परम पावन 14 वें दलाई लामा
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मेपिंग द माइंड ( चित्त का मानचित्रण ) - दिवस २ १२/अप्रैल/२०१४

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क्योतो, जापान - १२ अप्रैल २०१४  -  मेपिंग द माइंड के दूसरे दिन की बैठक बड़ी ही औपचारिकता से शांत रूप में प्रारंभ हुई। परम पावन के चुपचाप मंच पर अपना स्थान ग्रहण करते ही प्रस्तुतियाँ प्रारंभ हुई। शिनोबु कितयामा, जिनका जन्म जापान में हुआ था, पर अब मिशिगन में मनोविज्ञान के प्रोफेसर हैं, ने यह कहते हुए कि सांस्कृतिक संदर्भ मानव मन को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है, सांस्कृतिक न्यूरोसाइंस के बारे में बोलना प्रारंभ किया।


यह स्पष्ट करते हुए कि सांस्कृतिक न्यूरोसाइंस क्या है, उन्होंने कहा कि यद्यपि मानवता एक है, पर उसके विविध प्रकटित रूप हैं। सांस्कृतिक प्रारूपों का न्यूरोप्लास्टिसिटि के साथ संयुक्त होने का अर्थ है कि मस्तिष्क सांस्कृतिक संदर्भ के अनुसार ढाला जा सकता है। मस्तिष्क एक स्थिर इकाई नहीं है, लेकिन अनुभव के प्रकार्य के रूप में बदल सकता है। इसे पारिस्थितिक, पर्यावरण और सांस्कृतिक कारकों द्वारा आकार दिया जा सकता है। एक जैविक अंग के रूप में मस्तिष्क भी ​​आनुवंशिक प्रभावों के अधीन है और ऐसे प्रमाण हैं कि ये भी समाज और संस्कृति के अनुसार भिन्न हो सकते हैं।

कितयामा ने सुझाया कि पश्चिम या कम से कम यूरोप और उत्तरी अमेरिका में आत्मा के संबंध में ऐसी धारणा है, कि वह स्वतंत्र है। आप अपने मित्रों का चयन स्वयं कर सकते हैं, इत्यादि इत्यादि; इसका एक असंबंधित कर्तृत्व है। विश्व के अन्य भाग, जैसे एशिया में आत्मा और अधिक संबंधित और अन्योन्याश्रित है। उन्होंने प्रायोगिक निष्कर्षों का उदाहरण दिया, जो आत्म हित तथा परहित के संबंध में पश्चिम के लोगों के बीच त्रुटि संबंधित नकारात्मकता दिखाता है, जो एशियाई लोगों के बीच नहीं मिला था।

परम पावन ने यह कहते हुए इस निष्कर्ष का विरोध किया कि इस प्रकार सामान्यीकरण करना कठिन है क्योंकि इसमें कोई संदेह नहीं कि परोपकारी अमेरिकी हैं और आत्म-केन्द्रित एशियाइ हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि अफ्रीकी और शहरों में और ग्रामीण प्रदेशों में रहने वाले लोगों के बीच के अंतर का निष्कर्ष दिलचस्प होगा। उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या पुरुषों और स्त्रियों का भेद कोई अंतर लाता है।


जेन रोशी, जोआन हैलिफ़ैक्स ने मरणासन्न व्यक्तिओं के साथ ४० साल से किए गए अपने कार्य के अनुभव को करुणा प्रशिक्षण की प्रस्तुति का आधार बनाया। उन्होंने कहा कि साधारण तौर पर करुणा को दूसरों के अनुभवों को बाँटना माना जाता है, उनके प्रति चिंता और यह भावना कि उनके लिए क्या सहायक हो सकता है। उसे जो पीड़ित हैं, उनके लिए उन्हें उस दुख से राहत दिलाने की प्रेरणा से चिंता करना भी माना जा सकता है। उन्होंने करुणा का एक प्रणाली आधारित मानचित्र प्रस्तावित किया, जो प्रशिक्षण के लिए उचित हो, जो परिचारकों और पेशेवर चिकित्सकों को प्रशिक्षित करने के िलए विकसित किया जा सके। उन्होंने प्रस्तावित किया कि करुणा सिखाई नहीं जा सकती, यह एक तात्कालिक प्रक्रिया है। प्रशिक्षण में इन सूचनाओं को भी शामिल किया गया है कि परिचारक और चिकित्सक भी अत्यधिक थक जाते हैं और प्रायः उन्हें स्वयं देखभाल की आवश्यकता होती है।

प्रातः के तीसरे प्रस्तोता, शिनसुके शिमोजो, िजन्हें कई जापानी पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं और सम्प्रति कैलिफोर्निया प्रौद्योगिकी संस्थान में एक प्रायोगिक मनोविज्ञान के प्रोफेसर है, ने बार बार चित्त को एक हिमशैल एक उदाहरण दिया। उनका उद्देश्य यह दिखाना था कि स्पष्ट चेतन चित्त मात्र हिमशैल का ऊपरी भाग है। महत्त्वपूर्ण अधिक व्यापक निहित चित्त धरातल के नीचे है। उन्होंने कहा कि पारंपरिक मनोविज्ञान और तंत्रिका विज्ञान को मानव चित्त के कुछ पहलुओं को संबोधित करते हुए कठिनाई होती है। उन्होंने सुझाव दिया कि एक व्यक्ति के व्यक्तित्व और भावनात्मक निर्णय लेने को मस्तिष्क और सामाजिक दुनिया के बीच गतिशील पारस्परिक बातचीत पर ध्यान देते हुए एक गतिशील सामाजिक संदर्भ में समझा जाना चाहिए। ये ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें अंतर्निहित मानसिक प्रक्रियाएँ एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


यह वर्णित करते हुए कि किस तरह एक पिस्सू को एक काँच के बर्तन में कैद कर कूदना छोड़ने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, शिमोजो ने सीखे असहाय के प्रमाण की बात की, जो कि अवसाद के रूप में जापानियों को ग्रसित कर रही है। यह ऐसा अवसाद है जिसके कारण गणनानुसार अर्थव्यवस्था पर २५ अरब $ का खर्च है। उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में स्वस्थ और बीमार होने के बीच का अंतर केवल मानसिक स्थिति नहीं है पर गतिशील छोर भी शामिल है, जिसमें शरीर और सामाजिक परिवेश भी निहित है। उन्होंने लोगों में निहित तुल्यकालन का संदर्भ दिया, जो उस समय देखने में आता है जब लोग साथ चलते हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि ११ मार्च फुकुशिमा परमाणु आपदा विभिन्न संकटों में से एक है, जो चित्त में निहित अस्पष्ट पहलुओं की एक गहन समझ की आवश्यकता बताती है।

परम पावन ने घोषित किया कि वह एक प्रश्न पूछना चाहते हैं। उन्होंने ऐसे मित्रों का वर्णन किया जिन्होंने ध्यान के स्तर का इतना विकास कर िलया था कि वे ३-४ घंटे के लिए वस्तु पर ध्यान केंद्रित रह सकते हैं। क्या यह संभव है? विभिन्न पर्यावरणीय कारकों के प्रश्न को उठाते हुए उन्होंने सुझाव दिया कि ऐसे ध्यानी को एक बड़े शहर में अपना अभ्यास बनाए रखना चाहिए। प्रशिक्षण के माध्यम से आप में दिन के २४ घंटे शांत बने रहने की क्षमता होनी चाहिए।

"यद्यपि मुझे गहन अनुभव नहीं है, मुझे लगता है पिछले २५ वर्षों में, मैं कुछ सुधार देख सकता हूँ। उत्तरी यूरोप के कई भागों में शीतकाल के पूरी तरह से काले दिनों और गर्मियों में आधी रात में सूरज का प्रभाव का पता जानने में मेरी रुचि होगी। मैं कभी कभी अपने को सोने वाला दलाई लामा कहता हूँ क्योंकि मुझे रात में एक अच्छी नींद बहुत प्रिय है।"

परम पावन ने यह भी बताया कि करुणा के प्रज्ञा के साथ संयुक्त होने की आवश्यकता है। प्रज्ञा के बिना करुणा दुर्बल है।

"हम सामाजिक प्राणी हैं," उन्होंने कहा, "और हम अब और एकाकी में नहीं रह सकते। हम एक बड़े पूर्ण का भाग हैं। यह जापानियों और तिब्बतियों दोनों के िलए सच है। जब लोग मुझसे अपनी कठिन समस्याओं के बारे में बताने आते हैं तो मैं कभी कभी उन्हें एक व्यापक परिप्रेक्ष्य और यह भावना देने के लिए कि वे अकेले नहीं हैं अपनी कठिनाइयाँ उन्हें बताता हूँ।"


दोपहर के भोजन के लिए एक अंतराल के पश्चात, डॉ. बैरी केर्ज़िन ने जप माला को चित्त अथवा चेतना के एक सादृश्य के रूप में प्रस्तुत किया, धागे को उसकी निरंतरता तथा मोतियों को एक के बाद एक आते हुए चित्त के क्षणों के समान। इसका घेरा भी मन के न प्रारंभ और न ही अंत होने की ओर संकेत करता है। उन्होंने आगे ६ विज्ञान और ५१ चैत्य की शास्त्रीय बौद्ध प्रस्तुति का वर्णन किया। चैत्य के ५ इंद्रियों से संबंधित होते हैं, छटा मानसिक चेतना होती है। यह स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतम हो सकता है। स्थूल चित्त हमारा साधारण चित्त है, सूक्ष्म चित्त, उदाहरण के लिए स्वप्नावस्था में स्थित चित्त जब कि इंद्रियाँ निष्क्रिय होती है। एक और सूक्ष्म चित्त, गहन निद्रावस्था का होता है। प्रशिक्षण द्वारा इन अंतर्निहित चित्तों को स्पष्ट किया जा सकता है। सूक्ष्मतम, धारणा - रहित, अद्वैत - चित्त मृत्यु के समय होता है।

डॉ. केर्ज़िन ने न केवल उस समय होते विघटन के दौरान के ८ दृश्यों को वर्णित किया पर चित्र भी उपलब्ध कराए। इन दृश्यों के लिए कहा जाता है कि ये मरीचिका, निकलते धुएँ, जुगनुओं की तरह चमकते, अंधेरे कमरे में एक दीपक, चन्द्रमा के प्रकाश, सूर्यास्त की तरह बढ़ती लालिमा, काला निकट प्राप्ति और अंत में प्रभास्वरता की तरह होते हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि निपुण साधक, नैदानिक ​​मृत्यु के पश्चात उस प्रभास्वरता में प्रवेश कर कुछ समय के लिए रह सकते हैं।
 
"आप ने जिस अद्वैत की बात की," परम पावन ने कहा, "को विषय और वस्तु के बीच अंतर के अभाव के रूप में समझा जाना चाहिए।"

न्यूयॉर्क में नैदानिक ​​मनोविज्ञान अध्यापन के २० वर्षों के बाद, जुन्को तनाका - मतसुमी, अब क्वानसेइ गाकुइन विश्वविद्यालय में मानविकी के डीन हैं। उन्होंने यह कहते हुए कि बच्चों के चित्त क्षण प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं, बच्चों के चित्त के मानचित्रण की एक प्रस्तुति दी। उन्होंने ध्यान आकर्षित किया कि जब आप देखते हैं कि विज्ञान शिक्षा के प्रावधान में विश्व में जापान का द्वितीय स्थान है तो ऐसा प्रतीत होगा कि जापानी शिक्षा प्रणाली में सब कुछ ठीक है। परन्तु कक्षा में ऐसे बच्चे हैं जो यह नहीं समझ पाते कि शिक्षक क्या कह रहे हैं। उनका व्यवहार भंग करना होता है जैसे अपने स्थानों पर न होना। किन्तु समरूपता की भावना के कारण उनके लिए कोई विशेष सहायता या प्रावधान नहीं बना है और वास्तव में उनके माता - पिता, को भी इसकी खोज नहीं होती है, क्योंकि वे नहीं चाहते कि उनके बच्चा में अलग होने की भावना आए। उन्होंने सलाह दी कि सरल उपाय कि ऐसे बच्चों को स्पष्ट कर दिया जाए कि उन्हें क्या करना चाहिए और उन्हें चेतावनी के रूप में एक कार्ड देना प्रभावशाली होगा। बच्चों में सकारात्मक व्यवहार का सुदृढीकरण भी उनके आत्म - सम्मान को बढ़ाता है और अपने सहपाठियों के साथ सकारात्मक व्यवहार प्रोत्साहित करता है।

परम पावन संदर्भित बच्चों की आयु जानना चाहते थे; वे ७-९ वर्ष की आयु के थे।

अंतिम प्रस्तुति, मकोतो नगाओ की थी, जो प्रारंभ में क्योतो विश्वविद्यालय से शुरू में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के पश्चात, कई अन्य विषयों के साथ प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण और मशीन अनुवाद में एक प्रतिष्ठित कैरियर में अग्रणी थे। उन्होंने कहा कि चित्त का सबसे अच्छा प्रकार्य या उसका उत्तम मानचित्रण बातचीत में स्पष्ट होता है और इसे परिचारक रोबोट के विकास के विशेष क्षेत्र में लागू किया। ऐसे रोबोट में उनके साथ बातचीत की क्षमता होनी चाहिए जिनकी वे देखभाल कर रहे हैं। महत्त्वपूर्ण रूप से उनमें लोगों की माँगों के अनुमान से व्यवहार की क्षमता होनी चाहिए ताकि वे उचित प्रतिक्रिया और उचित उत्तर उत्पन्न कर सकें। डॉ. नागाओ ने कहा कि रोबोट बातचीत प्रणाली को विकसित करने से न केवल उन लोगों को सहायता मिलेगी जिनकी देखभाल रोबोट कर रहा है, पर यह उस स्पष्टीकरण की ओर ले जाएगा कि चित्त की बाह्य उत्तेजनाओं के प्रति क्या प्रतिक्रिया है, जो मानसिक प्रकार्य की समझ में सहायक होगा। यह चित्त के मानचित्रण का एक असामान्य मार्ग होगा।


डॉ. नागाओ ने पुष्टि की कि उन्हें जिस कार्य के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है, उसके अनुसार रोबोट बनाए जा सकते हैं, फिर चाहे परिचारकों के रूप में, अग्निशमन या क्षतिग्रस्त परमाणु प्रतिष्ठानों के साथ काम करना हो। परम पावन ने हँसते हुए कहा कि निश्चित रूप से रोबोट स्नेह प्रदर्शित करने में सक्षम नहीं होगा, पर कम से कम यह क्रोधित न होगा।

इस प्रश्न के उत्तर में कि वे किन लोगों के बारे में सोचते हैं जो इस प्रकार की बैठकों से लाभान्वित होंगे, उन्होंने कहा:
"मैं सदा सोचता हूँ कि आज जीवित ७ अरब मनुष्य शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक रूप से एक समान हैं। बाह्य रूप से चीजें अलग हो सकती है, किन्तु कई हजार वर्षों के पूर्व भी हमारी भावनाएँ ऐसी ही रही होगी। एक समय बुद्ध हमारी ही तरह थे, पर दृढ़ता और कठोर परिश्रम से उन्होंने अपने चित्त को परिवर्तित किया। वैज्ञानिकों के साथ इन ३० वर्षों की भागीदारी में हमने कई उपयोगी चीजें सीखी है और यदि वे केवल विनम्र नहीं हैं तो वैज्ञानिक भी चित्त के विषय में बहुत कुछ सीख रहे हैं। हम दोनों मिलकर शिक्षा प्रणाली में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता लागू करने के एक पाठ्यक्रम पर कार्य कर रहे हैं। वैज्ञानिक इस परियोजना में भौतिक पुरस्कार की इच्छा से कार्य नहीं कर रहे पर, इसलिए कि यह लंबी अवधि का लाभ प्रदान करेगा। हमारा उद्देश्य एक अधिक सुखी मानवता है और यह मात्र प्रार्थना या इच्छाधारी सोच से नहीं अपितु हमारे क्लेशों से व्यवहार करने को सीखने से प्राप्त होगी।"

सभी उपस्थित लोगों से फुकुशिमा परमाणु दुर्घटना के कारण उत्पन्न हुई समस्याओं के समाधान में सहयोग हेतु अपील की गई। परम पावन ने उल्लेख किया कि वह हाल ही में सेंडाइ में थे। उनके पास कोई तात्कालिक उत्तर नहीं था क्योंकि जैसा उन्होंने कहा, सम्पूर्ण परमाणु का प्रश्न और ऊर्जा उत्पन्न करना जटिल है। वह एक ऐसे भविष्य की ओर देख रहे हैं जब सौर ऊर्जा पर निर्भर होना संभव पाएगा।


आर्थर ज़ाजोंक, माइंड एंड लाइफ इंस्टिट्यूट के अध्यक्ष अपने समापन भाषण में पुनः परिचार की ओर लौटे। उन्होंने विकास कर रहे कॉल टु केयर और परिचार के तीन चरण परिचार ग्रहण करना, अपनी ओर ध्यान देना और दूसरों की देखभाल करना शैक्षिक पाठ्यक्रम की ओर ध्यान आकर्षित किया। परम पावन को उनकी उपस्थिति के लिए धन्यवाद देने के साथ साथ उन्होंने सब प्रस्तुतकर्ताओं और उन लोगों को, जिनकी देख रेख और संस्थान के कारण बैठक सफलता पूर्वक सम्पन्न हुई, का धन्यवाद दिया। एड्रियन फ्रीडमैन ने शाकुहाची, परंपरागत जापानी बांस बांसुरी पर एक छोटी पारंपरिक धुन बजाई और कार्यक्रम का उचित रूप से समापन किया।

कल परम पावन जापानी बौद्ध धर्म की शिंगोंन परंपरा के मुख्यालय कोयासान स्थान जाएँगे

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