परम पावन 14 वें दलाई लामा
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३३ वें कालचक्र अभिषेक के दौरान शिष्यों का मंडल प्रवेश ११/जुलाई/२०१४

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लेह, लद्दाख, जम्मू एवं कश्मीर, भारत - ११ जुलाई २०१४ - परम पावन दलाई लामा के कालचक्र मंडप में दो आसन हैं। एक तो श्रोताओं के समक्ष, बीचों बीच एक भव्य सिंहासन, जहाँ वह विगत कई दिनों से प्रवचन दे रहे हैं। दूसरा एक निचला आसन है जहाँ से वे कालचक्र रेत मंडल के समक्ष विपरीत दिशा में देखते हैं। आज प्रातः जो अभिषेक वे मध्याह्न में देने वाले थे, उसकी तैयारी के लिए विभिन्न अनुष्ठान और आत्म - अभिषेक करने के लिए वे इस आसन पर साढ़े चार घंटे बैठे रहे। एक लघु मध्याह्न के भोजनोपरांत वे तैयार थे। एक बार पुनः वे मंडप से सामने आए और एक छोर से दूसरे छोर तक चलते हुए मुस्कुराते और उत्सुक जनसमूह का अभिनन्दन किया।


प्रवचन स्थल पर आसन ग्रहण कर लेने के बाद और मंगलाचरण के कई छंदों के पाठ परम पावन ने देवों और यक्षों की ओर ध्यान आकर्षित किया जो प्रवचन सुनने आए होंगे। उन्होंने स्मरण किया कि तिब्बत में पिछली सदी में सेरकोंग दोर्जे छंग ने एक कालचक्र अभिषेक दिया था जिसके समापन पर उन्होंने घोषणा की कि गदेन विहार की सीमा के भीतर वह सब को प्राप्त हुई थी।  
"मैंने परिकल्पना की है कि वे सभी जो यहाँ रहने की इच्छा रखते हैं, पर आने में असमर्थ रहे हैं, उन्हें यह अभिषेक प्राप्त होगा", परम पावन ने कहा। "तिब्बत तथा चीन में लोग हैं, जो इन समारोहों में भाग लेना चाहते थे, पर विभिन्न बाधाओं के कारण आ नहीं पाए। मैं चाहता हूँ कि वे जानें कि अभिषेक देने की इस प्रक्रिया के दौरान वे मेरे चिन्तन में हैं।"

"आज हम मंडल में शिष्यों के प्रवेश की प्रक्रियाएँ करेंगे जिसका आधार बोधिचित्त तथा शून्यता की समझ है। निस्सन्देह महान उपलब्धियों वाले लामा दूरगामी आशीर्वाद दे सकते हैं, जिनसे न केवल सत्वों का अपितु चट्टानों इत्यादि को भी लाभ हो सकता है, पर जहाँ तक हमारा संबंध है, अभिषेक का आधार शून्यता की कुछ समझ और बोधिचित्त की भावना है। इन के आधार पर हम अपने अंदर एक परिवर्तन लाने में सक्षम हो पाएँगे।"

परम पावन ने समझाया कि हम अकुशल कर्मों के विषय में इस प्रकार बात नहीं कर सकते मानों वे एक ठोस अस्तित्व लिए हुए हैं, क्योंकि वे कई कारकों के परिणाम हैं, एक अन्य सत्व, एक प्रेरणा और एक ऐसा कर्म जो अहित करता है। उन्होंने कहा कि हम सब सुख चाहते हैं और भले ही वह विचार, शब्द अथवा कार्य हो, यदि कोई कर्म पीड़ा और अहित देता है तो उसे अकुशल कर्म कहा जाता है। यदि हम कुत्ते जैसे जानवर को देखें तो पाएँगें कि यदि उनमें से कोई विशेष रूप से शांत हो तो उसके आसपास के भी शांत हो जाते हैं। किसी भी प्रकार का कोई अकुशल कार्य न करने में इसी प्रकार का प्रभाव होता है। महत्वपूर्ण बात हमारे चित्त का प्रशिक्षण है। यदि आप एक अनुशासनहीन चित्त के आधार पर कार्य करते हैं तो परिणाम के नकारात्मक होने की संभावना है।


चित्त का प्रशिक्षण केवल प्रार्थना या मंत्रों के सस्वर पाठ से प्राप्त नहीं होता। एक अनुशासनहीन चित्त जो क्रोध और घृणा के प्रभाव में आता है वह दूसरों के लिए घृणा विकसित करता है। इस का प्रतिकारक बल करुणा और प्रेम का विकास है। जब एक बाढ़ आती है तो आप कारणों की जाँच करते हैं और वह पुनः न हो इसके लिए कदम उठाते हैं, यही हमें अपने आंतरिक विश्व में भी क्या करना है, हमें कारणों की जाँच कर प्रतिकारक बलों को अपनाना है। चूँकि विभिन्न वस्तुएँ हमारे लगाव या क्रोध को भड़काती हैं तो हमें अपने आचरण को सही करने और दूसरों का अहित करने से स्वयं को नियंत्रित करने के लिए सतर्क रहना होगा।

अभिषेक के सत्र के प्रारंभ की ओर मुड़ते हुए परम पावन ने समझाया कि वे बाधित करने वाली शक्तियों को शिष्यों के कालचक्र मंडल में प्रवेश के समारोहों में किसी प्रकार की बाधा न डालने के लिए प्रेरित करने हेतु एक आनुष्ठानिक रोटी समर्पित कर रहे हैं। उन्होंने बाहरी, भीतरी और वैकल्पिक कालचक्र का संदर्भ दिया, वह आवासीय स्थल जहाँ सत्व रहते हैं, सत्वों के काय और चित्त तथा कालचक्र की प्रक्रिया जिससे उन्हें प्रबुद्धता में परिवर्तित किया जा सकता है।

उन्होंने उस लामा की योग्यता के विषय में बताया जो अभिषेक दे रहा है। उसने पहले से ही अभिषेक प्राप्त किया हुआ हो, एकांतवास किया हुआ हो और इस प्रकार दूसरों को देने की योग्यता रखता हो। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि अभिषेक का श्रेष्ठ प्राप्तकर्ता एक भिक्षु होगा। उन्होंने पुष्टि की कि अभिषेक के पूर्व लामा को जो करना था वह लामा ने कर लिया है और शिष्यों के लिए जो आवश्यक था वह उन्होंने कर लिया है।

"कल आपको अपने रात के स्वप्न के परीक्षण करने का निर्देश दिया गया था। यदि आपने फूलों का बगीचा देखा है तो यह अच्छा है, पर यदि फूल मुख्य रूप से लाल थे तो यह अशुभ माना जाता है। ऐसे स्वप्न कारणों और परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं और उनको लेकर उत्तेजित होने अथवा उदास होने की कोई आवश्यकता नहीं है।"


परम पावन ने चित्त की विभिन्न स्थितियों की बात की और उल्लेख किया कि जाग्रतावस्था में हमारी पाँचों इंद्रियों सक्रिय और कार्य करती हैं। स्वप्नावस्था में वे बंद हो जाती हैं, ताकि हम चित्त की सूक्ष्म अवस्था तक पहुँच सकें। उन्होंने कहा कि ऐसे लोग हैं जो अपने अतीत की प्रवृत्तियों के कारण अपने चित्त और काय को अलग कर सकते हैं यद्यपि यह वास्तविक स्वप्न काय का प्राप्त होना नहीं है। उन्होंने एक कहानी बताई जो उनके एक मित्र ने अपनी माँ के बारे में उन्हें बताई थी, जिनको अन्यथा एक आध्यात्मिक अभ्यासी के रूप में नहीं माना जाता था, जिन्होंने यह घोषणा की कि वे एक सप्ताह के लिए सोने के लिए जा रही थी। ऐसा प्रतीत होता है कि उस दौरान उनके चित्त ने उनके शरीर को छोड़ दिया और यहाँ वहाँ की यात्रा क्योंकि उन्होंने उन घटनाओं और स्थानों का विवरण दिया जो उन्हें किसी और तरीके से मालूम नहीं हो सकती थी।

स्वप्नावस्था के अतिरिक्त परम पावन ने उल्लेख किया कि जब कोई स्वप्न नहीं होता तो चित्त और भी सूक्ष्म होता है। बेहोशी एक अन्य अवसर है जो कि सूक्ष्मतर अवस्था की ओर ले जाता है। उन्होंने शरीर को बनाने वाले तत्वों के विघटन का भी उल्लेख किया जो सूक्ष्मतर अवस्था की ओर ले जाता है। जब प्रभास्वरता प्रकट होती है तो अस्सी भ्रांतियाँ बंद हो जाती हैं। उन्होंने कहा कि आधार प्रभास्वरता कभी समाप्त नहीं होती और न ही वह किसी प्रकार की भ्रांति का विषय रही है। जब चित्त की प्रभास्वरता प्रकट होती है तो अधिकांश लोग इसे पहचान नहीं पाते पर एक आध्यात्मिक अभ्यासी जो इससे परिचित है, वह उसे पकड़ सकता है। वह उसे शून्यता की पहचान के लिए काम में ला सकता है। देव योग करने का उद्देश्य इस मौलिक सजगता का उपयोग करने के लिए चित्त को सक्षम करना है।

परम पावन ने उन सभी को बोधिसत्व व्रत दिए जो उन्हें लेना चाहते थे और यह कहा कि बोधिचित्त हमें मार्ग में प्रगति करने में सक्षम बनाता है। समारोह के उस भाग के समापन पर उन्होंने कहा कि हर किसी को अपने को अत्यंत भाग्यशाली समझना चाहिए कि वे बोधिसत्व व्रत लेने में सक्षम हुए हैं और वे भी अपने को भाग्यशाली समझते हैं कि वे इन्हें देने में सक्षम हुए।


इसके बाद उन्होंने तांत्रिक व्रत दिए, तत्पश्चात सभी को सम्मिलित करने वाले योग के विकास पर। बोधिचित्त के विकास के संदर्भ में उन्होंने इंगित किया कि हमारे जीवन में जो अच्छा है और आगामी जीवनों में जो अच्छा होगा, उनका मूल तत्व हैं। उन्होंने उदाहरण दिया कि बिना किसी के उत्तेजित किए धैर्य का विकास असंभव होगा। उन्होंने कहा कि करुणा तथा दूसरों के प्रति चिंता के विरुद्ध यदि हम स्वार्थी बने रहें तो हम अपना उद्देश्य तक पूरा नहीं कर सकते। आर्यदेव के चतुःशतक से एक पंक्ति को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा 'जिसका उत्पाद निर्भरता में है उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं है' उन्होंने उसे शून्यता पर चिंतन करने के लिए उपयोग में लाने का सुझाव दिया। अंतत ः शिष्य मंडल में प्रवेश कर उसे देखने में सक्षम हुए।

प्रातः के सत्र समापन से पहले परम पावन ने उनके अनुरोध पर अपने वरिष्ठ गुरु लिंग रिनपोछे द्वारा रचित कालचक्र छह सत्रीय गुरू योग का एक पाठ प्रसरण दिया। उन्होंने सुझाया कि लोगों के लिए अच्छा होगा यदि वे प्रतिदिन उसका पाठ करें, जो उन्होंने कहा कि वह स्वयं करते हैं।

सत्र के अंत से पहले समापन अनुष्ठान और प्रार्थनाओं का किया जाना था। परम पावन सिंहासन से उतरे और अपने निवास पर गाड़ी से लौटने से पहले विशाल, शांतिपूर्ण भीड़ से मिलने के लिए पुनः मंच के सामने आए। कल पूर्णिमा के दिन बालक समा  सात अभिषेक दिए जाएँगे । 

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