवाना होंगे। 

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