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संकस्या में धम्मपद का पठन ३१/जनवरी/२०१५

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संकस्या, उत्तर प्रदेश, भारत - ३१ जनवरी २०१५- आज प्रातः जब भारत की यूथ बुद्धिस्ट सोसाइटी के आयोजकों के प्रतिनिधि उनसे भेंट करने आए तो सबसे पहले परम पावन दलाई लामा ने इस महत्वपूर्ण बौद्ध स्थान पर उन्हें आमंत्रित करने के लिए उनके प्रति धन्यवाद ज्ञापित िकया। उन्होंने कहा:

"यद्यपि यह ऐतिहासिक बौद्ध स्थल जीर्णावस्था में है पर बुद्ध की शिक्षाएँ नष्ट नहीं हुईं हैं। वास्तव में कई बुद्धिमान व्यक्ति आज उसमें रुचि ले रहे हैं।"

उन्होंने उल्लेख किया कि उनके प्रथम बार १९६० में संकस्या आगमन के बाद कई मंदिरों का निर्माण किया जा चुका है। परन्तु उन्होंने बल दिया, जैसा कि वे सदा करते हैं कि मंदिरों और मूर्तियों की तुलना में शिक्षाएँ अधिक महत्वपूर्ण हैं। पुस्तकों का प्रकाशन और एक पुस्तकालय की स्थापना, जैसा कि वाइ बी एस कर रही है, अधिक प्रभावी है। उन्होंने सलाह दी कि तेंग्यूर के २२० खंडों से बौद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक स्पष्टीकरण निकालने का कार्य, जिनमें नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्यों के लेखन भी शामिल हैं, प्रारंभ हो चुका है। उन्होंने कहा कि वे आशा करते हैं कि ये धार्मिक से अधिक शैक्षणिक अध्ययन का आधार बन सकते हैं।


उनके होटल से एक छोटी यात्रा के बाद परम पावन सेचेन विहार आए जहाँ एक स्तूप निर्मित किया है जिसकी प्राण प्रतिष्ठा के िलए उनसे अनुरोध िकया गया था। यह बौद्ध तीर्थ स्थलों पर स्तूप बनाने की, दिवंगत दिलगो खेंचे रिनपोछे की इच्छा को पूरा करने की परियोजना का एक अंग है। परम पावन ने एक संक्षिप्त अनुष्ठान किया और खेंचे रिनपोछे के वर्तमान अवतार के साथ एक तस्वीर खिंचवाई।
वाइ बी एस मैदान पर उनसे संकस्या अशोक स्तम्भ, जिसकी ऊँचाई ४० मीटर है और जिसके शीर्ष पर सूंड और पूँछ वाली एक सम्पूर्ण गज प्रतिमा है, की एक प्रभावशाली प्रतिकृित को आशीर्वचित करने का अनुरोध िकया गया। कई सौ भिक्षुओं, कई हजार स्थानीय उपासकों, कई तिब्बतियों और मुट्ठी भर विदेशियों के समक्ष प्रवचन स्थल के मंच पर अपना आसन ग्रहण करते हुए उन्होंने प्रारंभ किया ः
 
"यह वह स्थान है जहाँ बुद्ध अपनी माँ को शिक्षा देने के बाद पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। मैं पहले एक बार यहाँ आया हूँ और आपके आमंत्रण पर मैं यहाँ पुनः आया हूँ। वाइ बी एस ने यहाँ एक पुस्तकालय प्रारंभ िकया है और उसमें जो भी कड़ा परिश्रम लगा है उसके लिए मैं अपनी सराहना अभिव्यक्त करना चाहता हूँ। इस स्थान पर जो बुद्ध के लिए पवित्र है, मैं प्रार्थना करता हूँ कि ऐसे कई विकास हों।"

"हम स्थानीय भिक्षुओं द्वारा पालि में मंगल सुत्त के पाठ द्वारा प्रारंभ करेंगे जिसके पश्चात हृदय सूत्र मंत्र का पाठ होगा। जबकि पालि परम्परा का आधार चार आर्य सत्य की शिक्षा, प्रतीत्य समुत्पाद के द्वादशांग और बोध्यांग के ३७ तत्व हैं, संस्कृत परम्परा का आधार प्रज्ञापारमिता सूत्र का संग्रह है।"

उन्होंने कहा कि नागार्जुन ने व्यापक रूप से प्रज्ञापारमिता सूत्रों के स्पष्टार्थ पर टिप्पणी की थी और मैत्रेय ने निहितार्थ, मार्ग के विषय में समझाया था। यही कारण है कि वे प्रवचन का प्रारंभ नागार्जुन की 'मूलमध्यमककारिका' और मैत्रेय के 'अभिसमयालंकार' के वंदना श्लोकों से प्रारंभ करना पसंद करते हैं।

"मैं धम्मपद का पाठ करने वाला हूँ," उन्होंने घोषणा की। "मैं उसे कुछ व्याख्याओं के साथ यहाँ वहाँ पढ़ूँगा। पालि पाठ धम्मपद है, परन्तु तिब्बती में इसका सम उदानवर्ग है जो कि कदमपा आचार्यों के छह प्रमुख ग्रंथों में से एक है। जातकमाला के अतिरिक्त, इनमें शांतिदेव का 'बोधिसत्वचर्यावतार' और 'सूत्र समुच्चय', असंग की 'बोधिसत्व भूमि' तथा मैत्रेय के 'सूत्रालंकार' शामिल हैं।

उन्होंने धम्मपद का ग्रंथ खोला और एक भूमिका के रूप में पहले दो छंद पढ़े।

चित्त उसकी वस्तुओं से पहले जाता है। वे चित्त से शासित और चित्त निर्मित हैं। क्लेश चित्त से बोलने अथवा कार्य करना, पीड़ा को अपनी ओर खींचना है जिस प्रकार चक्का खींच रहे जानवर के पीछे चलता है।

चित्त उसकी वस्तुओं से पहले जाता है। वे चित्त से शासित और चित्त निर्मित हैं। एक शांत चित्त से बात करना अथवा कार्य करना अपनी ओर सुख को आकर्षित करना है जैसे छाया व्यक्ति का पीछा कभी नहीं छोड़ती।


परम पावन ने टिप्पणी की, कि शिक्षक और उसके श्रोता दोनों को शिक्षाओं को देने व सुनने के लिए अपनी प्रेरणा को सही करना होगा। शिक्षक को जाँचना होगा िक वह नाम और ख्याति को कमाने के लिए शिक्षा नहीं दे रहा, जबकि शिष्य मात्र इसलिए सम्मिलित न हों कि वे इस बात की गिनती रख सकें कि उन्होंने कितनी शिक्षाएँ सुनी हैं। यह पूछते हुए कि धर्म क्या है और क्या वह आज प्रासंगिक है, परम पावन ने कहा कि इसका प्रकार्य हमें दुख से बचाना है। जैसा कि प्रथम छन्द स्पष्ट करता है, यदि आपका चित्त शांतिपूर्ण है, तो आप सुखी रहेंगे। यह हमारे उद्वेलित करने वाली भावनाओं की ओर संकेत करता है।

भौतिक विकास मात्र ऐन्द्रिक सुख देता है, पर स्थिर रूप से सुखी रहने के िलए हमें अपने मन को विकसित करने की आवश्यकता है। हमें शांत चित्त की जरूरत है ।

"यदि आपका चित्त अनुशासित है, तो आप भले ही धार्मिक हों अथवा नहीं, आप अधिक सुखी रहेंगे। आज यहाँ तक कि वैज्ञानिक भी पा रहे हैं कि यदि आपके चित्त में शांति है, तो आप अधिक सुखी होंगे और आपका परिवार और अधिक संतोषमय होगा। इस प्रकार की धर्म निरपेक्षता का आधार उन लोगों को भी रुचिकर होगा जिनमें िकसी भी प्रकार की धार्मिक आस्था नहीं है। और इस संदर्भ में मैं भारतीय अर्थ में धर्म निरपेक्षता का प्रयोग कर रहा हूँ जिसमें सभी धार्मिक विचारों और जो िकसी भी प्रकार के धार्मिक विचार को नहीं मानते, के प्रति सम्मान का भाव है।"

परम पावन ने समझाया कि प्रमुख धर्मों में ऐसे हैं जो एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास करते हैं और जो लोग नहीं करते। जो अनीश्वरवादी हैं उनमें बौद्ध, जैन और सांख्य का एक अंग हैं। बाद की दो परम्पराएँ आंतरिक रूप से अस्तित्व रखने वाली आत्मा में विश्वास रखती हैं जबकि बौद्ध नहीं करते। परन्तु सभी धार्मिक परंपराओं का प्रयोजन एक समान है, हमें बेहतर मनुष्य बनने में सहायता करना। इस कारण वे सभी लाभकारी हैं और इसलिए उन्हें एक दूसरे के साथ सद्भाव पूर्वक रहना चाहिए। यह सद्भाव जो शताब्दियों से भारत में अस्तित्व में रहा है एक ऐसी निधि है जिसका संरक्षण किया जाना चाहिए और सुरक्षित रखना चाहिए।

 
बौद्ध धर्म के तीन अधिशिक्षा शील समाधि और प्रज्ञा ऐसे अभ्यास हैं जो अन्य शास्त्रीय भारतीय परंपराओं में भी आम रूप से पाए जाते हैं। उनमें जो अंतर है वह यह कि क्या वे अनात्मा की निहित सत्ताहीनता को स्वीकार करते हैं अथवा आंतरिक रूप से अस्तित्व रखने वाली आत्मा को। कई लोग आत्मा की स्वतंत्र सत्ता के न होने को ऐसा मानते हैं मानो आत्मा का कोई अस्तित्व है ही नहीं जबकि जिसका खंडन किया जाता है वह एक स्थायी, एकल और स्वायत्त आत्म है। इसकी व्याख्या यह है कि व्यक्ति मनोवैज्ञानिक शारीरिक समुच्चय के आधार पर ज्ञापित किया जाता है।

परम पावन ने ग्रंथ से अध्याय २० के तीन छंद पढ़ें:

सारे संस्कार अनित्य हैं। इसको जब कोई प्रज्ञा से देख लेता है, तब उसका दुख क्षेत्र के प्रति भोक्ता भाव टूट जाता है। यही विशुद्धि का मार्ग है। २७७

सारे संस्कार दुख हैं। इसको जब कोई प्रज्ञा से देख लेता है, तब उसका दुख क्षेत्र के प्रति भोक्ता भाव टूट जाता है। यही विशुद्धि का मार्ग है। २७८

सभी धर्म मेरे बस के बाहर हैं। इसको जब कोई प्रज्ञा से देख लेता है, तब उसका दुख क्षेत्र के प्रति भोक्ता भाव टूट जाता है। यही विशुद्धि का मार्ग है। २७९


उन्होंने कहा कि दुख का समाधान मात्र त्रिरत्न की प्रार्थना से नहीं होगा। हमें दुख के चार पहलुओं के आधार पर कार्य करना होगा, प्रथम आर्य सत्य कि यह अनित्य, दुखपूर्ण, शून्य और नैरात्म्य है। उन्होंने स्पष्ट किया कि अज्ञान केवल न जानने की बात हो सकती है, पर इसमें भ्रांत धारणाएँ जो यथार्थ को विकृत करती हैं, भी शामिल हैं।

परम पावन ने अपने श्रोताओं को स्मरण कराया कि बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद उन्होंने जो अनुभूत िकया था उस पर चिन्तन करते हुए उन्होंने ४९ बिताए। उन्होंने सोचा कि जहाँ उन्होंने मुक्ति के मार्ग की खोज की थी, पर कोई अन्य उसे समझ नहीं पाएगा, यही कारण है कि हमें अब भी प्रयास करना पड़ता है।


जब वह मध्याह्न के भोजन के लिए मंच से बाहर आए तो वे पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए रुके। उनसे पूछा गया कि वह ओबामा की टिप्पणी के बारे में क्या सोचते हैं कि भारत को अपनी धार्मिक परंपराओं के बीच सद्भाव को संरक्षित करना होगा। परम पावन ने उत्तर दिया कि भारत एक जीवंत उदाहरण है कि धार्मिक परंपराएँ कंधे से कंधा मिलाकर एक साथ रह सकती हैं। उन्होंने आगे कहा कि हमारी तेजी से बढ़ती भूमंडलीकृत विश्व में हमें यह स्वीकारना होगा कि कई धर्म और कई सत्य हैं। श्री ओबामा की भारत यात्रा करने के सम्बध में परम पावन ने सबसे बड़ी जनसंख्या के लोकतंत्र भारत, जापान, सबसे अधिक औद्योगिक और विकसित एशियाई लोकतंत्र और मुक्त विश्व के अगुआ संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच अच्छे संबंधों के महत्व की बात की।

एक अन्य प्रश्नकर्ता जानना चाहता था कि क्या उनके पास महात्मा गांधी के विषय में कहने के िलए कुछ था, जिनकी हत्या के कारण हुई मृत्यु की कल वर्षगांठ थी। उन्होंने उत्तर दिया कि गाँधी ने स्वयं को अहिंसा की प्राचीन भारतीय परंपराओं और अंतर-धार्मिक सहिष्णुता और सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए समर्पित कर दिया था। भारत-चीन संबंधों के बारे में उन्होंने उल्लेख िकया कि इन दो महान देशों को एक साथ रहना है और इसलिए बेहतर होगा कि उन दोनों के बीच विश्वास तथा बेहतर संबंधों का निर्माण करने के लिए कार्य िकया जाए।

मध्याह्न के सत्र में, परम पावन ने समझाया कि िकस प्रकार बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी थी। उन्होंने सर्व प्रथम दुख, उसके कारण, निरोध तथा मार्ग को पहचानने की आवश्यकता पर बल दिया। इसके बाद यह आवश्यक है कि जिसकी पहचान की गई हो उसके विषय में कुछ िकया जाए, दुख की पहचान, उसके कारणों पर काबू पाया जाए, निरोध की प्राप्त करें और मार्ग का विकास करें। एक बार वह कर लिया तो परिणाम यह होता है कि जानने के िलए, काबू पाने के िलए, प्राप्त करने के िलए और विकास करने के िलए कुछ नहीं रह जाता।

परम पावन ने अध्याय १ के ११वें और १२वें छंद से धम्मपद का पठन पुनः प्रारंभ िकया।

निस्सार में सार को देखना और सार को निस्सार समझने का अर्थ है कि आप गलत चिंतन के मार्ग में भटकते हुए कभी सार को नहीं प्राप्त कर सकते। ११

परन्तु सार में सार को देखना और निस्सार को निस्सार जानने का अर्थ है कि आप सही चिंतन के मार्ग में होते हुए सार को प्राप्त कर लेते हैं। १२


उन्होंने यह कहते हुए प्रथम अध्याय का समापन िकया कि "यदि वह व्यक्ति उचित ग्रंथों के उद्धरण देने में रुचि रखता भी है तो वह विचारहीन व्यक्ति जो स्वयं उन्हें अभ्यास में नहीं लाता, उस चरवाहे की तरह है जो अन्य लोगों की गायों की गिनती करता है।"

इस भावना में, परम पावन ने सुझाव दिया कि यदि आप ये जानते हैं कि वे क्या हैं तो त्रिरत्न में शरण लेना अधिक प्रभावी है। कारण द्वारा समर्थित श्रद्धा मुक्ति की ओर ले जाएगी, जिसका अर्थ यह है कि हमें अपने मस्तिष्क का पूर्ण उपयोग करना होगा।

सत्र के अंत में पहुँचते हुए उन्होंने कल प्रवचन जारी रखने की बात की। 

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