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परम पावन दलाई लामा की नासिक महाकुंभ की यात्रा
 ३०/अगस्त/२०१५

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नासिक, महाराष्ट्र, भारत, ३० अगस्त २०१५

दिल्ली में एक रात्रि बिताने के पश्चात् परम पावन दलाई लामा आज मध्य सुबह महाराष्ट्र नासिक पहुँचे और हवाई अड्डे पर स्वामी ज्ञानानंद और स्वामी मैसानन्द ने सुरम्य पुष्प माल्यों से उनका स्वागत किया। यद्यपि दुर्बल होते मानसून ने उनकी उड़ानों में विलंब नहीं किया था, पर जब परम पावन नासिक में गाड़ी से जा रहे थे तो मूसलाधार वर्षा हो रही थी, जो हल्की बूंदा-बांदी में बदल गयी जब वे अपने मेजबान के घर पहुँचे। स्वामी गुरु शरणानन्द जी महाराज ने श्रृंग व शंख ध्वनि से परम पावन का स्वागत किया।




स्वामी गुरु शरणानन्द जी के साथ बैठकर परम पावन ने अपने मित्रों को बताया कि उनका निमंत्रण पाकर वे कितने हर्षित थे। उन्होंने उनसे यह भी कहा है कि वे स्वामी जी की सरल जीवन शैली और प्राचीन भारतीय विचार की उनकी गहन पैठ देखकर वे कितने प्रभावित थे। इस संक्षिप्त वार्तालाप के पश्चात मध्याह्न का भोजन था, जिनमें उनके साथ स्वामी ज्ञानानन्द और प्रो. समदोंग रिनपोछे सम्मिलित हुए। खाते समय भी उनका दार्शनिक और आध्यात्मिक विचार-विमर्श जारी रहा। मध्याह्न भोजनोपरांत दोनों आध्यात्मिक नेताओं ने समारोहपूर्वक आश्रम के ड्राइव के बगल में दो बोधि वृक्ष लगाए।
 


प्रेस के साथ एक बैठक के दौरान परम पावन ने मानवता की एकता की एक बड़ी भावना की आज की आवश्यकता पर बल दिया क्योंकि सम्पूर्ण विश्व इतना अन्योन्याश्रित बन गया है। स्वामी शरणानन्द ने एक संस्कृत श्लोक उद्धृत किया जिसका उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद कियाः 


 
"वे जो यह सोचते हैं, कि यह मेरा है और वह तुम्हारा है। यह मैं हूँ और वह तुम हो, वे अल्प प्रकृति के लोग हैं। उदार चरित वाले सभी लोगों को एक समझते हैं।"


 
परम पावन ने इस प्राचीन भारतीय उक्ति की प्रज्ञा और समूचे विश्व में इसकी व्यापक समझ की आवश्यकता को स्वीकार किया।
 


तत्पश्चात् परम पावन ने मीडिया के एकत्रित सदस्यों को संबोधित किया:

"मैं सम्मान का अनुभव करता हूँ कि स्वामी जी ने गोदावरी नदी के तट पर इस महाकुंभ के लिए मुझे आमंत्रित किया, विशेषकर जब सभी इंतजाम किए जाने के बावजूद इलाहाबाद में हुए सबसे हाल के कुंभ में मैं सम्मिलित न हो पाया, क्योंकि खराब मौसम के कारण मैं धर्मशाला से बाहर न निकल सका।"

परम पावन ने अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने की अपनी प्रतिबद्धता के बारे में समझया:


 
"मेरे कई अच्छे मित्र हैं जो यहूदी, ईसाई, इस्लाम के साथ ही कई विभिन्न हिन्दू और अन्य भारतीय धार्मिक परंपराओं से संबंध रखते हैं।जहाँ तक ​​हिंदू और बौद्ध धर्म का संबंध है, वे दोनों ही नैतिकता का अभ्यास (शील) एकाग्रता (समाधि) और ज्ञान (प्रज्ञा) को मानते हैं।"



स्वामी जी ने जोड़ा:
"हाँ, इन दोनों परंपराओं की जड़े समान हैं।"
 


परम पावन ने बंगलौर के निकट एक स्वामी से हुई भेंट की बात की जो सक्रिय रूप से समाज सेवा में लगे हुए हैं और कर्नाटक के गांव के विद्यालयों में हजारों बच्चों के लोगों के लिए भोजन उपलब्ध करा रहे हैं। 

 
"मैंने उन्हें बताया कि हमारे ये अभ्यास समान हैं, जहाँ हमारी परंपराओं में अंतर है वह आत्मन् अथवा अनात्मन (एक आंतरिक रूप से विद्यमान आत्म अथवा अनात्म के सिद्धांत) को लेकर हमारी स्वीकृति या अस्वीकृति में है। पर इस संबंध में हमारा जो विश्वास है वह हमारा अपना निजी मामला है।"


 
स्वामी जी ने टोका:
 "परम पावन, यदि आप मुझे अनुमति दें तो मैं समझा सकता हूँ कि किस प्रकार वास्तव में ये दो सिद्धांत अलग नहीं हैं। मैं ब्रह्मण के दृष्टिकोण से तथा इसके विपरीत रूप में आपकी शून्यता समझा सकता हूँ।"


 
उसके बाद परम पावन ने सभा की ओर से रखे गए प्रश्नों के उत्तर दिए। उन्होंने स्पष्ट किया कि सभी विभिन्न धार्मिक दर्शनों का उद्देश्य करुणा की हमारी भावना को सशक्त करना है। उन्होंने कहा कि जो महत्वपूर्ण है, वह है करुणा के मूल्य की समझ।


"चाहे हम एक सृजनकर्ता भगवान में विश्वास करें, चाहे ईश्वर या ब्रह्म, या जैन और बौद्धों की समान कार्य कारण नियम में, मुख्य संदेश करुणा है। उद्देश्य एक जैसा है; प्रेम और करुणा धर्म का सार्वभौमिक अभ्यास है।"



 
परम पावन ने यह भी उल्लेख किया कि भारत की शक्ति का एक हिस्सा उसका धर्म के प्रति एक दीर्घकालीन धर्मनिरपेक्ष का दृष्टिकोण है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान, बंग्लादेश और बर्मा जैसे पड़ोसियों की तुलना में, भारत अपने धर्मनिरपेक्ष बहुलता और अहिंसा की परंपरा के कारण सबसे अधिक स्थिर है। उन्होंने आज के युवाओं में इन मूल्यों को पोषित करने की आवश्यकता पर बल दिया जो अन्यथा भौतिकवादी लक्ष्यों में उलझे हुए हैं। 


 
जाति व्यवस्था के विषय में पूछे जाने पर परम पावन ने उत्तर दिया कि, भारत के बारे में उनकी आलोचनाओं में से एक जातिगत भेदभाव है। उन्होंने कहा कि यदि कुछ परंपरा का एक अंग है, पर अब किसी काम का नहीं रह गया है, तो उसे त्याग देना चाहिए। स्वामी जी ने जोड़ा:


 
"परंपरा हमें कर्तव्य सिखाता है। पर जब वह 'अधिकार' में बदल जाता है, जो 'शक्ति' की ओर जाता है तो यह संघर्ष और लड़ाई की ओर ले जाता है। यह सब राजनीति है।"


 
परम पावन ने सुझाव दिया कि स्वामी जी की तरह गुरुओं को जातीय भेदभाव के विरोध में बोलना चाहिए और स्वामी जी ने उनसे कहा कि यह लगभग समाप्त हो चुका है। उन्होंने कहाः


 
"आध्यात्मिक भाइयों और बहनों को अपने दैनिक जीवन के द्वारा आम जनता के लिए एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। पर कभी कभी हमें कठोर होना होता है, जब जो सही है उसे निहित स्वार्थों लोगों को खुश करने के साथ उसे धारण करने की बात आती है।"



 
शाम को परम पावन ने पुनः अपना दार्शनिक आदान-प्रदान जारी रखने के लिए तीन स्वामियों के साथ भेंट की। उनके साथ प्रो. समदोंग रिनपोछे, गदेन शरचे उपाध्याय जंगछुब छोदेन, यांगतेंग रिनपोछे और स्वामी शरणानन्द जी के कुछ शिष्य भी शामिल थे। विचार विमर्श उत्साहपूर्ण था और परम पावन तथा स्वामी जी इस पर सहमत थे कि ज्ञान को अभ्यास के साथ जोड़ा जाना चाहिए। परम पावन ने अपना विश्वास दोहराया, कि यदि जीवित तिब्बती बौद्ध और हिंदू परंपराओं के बीच इस प्रकार के लाभप्रद आदान-प्रदान को जारी रखा जाए तो वे समझ के विकास और धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने में एक महान योगदान होगा।
संध्या के समय, परम पावन, स्वामी गुरु शरणानन्द जी और बहुसंख्या में आए भक्तों के साथ गोदावरी नदी के तट पर, आरती समारोह में शामिल हुए, जिसके बाद उन्होंने रात्रि के विश्राम के लिए विदा ली।
 

 

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