परम पावन 14 वें दलाई लामा
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विज्ञान, नैतिकता और शिक्षा - पहला दिन २४/मार्च/२०१५

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दिल्ली, भारत - २४ मार्च २०१५- आज दिल्ली विश्वविद्यालय में एक दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का प्रारंभ हुआ। ऐसे विद्वान और शिक्षक, जिनकी सोच की जड़ें भारत की प्राचीन ज्ञान परंपराएँ हैं, ने चिन्तन किया कि वे किस प्रकार एक सम्पूर्ण समग्र शिक्षा में योगदान दे सकते हैं जिसमें और अधिक भौतिकवादी उद्देश्य के अतिरिक्त नैतिक मूल्य भी शामिल हैं। यह बैठक, जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने भाग लिया, डी एस कोठारी विज्ञान नैतिकता और शिक्षा केंद्र में आयोजित की गई थी।


प्रथम सत्र की संचालिका प्रोफेसर मीनाक्षी थापन ने बताया कि डी एस कोठारी एक उत्कृष्ट शिक्षक और एक महान शिक्षाविद थे जिन्होंने विज्ञान, शिक्षा और नैतिक मूल्यों का एक संश्लेषण प्राप्त करने के लिए निरंतर कार्य किया। उनके महत्वपूर्ण योगदान में माध्यमिक शिक्षा का कोठारी आयोग है।
 
परम पावन दलाई लामा, जिन्होंने आम शिक्षा प्रणाली में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को शामिल करने के लिए एक दृष्टिकोण व्यक्त किया, को उद्घाटन भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया था।

"बड़े भाई और बहनों, प्रोफेसरों, और छोटे भाइयों और बहनों, दिल्ली विश्वविद्यालय ने कुछ मंगोलियाई स्रोतों के सहयोग से इस अवसर पर इस बैठक का आयोजन किया है। सब जानते हैं कि विज्ञान हमें वास्तविकता की खोज के लिए एक महत्वपूर्ण उपाय देता है। और यदि आपका दृष्टिकोण जो आप कर रहे हैं, उसे लेकर यथार्थवादी होना है, तो वास्तविकता की समझ पर आना महत्वपूर्ण है। यदि ऐसा नहीं है तो इसके सफल होने की संभावना नहीं है।"

"जब से मैं एक बच्चा था तब से मेरी विज्ञान में रुचि रही है। मुझमें सदा उत्सुकता रहती थी कि वस्तुएँ कैसे और क्यों काम करती हैं। जब मुझे यांत्रिक और घड़ी के कल खिलौने दिए जाते, तो मैं थोड़ी देर के लिए उनके साथ खेलता और फिर यह देखने के लिए कि वे कैसे कार्य करती हैं उनके पुरजे पुरजे कर देता। कई बार मैं उन्हें पुनः जोड़ने में सक्षम होता था।"

विज्ञान के क्षेत्र में परम पावन की रुचि ने ३० वर्ष पूर्व उन्हें अपने एक मित्र की सलाह कि 'विज्ञान धर्म का हत्यारा है' को चुनौती देने और वैज्ञानिकों के साथ संवाद करने हेतु प्रेरित किया। इसने यथासमय माइंड लाइफ संस्था की स्थापना की जो इस बैठक का सह-प्रायोजक है। उन्होंने समझाया ः

"कई वैज्ञानिक अब चित्त की प्राचीन भारतीय विज्ञान के विषय के बारे में अधिक जानने में रुचि रखते हैं। प्रारंभ में तो उन्होंने यह मान लिया कि चित्त मस्तिष्क का उत्पाद है या उस पर पूर्णरूपेण निर्भर है, इसलिए यदि मस्तिष्क रुक गया तो चित्त भी रुक जाएगा। पर आजकल स्पष्ट निष्कर्ष हैं कि चित्त प्रशिक्षण मस्तिष्क को प्रभावित कर सकता है।"


परम पावन ने स्पष्ट किया कि आज हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं उनका संबंध ऐसे असंतुलन से है जिस रूप में हम अपने मस्तिष्क तथा हृदयों का विकास कर रहे हैं। बहुत बार ज़ोर सशक्त मस्तिष्क के विकास पर है, इसके बावजूद कि मनुष्यों के रूप में हममें सौहार्दता का विकास करने की क्षमता है। ऐसा कोई भी इंसान जिसने एक माँ की ममता का अनुभव किया है, उसमें दूसरों के प्रति स्नेह अभिव्यक्त करने की क्षमता है। वैज्ञानिकों ने पाया कि जब शिशुओं को लोगों के एक दूसरे की सहायता करने या एक दूसरे की बाधा करने के चित्र दिखाए जाते हैं तो स्पष्ट रूप से उनकी प्राथमिकता सहायता करने वालों के प्रति होती है। इससे पता चलता है बुनियादी मानव स्वभाव उदार और सहायक होने की है। परम पावन ने सुझाया कि सामान्य ज्ञान बताता है कि यदि हम निर्धन हैं तो भी हम सुखी हो सकते हैं, यदि हम सौहार्दपूर्ण भी हों, जबकि धनी और आत्म केन्द्रित होने की भावना हमें दुखी बनाती है।

आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में १ अरब स्वयं को धर्म में रुचि न रखने की घोषणा करते हैं। परम पावन ने पूछा कि वे किस प्रकार उन विचारों से लाभ उठा सकते हैं कि आंतरिक मूल्य जो प्रायः धार्मिक विचारों के साथ जोड़े जाते हैं, वास्तव में मानवीय मूल्यों के असली स्रोत हैं। उन्होंने नैतिकता के प्रति एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाने का सुझाव दिया, धर्मनिरपेक्ष भारतीय व्याख्या के दृष्टिकोण से जिसमें निष्पक्ष रूप से सभी धार्मिक परंपराओं और उनके प्रति भी जो नास्तिक हैं, सम्मान की भावना है। धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रणाली में, वैज्ञानिक निष्कर्ष, आम अनुभव और सामान्य ज्ञान में निहित धर्मनिरपेक्ष नैतिकता सरलता से लाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि यदि ऐसा किया जा सकता है तो इस २१वीं सदी को शांति और करुणा का एक युग बनाने की सच्ची संभावना है।

प्रति कुलपति, प्रोफेसर सुधीश पचौरी, जो हिंदी के प्रोफेसर हैं, ने परम पावन और सम्मेलन के प्रतिनिधियों का स्वागत करते हुए हिन्दी में एक संक्षिप्त भाषण दिया।


प्रथम सत्र की संचालिका प्रोफेसर थापन ने प्रोफेसर गणनाथ ओबेएसेकरे का परिचय कराया जिनका जन्म और पालन पोषण श्रीलंका में हुआ और अंततः वे प्रिंसटन विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान के प्रोफेसर एमेरिटस बने। उन्होंने कहा कि उन्हें स्मरण है कि युवावस्था में अमूर्त बौद्धिक संदर्भ में बौद्ध शिक्षाओं की रसहीन प्रस्तुत की गई थी। ये तीर्थ स्थलों की यात्रा, जहाँ तीर्थयात्री और उनके शिक्षक स्थानीय भाषा के ग्रंथों पर आधारित कहानियाँ सुनाते थे, के ठीक विपरीत थे।

उन्होंने इस प्रकार की एक कहानी का संक्षेपीकरण किया जिसमें एक आदमी ने एक बाँझ स्त्री से शादी कर ली। जब उसने बच्चों के लिए एक और शादी की तो बाँझ स्त्री ने उसे विष देकर मार दिया। मरते हुए विष दी गई पत्नी ने बदला लेने की कसम खाई और इस तरह जन्मों की एक श्रृंखला प्रारंभ हुई जिसमें वे दोनों बिल्ली और मुर्गी, बाघ और हिरण थे, जो एक दूसरे का शिकार करते थे। अंततः बुद्ध के समय में एक के बच्चा था जबकि दूसरी एक राक्षसी थी। बुद्ध ने उनके संघर्ष को दूर करने के लिए माँ से कहा कि वह क्रोधित राक्षसी को बच्चा पकड़ने दे। जब उसने ऐसा किया तो आक्रोश से भरी राक्षसी फूट फूट कर रो पड़ी। प्रोफेसर ओबेएसेकरे ने सुझाया कि शिक्षा में कहानी सुनाने की एक प्रबल भूमिका है।

अपने उत्तर में परम पावन ने बुद्ध के अनुयायियों के स्वभाव में विभिन्नता को स्वीकार किया। उन्होंने उसे स्वीकार किया और तदनुसार उन्हें शिक्षा दी। विविधता के कारण मानवता इस तरह के विभिन्न दृष्टिकोणों से लाभान्वित होती है। उन्होंने दोहराया कि ऐसी विविधताओं को सभी धर्मों द्वारा प्रेम और करुणा के विकास के समान लक्ष्य के संदर्भ में देखना भी महत्वपूर्ण है। यदि इसके बजाय यदि हम ऐसी विभिन्नताओं पर अधिक बल दें तो अपने को 'हम' और 'उन' में विभाजित करने का खतरा उठाते हैं, और साथ ही संघर्ष और हिंसा का जोखिम भी।


मध्याह्न के भोजनोपरांत जो परम पावन, प्रतिनिधियों और छात्रों ने एक अनुकूल भोजन कक्ष में मिलकर किया, प्रथम सत्र प्रारंभ हुआ। डॉ राधिका हर्ज़बरगर, जो जिद्दू कृष्णमूर्ति द्वारा स्थापित ऋषि वैली शिक्षा केन्द्र की निदेशक हैं, ने अपनी प्रस्तुति रखी। कृष्णमूर्ति को प्रतिध्वनित करते हुए उन्होंने प्रश्न किया कि क्या मानव परिवर्तन में ज्ञान का कोई स्थान है। ऐसे समय और संदर्भ में जहाँ अधिकांश शिक्षा सिद्धांत तर्कसंगतता पर आधारित हैं, उन्होंने कहा कि शिक्षा का संबंध इतने अधिक तार्किक विचारों का नहीं है पर ऐसे विचारों से है जो विचार - भावनाओं से भरे हों और प्रबल सामाजिक परिवेश से प्रभावित हों। उन्होंने न्यूरोसाइंटिस्ट एंटोनियो दमाज़ियो को उद्धृत किया कि शिक्षा, ध्यान, स्मृति, निर्णय लेना और सामाजिक प्रकार्य, भावना की प्रक्रियाओं से गहन रूप से प्रभावित हैं।

दूसरे सत्र के संचालक, एक प्रमुख जापानी न्यूरोसाइंटिस्ट, मनबु होंडा ने डॉ बटा मिशिगिश का परिचय कराया जिन्होंने उलानबाटर में एक विहारीय शिक्षा ली और हवाई और जापान में अपनी अकादमिक शिक्षा जारी रखी। उन्होंने मंगोलिया में बौद्ध संस्थाओं के सामाजिक संबंधों में चुनौतीपूर्ण मुद्दों की जाँच की जहाँ १९९० में प्रजातंत्र उभरा और स्वतंत्रता बहाल हुई। उन्होंने परीक्षण किया कि किस प्रकार आधुनिक समाज में पुनर्स्थापित तथा पुनर्जीवित बौद्ध संस्थाओं के सार्वजनिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक संबंधों को लाया जा रहा है।


परम पावन ने टिप्पणी की, कि उन्होंने १९७९ में पहली बार मास्को होते हुए मंगोलिया की यात्रा की थी जब गदेन विहार के अंदर बहुत कम स्वतंत्रता थी, पर बाहर लगभग नहीं के बराबर थी। चूँकि स्वतंत्रता अधिक व्यापक रूप से बहाल हो गई है, वहाँ आधुनिकीकरण हुआ है।

उन्होंने सुझाव दिया, "परन्तु आधुनिकीकरण आंतरिक मूल्यों की बजाय बाह्य आकर्षणों के विषय में हो जाता है और आंतरिक मूल्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। बौद्ध धर्म मंगोलिया की राष्ट्रीय अस्मिता का अंग है और उसका उचित संरक्षण मंदिरों और मूर्तियों के निर्माण से नहीं अपितु परम्परा के ज्ञान के संरक्षण और इसे चर्या में लाने से है।"

दूसरे सत्र के दूसरे प्रस्तुतकर्ता हा विन्ह थो थे जिन्होंने भूटान और वियतनाम में करुणा पर आधारित पाठ्यक्रम लागू करने के अपने अनुभव बताए। शिक्षा के लक्ष्यों को पुनर्परिभाषित करने के प्रयास में चार स्तंभ सुझाए गए हैंः

सीखने के लिए सीखना,
करने के लिए सीखना,
होने के लिए सीखना,
एक साथ रहने के लिए सीखना।


अंतिम दो, बच्चों द्वारा सामाजिक और भावनात्मक कौशल के विकास के महत्व को इंगित करते हैं। हाल के वैज्ञानिक अनुसंधानों ने दिखाया है कि करुणा, परोपकारिता, स्नेह और दया की भावना को विकसित और प्रशिक्षित किया जा सकता है। हा विन्ह थो ने इसका कॉल टु केयर कार्यक्रम, जो माइंड लाइफ संस्था के साथ विकसित किया जा रहा है और इसराइल, भूटान और वियतनाम में प्रारंभ किया जा रहा है, को क्रियान्वित करने के अपने सुखदायी अनुभव की बात की। इस हाथों हाथ व्यावहारिक प्रयास में तीन प्रकार के देखभाल हैं - देखभाल प्राप्त करना जिसमें आभार शामिल है, स्वयं की देखभाल जिसमें आत्म प्रबंधन शामिल है तथा दूसरों तक देखभाल पहुँचाना जिसमें दूसरों के लिए करुणा का विस्तार शामिल है।

परम पावन ने प्रस्तुति और वीडियो क्लिपों को देखा और कहा कि जो कुछ भी किया जा रहा है वे उसकी सराहना करते हैं। सभा की ओर से आए एक शंकाभरी टिप्पणी के उत्तर में, हा विन्ह थो ने कहा, कि यह सब अगली पीढ़ी को शिक्षित करने के विषय में है।

कल विज्ञान, नैतिकता और शिक्षा के विषय पर प्रस्तुतियों का दूसरा दिन होगा। 

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