परम पावन 14 वें दलाई लामा
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शिलांग पोलो मैदान में अभिषेक तथा प्रवचन ५/फरवरी/२०१४

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शिलांग, मेघालय, भारत - ४ फरवरी २०१४ - शिलांग की ऊपर पहाड़ियों के लुंपारिंग गाँव में छिपा गदेन छोलिंग एक छोटा सा तिब्बती विहार है। मूल रूप से यह भूटान से ९१५७ में किसी के द्वारा स्थापित किया गया था, पर बाद में यह गेलुक मगोन, जो कि सेरा, डेपुंग और गदेन विहारंों का एक साझा निकाय है, के प्रशासन के अधीन आ गया है। डेपुंग लोसेलिंग वर्तमान प्रशासक है। एक दर्जन निवासी भिक्षु युक्त, यह १००० तिब्बतियों के लिए, जिनमें से कई शिलांग में रहते हैं, प्रमुख पूजा स्थल है। परम पावन दलाई लामा आज प्रातः थोड़ी देर के लिए विहार गए। जैसे ही वह गाड़ी से होते हुए निकले तिब्बती और अन्य कौतूहल भरे स्थानीय निवासी सड़क पर पंक्ति में खड़े थे। उनके आगमन पर तिब्बती बच्चों ने पारम्परिक ढंग से उनका स्वागत किया।


छोटे से मंदिर के अंदर, परम पावन ने सर्वप्रथम बुद्ध की प्रतिमा के समक्ष श्रद्धा अर्पित की। तत्पश्चात उन्होंने अभिषेक की पवित्र प्रार्थनाओं का पाठ किया और समर्पण के रूप में अनाज के दाने हवा में बिखराए। उन्होंने दीवारों के चारों ओर लगी मूर्तियों को ध्यान से देखा और अपना आसन ग्रहण किया। यह देखने पर कि कांग्युर तथा तेंग्युर के ग्रंथ दीवारों के ऊपरी भाग में ठीक छत के नीचे आले में रखे गए हैं, उन्होंने दृढ़ सलाह दी कि बेहतर यह होगा कि वे नीचे के खाने में रखी जाए ताकि वे अधिक सहजता से दिखाई दें और अधिक सुलभ हों। परम पावन के साथ आए आगंतुकों, भिक्षुओं और सहायक स्थानीय भारतीय मित्रों को चाय तथा समारोह से संबंधित चावल दिए गए।

परम पावन ने वहाँ एकत्रित लोगों से कहा कि वे प्रायः तिब्बतियों और अन्य लोगों को २१वीं सदी के बौद्ध होने की आवश्यकता की सलाह देते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि उन्हें केवल मंत्र पाठ और प्रार्थना से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि बौद्ध धर्म का क्या अर्थ है जिसके लिए अध्ययन और सीखने की आवश्यकता है। उन्होंने प्रबल रूप से सलाह दी कि विहार शिक्षण का एक केन्द्र बने, एक ऐसा स्थान जहाँ बौद्ध और अन्य अध्ययन कर सकें और जो सीखा है उस पर चर्चा कर विचारों का आदान प्रदान कर सकें। नालंदा परम्परा के अनुकरण करने का यही मार्ग है।

जब परम पावन शिलांग पोलो मैदान पहुँचे, तो उनके प्रवचन में भाग ले रहे सभी ५००० लोग पहले से ही अपने स्थानों पर पहुँच चुके थे। जबकि श्रोता ऊँ मणि पद्मे हुँ का जाप कर रहे थे और भिक्षुओं का एक दल उत्साह से शास्त्रार्थ में लगा हुआ था, उन्होंने अवलोकितेश्वर अभिषेक की आनुष्ठानिक तैयारी प्रारंभ कर दी। उन्होंने समझाया कि बौद्ध धर्म के परिचय के रूप में वे 'बोधिसत्व के ३७ अभ्यास' पढ़ेंगे। परम पावन के शब्दों के मोंपा भाषा, भूटानी और अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिए तत्काल व्यवस्था की गई।


"इस विश्व में कई धर्म हैं", परम पावन ने प्रारंभ किया,"जिनमें से बौद्ध धर्म एक है। वे सभी प्रेम और करुणा, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन का संदेश देते हैं। यह विभिन्न दार्शनिक विचारों द्वारा समर्थित है। कइयों के लिए, ईश्वर, सृजनकर्ता अनंत प्रेम और करुणा का साकार रूप है। दूसरों के लिए जैसे बौद्धों, जैनियों और सांख्य की एक शाखा के लिए कोई सृजनकर्ता नहीं अपितु कार्य कारण का नियम है। बौद्ध धर्म विशेष रूप से अन्योन्याश्रितता की शिक्षा देता है। यदि आप दूसरों को हानि पहुँचाएँगे तो दुःख आपका पीछा करेगा; उनकी सहायता करने का परिणाम सुख होगा। अंतिम परिणाम भी प्रेम और करुणा का विकास है। चूँकि उन सबों में कुछ समानताएँ है इसलिए हमें सभी धार्मिक परंपराओं का सम्मान करना चाहिए।"

"मैं प्रायः दोहराता हूँ, जो मैंने एक सूफी को कहते सुना है कि दार्शनिक विचारों वाली धार्मिक परंपराएँ आम तौर पर तीन प्रश्नों का उत्तर देती हैं कि - आत्मा क्या है? क्या इसका कोई प्रारंभ है और क्या इसका कोई अंत होता है? बौद्ध कहते हैं कि आत्मा मात्र मानसिक और शारीरिक स्कंधों पर ज्ञापित होता है। हमारे शरीर और चित्त के अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है। अन्य परम्पराएँ उनसे पृथक एक आत्मा पर बल देती है। प्रारंभ के विषय में दूसरे प्रश्न पर, सृजनकर्ता ईश्वर पर विश्वास करने वाले कहते हैं, कि उसने आत्मा को बनाया है, अतः वह प्रारंभ है। अन्य कहते हैं कि उसने उसे बनाया है और वह एक जीवन से दूसरे जीवन में जाती है। बौद्ध स्थिति यह है कि आत्मा चित्त और शरीर के आधार पर ज्ञापित किया जाता है, पर वह अंततः न ही भौतिक है न चेतना के रूप में उसका प्रारंभ है, आत्मा का भी नहीं।"

"ईश्वर में विश्वास करने वाले कहते हैं कि आत्मा स्वर्ग अथवा नरक में जाती है, और मैंने पूछा है पर मुझे कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिला, कि उसके बाद क्या होता है। चूँकि ईश्वर का वर्णन अनंत प्रेम के संदर्भ में किया जाता है, ईश्वर की कृतियों में उस प्रेम की चिंगारी है। यह बुद्ध प्रकृति की व्याख्या के विपरीत नहीं है। आत्मा के अंत के संबंध में हिंदुओं का सुझाव है कि वह वापस महत् आत्मन में घुल जाती है, और जैनियों और सांख्यायिकों का दावा है कि आत्मा का अस्तित्व है और उसे मुक्ति मिलती है। बौद्ध धर्म में हम कहते हैं कि हमारे चित्त से नकारात्मक भावनाओं को समाप्त किया जा सकता है जिस प्रकार प्रकाश की उपस्थिति से अंधकार नष्ट होता है। अज्ञान और क्लेशों पर उस समय काबू पाया जा सकता है और उन्हें दूर किया जा सकता है जब हम प्रतिकारक तत्वों का प्रयोग करते हैं, जो समझ और जागरूकता हैं।"


परम पावन ने स्मरण किया कि बुद्ध ने पहली बार वाराणसी में पहले पाँच मानव शिष्यों को चार आर्य सत्य की शिक्षा दी। सबसे पहले उन्होंने सलाह दी कि वे अपने चीवर कैसे धारण करें जो कि विनय के अनुशासन का अंग था। सूत्र बताते हैं कि उन्होंने ध्यान तथा प्रज्ञा की भी शिक्षा दी। पालि और संस्कृत दोनों परंपराओं के अनुयायियों के लिए, भिक्षु संवर मूलतः एक ही हैं। ध्यान का विवरण भी एक ही है। पर जिस तरह उन्होंने गृद्धकूट में प्रज्ञा के विषय में शिक्षा दी, प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ, वे संस्कृत परंपरा में अद्वितीय है। यह शिक्षाएँ चीन पहँुची और वहाँ से तिब्बत पहुँच गयी पर अंततः तिब्बती सम्राट, ठिसोंग देचेन ने भारत से शांतरक्षित को आमंत्रित किया, जो तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रसार का वास्तविक प्रारंभ था।

परम पावन ने सहस्र बाहु अवलोकितेश्वर का अभिषेक देना प्रारंभ किया, जिसके दौरान उन्होंने अपने श्रोताओं को बोधिचित्तोत्पाद और बोधिसत्व व्रतों से परिचित कराया।

मध्याह्न भोजनोपरांत उन्होंने पुनः शांतरक्षित का संदर्भ दिया, जो नालंदा विश्वविद्यालय के महान विद्वान थे। उनके शिष्य कमलशील इसी प्रकार एक विद्वान, दार्शनिक और तर्कशास्त्री थे। उन दोनों ने मिलकर अध्ययन, विद्वत्ता और अभ्यास पर आधारित एक परंपरा के रूप में तिब्बती बौद्ध धर्म की स्थापना की। बाद में महान तिब्बती विद्वानों जैसे, रोंगज़ोम छोजे और सक्या आचार्य बुतोन रिनपोछे जैसे सामने आए। इसके अतिरिक्त मंजुश्री के तीन महान रूप थे जैसे सक्या पंडित, लोंगछेन रबजम्पा तथा जे चोंखापा।

"इस ग्रंथ के लेखक, थोगमे संगपो, इस परंपरा के एक भाग हैं और वे एक प्रसिद्ध बोधिसत्व थे। मुझे खूनू लामा रिनपोछे से इस पाठ का मुखागम और व्याख्या प्राप्त हुई। लेखक अपने ग्रंथ का प्रारंभ लोकेश्वर की वन्दना के साथ करते हैं।"

अपने पढ़ने के दौरान परम पावन ने इंगित किया कि अज्ञान एक मिथ्या दृष्टि को अपनाना है। यह पीड़ा को जन्म देता है। स्वतंत्र रूप से अस्तित्व रखने के स्थान पर वस्तुएँ, अन्य कारकों पर निर्भर होकर अस्तित्व में आती है। वे इस को लेकर स्पष्ट थे कि मात्र प्रार्थना से इस अज्ञानता पर काबू नहीं पाया जा सकेगा। हम अशुद्ध को शुद्ध रूप में, दुखी को सुखी के रूप में देखते हैं। क्योंकि हम सोचते हैं कि हम सदैव जीवित रहेंगे, हममें वस्तुओं के प्रति ग्राह्यता की भावना होती है, इस जीवन के प्रति ग्राह्यता का भाव न रखना बोधिसत्व का अभ्यास है।


ग्रंथ का एक भाग एक आध्यात्मिक गुरु के गुणों के संदर्भ में है। विनय और सूत्र में इनके विभिन्न विवरण हैं, पर उनका संक्षेपीकरण उनके विद्वान, करुणाशील, विनम्र और अनुशासित होने के रूप में किया जा सकता है। परम पावन ने सलाह दी कि एक आध्यात्मिक गुरु के प्रति प्रतिबद्ध होने से पूर्व उनकी पहले जाँच करना महत्त्वपूर्ण है।

"बुद्ध ने चार आर्य सत्य, दुख, दुख समुदय, निरोध और मार्ग को समझाया। दुख को उन्होंने तीन स्तरों पर वर्णित किया, साधारण पीड़ा का दुख जो स्पष्ट है, जिस आनंद का हम अनुभव करते हैं उसके परिवर्तन का दुख, और संस्कार दुखता जो अस्तित्व को व्याप्त करती है। हमें इसका परीक्षण करना है कि दुख से उबरा जा सकता है अथवा नहीं। हम देखते हैं कि प्रतिरोधक बलों के प्रयोग से, दुखों पर विजय पाया जा सकता है। जहाँ अन्य परंपराओं में सांत्वना और शरण की अपनी विभिन्न वस्तुएँ हैं, बौद्ध  त्रिरत्न, बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेते हैं।"

"महत्त्वपूर्ण बात यह है कि धर्म का अध्ययन करें। कांग्यूर तथा तेंग्यूर में ३०० खंड में ग्रंथ हैं, जो मात्र सम्मान और भेंट की साधारण वस्तुएँ नहीं अपितु अध्ययन के िलए हैं। नालंदा के १७ पंडितों की प्रशंसा में मैंने इन बिन्दुओं पर लिखा है:

सत्य द्वय का अर्थ समझ जिस तरह से वस्तुओं का अस्तित्व है,
चत्वारि सत्य से जानें कि किस प्रकार आते हैं और भव चक्र छोड़ते हैं।
प्रमाण द्वारा अवबद्ध त्रिरत्न में हमारा विश्वास दृढ़ होगा
मुक्ति मार्ग के मूल को प्रतिस्थापित करने में हम धन्य हों।।"

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