परम पावन 14 वें दलाई लामा
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लिकिर, लद्दाख में शून्यता और प्रतीत्य समुत्पाद पर प्रवचन २/जुलाई/२०१४

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लिकिर, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर, भारत - १ जुलाई २०१४ - परम पावन दलाई लामा आज प्रातः तड़के ही लिकिर विहार के नीचे हाल ही में निर्मित किए गए प्रवचन स्थल पर पहुँचे। नभ हल्के मेघों से आच्छादित था और उन्हें सुनने आए अनुमानित १५,००० लोगों को छाया प्रदान कर रहा था। जब प्रारंभिक प्रार्थना का पाठ समाप्त हो गया तो उन्होंने सलाह दी कि जब भी बौद्ध प्रवचन दिए जाते हैं तो गुरु और शिष्यों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे एक अच्छी प्रेरणा का विकास करें। तत्पश्चात परम पावन ने त्रिरत्न में शरणगमन और बोधिचित्तोत्पाद के छंदों के पाठ में सभा का नेतृत्व किया।


यह टिप्पणी करते हुए कि यह प्रवचन आसन्न कालचक्र अभिषेक के लिए एक प्रकार की तैयारी होगी, परम पावन ने भावविभोर जनसमुदाय से कहा कि लगभग १२ वर्ष पूर्व उन्होंने १७ नालंदा के पंडितों की स्तुति में कुछ छंदों की रचना की थी जिस पर व्याख्या करने की वे आशा रखते हैं।

"हमारा अभ्यास नागार्जुन, आर्यदेव, चन्द्रकीर्ति और शांतिदेव जैसे नालंदा आचार्यों की लिखित रचनाओं से लिया गया है। उन्होंने जिन ग्रंथों की रचना की उन्हीं का अध्ययन हम महान विहारों में कर रहे हैं। ये १७ पंडित हमारी परंपरा के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। हमारी विभिन्न परंपराओं ञिङ्मा, सक्या, काग्यु,जोनंग और गेलुग के बीच के अंतर उन शिक्षाओं में हैं जिनका वे पालन करते हैं जो कि अपने मूल रूप में विशिष्ट व्यक्तियों के लिए उद्देशित थे जबकि नालंदा पंडितों की शिक्षाएँ, जैसा मैंने कल कहा सभी के लिए समान हैं। परिणामस्वरूप तिब्बती बौद्ध धर्म का मूल नालंदा परम्परा से लिया गया है।"

परम पावन ने समझाया कि बुद्ध के काय, वाक् और चित्त की गतिविधियों में सबसे महत्वपूर्ण उनका वाक् था। यद्यपि हम सुंदर प्रतिमाओं से उनका स्मरण करते हैं, पर उन्होंने जो कहा वह अधिक महत्वपूर्ण है। उनकी प्रतीत्य समुत्पाद की व्याख्या, वह दृष्टि जो शून्यवाद और नित्यता की दोनों अतियों को नकारती है, मध्यम मार्ग जो कि सबसे महत्वपूर्ण है। नालंदा के पंडितों ने इस दृष्टि को स्पष्ट करने के लिए कई ग्रंथ लिखे।

परम पावन ने कहा कि नालंदा के सत्रह महापंडितों की इस प्रार्थना में नागार्जुन से प्रारंभ कर उन्होंने सभी के नामंों का उल्लेख किया है। सबसे प्रथम छन्द प्रतीत्य समुत्पाद की शिक्षा देने के लिए बुद्ध की प्रशंसा में है जबकि दूसरा उसका स्पष्टीकरण देने के लिए नागार्जुन की प्रशंसा करता है। नागार्जुन ने जो कहा था उसे आर्यदेव ने सविस्तार समझाया। उसके बाद बुद्धपालित आए जिन्होंने अस्पष्ट बिंदुओं का समाधान किया तथा प्रासंगिक मध्यमक का सिद्धांत दिया। भावविवेक जिन्होंने 'तर्कज्वाला' की रचना की, ने स्वातंत्रतिक मध्यमक नाम से एक वैकल्पिक सिद्धांत की प्रतिष्ठा की जो नैरात्म्य पर तो बल देता है पर सस्वभाव को स्वीकार करता है। प्रासंगिक मध्यमकों में इसको लेकर विवाद है। यद्यपि जो भावविवेक ने लिखा था वह अत्यंत स्पष्ट था, पर चन्द्रकीर्ति ने यह समझाते हुए कि किस प्रकार आंतरिक स्वभाव के अस्तित्व के अभाव में भी वस्तुओं का सांवृतिक स्तर पर अस्तित्व रहता है, उस दृष्टिकोण को और भी स्पष्ट कर दिया। शांतिदेव भी प्रासंगिक थे जिन्होंने 'शिक्षा समुच्चय' की रचना की जो कि ग्रंथों के उद्धरणों पर आधारित थी। अपने 'बोधिसत्वचर्यावतार' में उन्होंने कारण और तर्क के आधार पर बोधिसत्व के मार्ग तथा छह पारमिताओं की रूप रेखा दी।

अगले शांतरक्षित हैं, जिन्होंने योगाचार स्वातंत्रिक मध्यमिक नाम से अपने मार्ग की प्रतिस्थापना की, जिसने निहित स्वभाव को स्वीकार किया परन्तु बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को नकारा। प्रासंगिकों ने इसे चुनौती दी। जब वे ७० वर्ष के थे तो तिब्बती सम्राट, ठिसोंग देचेन ने शांतरक्षित को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित किया और उन्होंने उसे स्वीकार किया तथा अपने जीवन के शेष १९ वर्ष बौद्ध धर्म के शिक्षण में लगाए। उन्होंने भारतीय बौद्ध साहित्य का तिब्बती में अनुवाद करने की एक महत्वपूर्ण परियोजना भी प्रारंभ की और यहाँ तक ​​कि अपनी वयोवृद्धावस्था में तिब्बती भाषा सीखी ताकि वे स्वयं इस प्रक्रिया में सम्मिलित हो सकें। यह उन्ही की प्रेरणा का परिणाम है कि आज हमारे पास कांग्युर (बुद्ध के अनुवादित शब्द) के १०० से अधिक और तेंग्युर (बाद के आचार्यों के भाष्य) के २२० संग्रह हैं।

सम्ये, प्रथम विहार था जो तिब्बत में बनाया गया और इसमें ध्यान, तांत्रिक अभ्यास, अनुवाद इत्यादि शामिल थे। ऐसा हुआ कि ध्यान वर्ग में चीनी भिक्षुओं ने ध्यान की एक विद्या प्रारंभ की जो गैर धारणात्मकता पर थी जिसके विषय में उन्होंने घोषणा की, कि वह सबसे अधिक प्रभावी है। ठिसोंग देचेन ने शांतरक्षित के शिष्य कमलशील को इस अभ्यास के प्रभाव पर इन भिक्षुओं से शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने उन भिक्षुओं को पराजित किया और वे तिब्बत से निष्कासित कर दिए गए। परम पावन ने टिप्पणी की:

"आज भी मैं जापान में बौद्धों से मिलता हूँ जो मुझे बताते हैं कि गैर धारणात्मकता ध्यान से बुद्धत्व प्राप्त किया जा सकता है, पर वहाँ प्रज्ञा का कोई स्थान नहीं है। मुझे लगता है कि यह जानना महत्वपूर्ण है कि प्रबुद्धता की प्रप्ति के लिए ध्यान पारमिता नहीं अपितु प्रज्ञा पारमिता पर अधिक बल दिया गया है।"

परम पावन ने कहा कि नागार्जुन से लेकर कमलशील तक की वंशावली को श्रेष्ठ दृष्टिकोण के रूप में माना जाता है। एक और वंशावली जो चित्त मात्र परम्परा के असंग से प्रारंभ होती है वह मार्ग की वंशावली है। असंग के भाई वसुबंधु अभिधर्म के महान विद्वान थे। उनके बाद महान तर्कशास्त्री दिङ्नाग और धर्मकीर्ति आए जो विशेषकर अबौद्ध दृष्टिकोणों का खंडन करने में प्रभावी रहे। विमुक्तिसेन ने 'अभिसमयालंकार' समझाया जबकि गुणप्रभ ने विनय निकायों पर भाष्य लिखा जिसके बाद शाक्यप्रभ ने विनयशासन लिखा।



अंतिम अतीश दीपांकर थे, जिन्होंने तिब्बत में अपने सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ 'बोधि पथ प्रदीप' की रचना की जिसमें उन्होंने तीन श्रेणी के आध्यात्मिक अभ्यासियों की व्याख्या की। परम पावन ने यह बात दोहराई कि इन १७ नालंदा पंडितों के ग्रंथ तिब्बती बौद्ध परंपरा की नींव हैं।

"मैं जो कहना चाहता हूँ वह यह है कि नालंदा के इन महान पंडितों ने गहन अध्ययन किया और जो कुछ भी उन्होंने सीखा उसे वे अभ्यास में लाए, जैसा कि हमने उनके उदाहरण का अनुसरण करते हुए तिब्बत में किया।"

प्रज्ञा पारमिता के व्यापक मध्यम और लघु संस्करण हैं, जिसमें हृदय सूत्र सबसे छोटा है। परम पावन ने उल्लेख किया कि उत्तरी बौद्ध विश्व के चीन, कोरिया, जापान, वियतनाम, तिब्बत, मंगोलिया और हिमालय क्षेत्र में हृदय सूत्र का सम्मान और पाठ होता है। वहाँ कहे अनुसार हम जो भी अभ्यास करें वह शून्यता की समझ के साथ होनी चाहिए, अन्यथा हम बुद्धत्व तक नहीं पहुँच पाएँगे। सूत्र हमें बताता है कि जब बुद्ध प्रज्ञा के एक अंग पर गंभीर समाधि में लीन थे तो बोधिसत्व अवलोकितेश्वर भी चिंतन कर रहे थे कि पंच स्कंध, जो कि व्यक्ति के आधार हैं, भी शून्य हैं। परम पावन ने इंगित िकया कि इस संदर्भ में 'भी' शब्द जो दोनों, मूल संस्कृत और ग्रंथ के तिब्बती संस्करणों में मिलता है, वह चीनी संस्करणों और इनसे जो निकले हैं उनमें नहीं है।

जब पाठ कहता है, 'रूप शून्यता है, शून्यता रूप है', तो परम पावन ने समझाया कि इसका अर्थ यह है कि कोई आंतरिक इकाई नहीं पाई जा सकती। यह शून्य है क्योंकि यह अन्य हेतुओं और परिस्थितियों के कारण अस्तित्व रखता है। हम यह भी कह सकते हैं कि वस्तुएँ प्रकट होती हैं पर फिर भी उनमें स्वभाव शून्यता है। इसे समझने तथा व्याख्यायित करने के लिए हमें नागार्जुन की व्याख्या को समझना होगा कि वस्तुओं का सांवृतिक रूप में अस्तित्व है पर आंतरिक अस्तित्व का अभाव होता है। शून्यता में प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ निहित है।

एक परिणाम एक हेतु पर निर्भर करता है, पर प्रतीत्य समुत्पाद के संदर्भ में हम यह भी कह सकते हैं कि हेतु परिणाम पर निर्भर करता है, जिस तरह कार्य, कर्ता और वस्तु एक दूसरे पर निर्भर करते हैं।

परम पावन ने यह भी उल्लेख किया कि हृदय सूत्र का मंत्र, 'तद्यथा गते गते पारगते, पारसंगते बोधि स्वाहा' उन परिवर्तनों की ओर संकेत करता है जो एक अभ्यासी के आध्यात्मिक मार्ग के विकास में होते हैं। उन्होंने कहा कि हमारे अभ्यास में उस समय तक क्रमशः सुधार होना चाहिए जब तक कि अंततः हम भी सम्यक् संबुद्ध न बन जाएँ। इसकी कुंजी शून्यता की समझ है, क्योंकि केवल यही अज्ञान और क्लेशों का प्रतिद्वंद्वी है जो दुख को जन्म देते हैं। प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाओं के दो पहलू हैं ः शून्यता, जिस की व्याख्या नागार्जुन ने की और असंग द्वारा समझाया गया मार्ग के चरण।

परम पावन ने फिर जे चोंखापा के ग्रंथ 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तव' के अधिगमन करने के उद्देश्य की घोषणा की जो शून्यता और प्रतीत्य समुत्पाद दोनों के महत्व पर बल देता है। उन्होंने सुझाव दिया कि यह अच्छा होगा कि प्रतिदिन हृदय सूत्र का पाठ करने के पश्चात इस ग्रंथ का पाठ करें। उन्होंने कहा कि शून्यता और प्रतीत्य समुत्पाद पूरक हैं। यदि प्रतीत्य समुत्पाद आपको शून्यता के विषय में सोचने पर प्रेरित करता है और उसी समय शून्यता आपको प्रतीत्य समुत्पाद के विषय में सोचने के लिए प्रेरित करती है तो आपकी शून्यता की समझ उचित है।

जे चोंखापा को जो व्याख्याएँ मिली थीं वे उससे असन्तुष्ट थे और उन्होंने ढँूढकर उस समय प्राप्त शून्यता पर सभी ग्रंथ और उनके भाष्य पढ़े और जो कुछ पढ़ा उसका विश्लेषण करने के उपरांत सही दृष्टिकोण पर पहुँचे। एकांतवास में उन्हें मंजुश्री के दर्शन हुए जिसके बाद उन्होंने बुद्धपालित का भाष्य पढ़ा और शून्यता की पूर्ण अनुभूति प्राप्त की। उन्होंने समझा, कि चूँकि वस्तुएँ अन्य कारकों पर निर्भर करती हैं, अतः वे आंतरिक रूप से स्वभाव रहित हैं, पर वे अस्तित्वहीन नहीं हैं। न ही अस्तित्व हीन होकर या स्वभाव सत्ता से अस्तित्व रखते हुए वे एक प्रकार्य धर्म के रूप मे अस्तित्व रखती हैं, पर केवल ज्ञापित रूप में। परम पावन से परिचित वैज्ञानिक उनकी इस व्याख्या की सराहना करते हैं।

परम पावन ने इंगित किया कि जब हम कुछ भी देखते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने स्वभाव लिए अस्तित्व में है, हम उसे अन्य कारकों पर निर्भर हुए रूप में नहीं देखते। उन्होंने कहा कि जब हम उन्हें देखते हैं, तो वह ठोस रूप में अस्तित्व लिए जान पड़ते हैं पर फिर भी तर्क हमें बताता है कि वस्तुतः ऐसा नहीं है।
 


प्रवचन परम पावन दलाई लामा की दीर्घायु के लिए एक छोटी प्रार्थना के साथ संपन्न हुआ। उन्होंने कहा कि हमें इस तरह के अनुष्ठानों को सबसे महत्वपूर्ण नहीं समझना चाहिए। हमारी वास्तविक आवश्यकता प्रतीत्य समुत्पाद की समझ के लिए अध्ययन करने की है। जब प्रार्थना समाप्त हुई तो उन्होंने उन सभी को धन्यवाद दिया जिन्होंने उस आयोजन को संभव बनाने में योगदान दिया था।

लेह लौटते हुए गाड़ी में यात्रा के दौरान, परम पावन बासगो में एक भिक्षुणी आश्रम देखने के लिए रुके, जहाँ एक शिक्षण केंद्र स्थापित किया जा रहा है। उन्होंने वहाँ जो कुछ देखा उससे वे बहुत प्रसन्न थे तथा जिन भिक्षुणियों और डच समर्थकों से उनकी भेंट हुई, उनसे उन्होंने अपने अच्छे कार्य को बनाए रखने के लिए कहा।

कालचक्र अभिषेक की आनुष्ठानिक तैयारियाँ ३ जुलाई से प्रारंभ होगी जबकि प्राथमिक शिक्षाएँ ६ जुलाई से शुरू होंेगी।

जिनकी रुचि है उनके लिए श्री नालंदा के सत्रह महापंडितों की प्रार्थना श्रद्धात्रय प्रकाशन का अनुवाद यहाँ उपलब्ध होगा
http://www.thubtenchodron.org/PrayersAndPractices/illuminating_the_threefold_faith.html

और जे चोंखापा का 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तव' का अनुवाद यहाँ पाया जा सकता है:
http://www.berzinarchives.com/web/en/archives/sutra/level2_lamrim/advanced_scope/voidness_emptyness/praise_dependent_arising.html

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