परम पावन 14 वें दलाई लामा
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शुचि - इन विश्वविद्यालय में तिब्बती बौद्ध धर्म में तंत्र की व्याख्या १०/अप्रैल/२०१४

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क्योतो, जापान - १० अप्रैल २०१४ -  परम पावन दलाई लामा ने अपना दिन ओसाका से क्योतो की यात्रा करते हुए प्रारंभ किया, जहाँ शुचि - इन विश्वविद्यालय के डीन सुगुरि कौज़ुइ, जो नाकायामा डेरा मंदिर के प्रमुख विहाराधीश भी हैं, ने बड़े उत्साह से उनका स्वागत किया। शुचि- इन विश्वविद्यालय का इतिहास, शुगेइशुचि- इन अथवा कला और विज्ञान का संस्थान, जिसकी स्थापना क्योतो के तोजी मंदिर के प्रांगण में कुकाइ या कोबो डेइशी द्वारा ८२८ ई. में हुआ, तक जाता है । यह जापान की पहली शैक्षिणक संस्था थी, जो किसी भी छात्र की सामाजिक या आर्थिक स्थिति को लेकर सीमित न थी। वर्तमान शुचि -इन विश्वविद्यालय १९४९ में अपने वर्तमान स्थल पर पुनः प्रतिस्थापित किया गया।

खचाखच भरे सभागार में, परम पावन ने, मंच पर अपना आसन ग्रहण करते हुए, जो महावैरोचन की प्रतिमा के समक्ष था और जिसके दोनों ओर उनके मंडल द्वय थे, अपना व्याख्यान प्रारंभ किया।


"आपने मुझसे तिब्बती गुह्य मंत्र के बारे में बात करने का अनुरोध किया है। तिब्बतियों ने ७वीं शताब्दी में सोंगचेन गमपो, जिनकी चीनी और नेपाली, दो पत्नियाँ थी, के शासन काल में बौद्ध धर्म में रुचि लेना प्रारंभ दिया। दोनों अपने साथ बुद्ध की प्रतिमाएँ लेकर आईं थी, जो बौद्ध शिक्षा में रुचि के लिए संभावित प्रेरणा थी। बाद में ठिसोंग देचेन ने जाना कि बौद्ध धर्म का उदय भारत में हुआ और वह और अधिक ज्ञानार्जित करने के लिए उस ओर उन्मुख हुए। उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय से शांतरक्षित को आमंत्रित किया और उन्होंने ही तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रसार प्रारंभ किया। उन्होंने ही भारतीय बौद्ध साहित्य काे तिब्बती में अनुवाद करने की परियोजना को शुरू किया जो अंततः कांग्यूर और तेंग्यूर का संग्रह बना। उन्होंने 'मध्यमकालंकार' की रचना की, जिसका अध्ययन हम आज भी करते हैं, और 'तत्त्वसंग्रह'; प्रथम जो दर्शन का ग्रंथ है तथा दूसरा जो तर्क और ज्ञान - मीमांसा का है।"

शांतरक्षित के शिष्य, कमलशील, जो स्वयं एक बहुश्रुत विद्वान थे, को बाद में आमंत्रित किया गया। उन्होंने अपने गुरु के दोनों ग्रन्थों पर 'मध्यमकालंकार पञ्जिका' और 'तत्त्वसंग्रह पञ्जिका' लिखी। इन दोनों आचार्यों ने तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना के लिए प्रमुख उत्तरदायित्व लिया। पहले प्रवर्ज्यता के पश्चात शांतरक्षित ने मूलसर्वास्तिवादिन विनय की स्थापना की, जबकि दार्शनिक रूप से वे योगाचार माध्यमिक स्वातन्त्रिक दृष्टिकोण के प्रस्तावक थे, जिसने असंग और नागार्जुन दोनों के विचारों को संयुक्त किया था। उन्होंने शिक्षाओं के आधार के रूप में विनय की स्थापना की।

परम पावन ने समझाया कि गुरु पद्मसंभव बाधाओं को दूर करने के लिए उत्तरदायी थे। उपाध्याय (शांतरक्षित), आचार्य (पद्मसंभव) और धर्मराज (ठिसोंग देचेन), जिन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म की नींव रखी, आज त्रय के रूप में उनका स्मरण किया जाता है।

एक भिक्षु के रूप में शांतरक्षित ने स्वयं विनय का पालन किया, उनके 'मध्यमकालंकार' से संकेत मिलता है कि बोधिचित्त का विकास तथा शून्यता की समझ उनके अभ्यास का एक अंग थे, जबकि उनका एक और लेखन, 'तत्त्वसिद्धि नाम प्रकरण' के नाम से एक छोटा ग्रंथ यह संकेत करता है कि उन्होंने अनुत्तर योग तंत्र का अभ्यास भी किया था। संक्षेप में वह नालंदा परम्परा का एक आदर्श रूप थे ।

यह ऐसा दृष्टिकोण है जो हमें नागार्जुन तक ले जाता है, िजन्होंने विनय को आधार मानकर परात्मपरिवर्तन उपाय द्वारा बोधिचित्त का विकास िकया। उनका लेखन भी प्रज्ञा पारमिता सूत्र, शून्यता और अनुत्तर योग तंत्र के उत्पत्ति क्रम और निष्पन्नक्रम में संलग्न होने के स्पष्ट विषयों को प्रकट करता है। परम पावन ने कहा कि नागार्जुन के शिष्य आर्यदेव और चन्द्रकीर्ति ने इसी प्रकार के दृष्टिकोण का पालन किया। इससे एक अभ्यासी के तीन व्रतों, प्रतिमोक्ष व्रत, बोधिसत्व व्रत और तांत्रिक व्रतों के धारण करने के तिब्बती उद्गम का पता चलता है।

परम पावन ने अपने स्वयं का उदाहरण दिया। वह एक भिक्षु हैं; वह नित्य अपने बोधिसत्व व्रतों को दोहराते हैं और प्रतिदिन शून्यता पर चिंतन करते हैं और हर दिन छह इष्टदेव योग अभ्यास में संलग्न होते हैं।


तंत्रयान की उत्पत्ति के संबंध में उन्होंने कहा कि चार आर्य सत्य सभी बौद्ध शिक्षाओं का आधार हैं और उनमें से ३७ बोधिपाक्षिक धर्म निकाले गए हैं जो सभी परम्पराओं में समान हैं। फिर संस्कृत परंपरा में हम प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ देखते हैं जो गृध्रकूट पर ऐसे समूह के लिए दिए गए थे, जिनमें अवलोकितेश्वर, मंजुश्री और समन्तभद्र जैसे शिष्य शामिल थे। ये द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन की शिक्षाएँ हैं, जिनका संबंध पुद्गल नैरात्म्य और धर्म नैरात्म्य से है। उनमें हृदय सूत्र शामिल है जिसका हम सब पाठ करते हैं, जो कि शारिपुत्र तथा बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर के बीच एक संवाद है। यह देशना सार्वजिनक रूप से नहीं हुई, अपितु केवल उनके समक्ष दी गई, जिनके विशुद्ध कर्मों के कारण वे अवलोकितेश्वर तथा शारिपुत्र को देखने व सुनने में सक्षम थे।

परम पावन ने स्पष्ट किया कि जहाँ प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन में चार आर्य सत्यों की बात की गई, जो कि सार्वजनिक देशना थी, जिसका ऐतिहासिक उल्लेख उपलब्ध है, द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन में प्रज्ञा पारमिता की बात की गई है। तृतीय प्रवर्तन का संबंध तथागत गर्भ और चित्त की प्रभास्वरता और उसे किस प्रकार प्रयोग किया जाए, से है। यह गुह्य मंत्र के अभ्यास का आधार है। उन्होंने समझाया कि द्वितीय और तृतीय प्रवर्तन सार्वजनिक रूप से नहीं हुए, पर केवल चुने शिष्य समूह के समक्ष हुए। उनका उल्लेख ऐतिहासिक आलेखों में सम्मिलित नहीं किया गया है क्योंकि वे शिक्षाओं की सामान्य संरचना से संबंधित हैं, वे शिक्षाएँ नहीं जो विशिष्ट शिष्यों के लिए दी गई थी।

परम पावन ने इस बात पर बल दिया कि नागार्जुन और आर्यदेव जैसे महान भारतीय आचार्यों ने कारण और तर्क के साथ इन विषयों का परीक्षण किया है और संस्कृत परम्परा की प्रामाणिकता, बोधिसत्वयान के अभ्यास, प्रज्ञा पारमितायान की पुष्टि की है। उन्होंने चन्द्रकीर्ति के तंत्र के पाँच क्रमों के वर्णन को उद्धृत किया:

१    उत्पत्ति क्रम
२    निष्पन्न क्रम
३    एकाकी
४    माया काय और प्रभास्वर
५    युगनद्ध

उन्होंने कहा कि उत्पत्ति क्रम में इष्ट देवों की भावना करना शामिल है। अनुत्तर योग तंत्र, इसमें बुद्ध के त्रिकाय, धर्मकाय, संभोगकाय और निर्माण काय को क्रमशः मृत्यु, अंतरभव और पुर्नजन्म की प्रक्रिया से मार्ग पर लाना है। जहाँ एक ओर सूत्र साहित्य बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए तीन अनगिनत या उससे अधिक कल्पों की बात करता है, तांत्रिक ग्रंथों में एक ही जीवन काल में एक ही शरीर में, ऐसा कर पाने की बात की गई है।


पूछे गए कई प्रश्नों में परम पावन से यह पूछा गया कि इस मान्यता को लेकर कि, कोबो दाइशि, जिनकी मृत्यु ९वीं शताब्दी में हुई, अभी भी ध्यान में हैं, परम पावन के क्या विचार हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि ऐसा संभव है। अतीत में महान सिद्धों के वर्णन हैं, जो प्रबुद्धता को प्राप्त कर उस समय तक ध्यान मग्न हैं जब तक आगामी बुद्ध का संसार में अवतरण नहीं हो जाता, जिनमें तिब्बती आचार्य भी शामिल हैं। उनसे अवलोकितेश्वर के संदर्भ में करुणा के विषय में पूछा गया और उन्होंने उत्तर दिया कि करुणा बुद्धत्व की प्राप्ति का मूल है। उन्होंने कहा कि उन्होंने पहले ही ‘हृदय सूत्र’ संवाद में भाग ले रहे व्यक्ति के रूप में अवलोकितेश्वर का उल्लेख किया था, पर अवलोकितेश्वर का वह रूप भी है जो सभी बुद्धों की करुणा का साकार हैं, जिस प्रकार मंजुश्री को उनकी सभी प्रज्ञाओं का साकार मानते हैं।

"अंत में, इस स्थान पर जिसका कोबो दाइशि से एक विशेष संबंध है" परम पावन ने कहा, "मैं आपको बुद्ध के जापानी अनुयायियों को आपके साथ विचार विमर्श करने के इस अवसर के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा," और डीन को बुद्ध की एक प्रतिमा भेंट की।

डोसोकाइ के अध्यक्ष तथा शिकोकु, जहाँ कोबो दाइशि का जन्म हुआ था, ज़ेंटसुजि मंदिर के मुख्य प्रशासक श्रद्धेय छिजुन सुगा ने अपने धन्यवाद ज्ञापन में परम पावन को वहाँ आने के लिए कृतज्ञता प्रकट की। उन्होंने उल्लेख किया कि सभी बौद्ध संप्रदायों के अनुयायियों ने व्याख्यान में भाग लिया था। उन्होंने परम पावन से अनुरोध किया कि विश्वविद्यालय के साथ कोबो दाइशि के कारण वे संबंध बनाए रखें। उन्होंने यह कहते हुए समाप्त किया:

"हम सभी तिब्बत में शांति के लिए प्रार्थना करते हैं और यह कि परम पावन को दीर्घायु मिले।"

परम पावन को उनके होटल के लिए प्रस्थान करने से पूर्व मध्याह्न का भोजन प्रस्तुत किया गया। आगामी दो दिनों तक वह क्योतो में चित्त के मानचित्रण पर केंद्रित संवाद में भाग लेंगे।

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