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अनुज्ञा तथा अवलोकितेश्वर अभिषेक, भावना क्रम और मार्ग के तीन मुख्य आकार १३/अप्रैल/२०१५

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टोक्यो, जापान - १३ अप्रैल २०१५ - आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा का आगमन हुआ तो शोवा जोशी महिला विश्वविद्यालय स्मृति सभागार हॉल रिक्त था। उन्होंने एक छोटे मंडल और १००० भुजा युक्त अवलोकितेश्वर के मंडप के समक्ष, उनके द्वारा िदए जा रहे अभिषेक की तैयारी करने हेतु आसन ग्रहण किया। इसमें लगे एक घंटे के दौरान सभागार धीरे धीरे भरने लगा।


आज का कार्यक्रम जापानी में प्रज्ञा पारमिता सूत्र के पाठ से प्रारंभ हुआ। परम पावन ने समझाया कि वह क्या करने वाले थेः
 
"आज प्रातः हम पहले अभिषेक की प्रक्रिया पूरी करेंगे। यदि आप तंत्र का अभ्यास करना चाहते हैं तो अभिषेक का होना आवश्यक है। यद्यपि अन्य तांत्रिक परम्पराएँ इसी प्रकार की तकनीकों का प्रयोग करती हैं, पर बौद्ध तांत्रिक अभ्यास की विशिष्टता यह है कि इसका अभ्यास शून्यता की समझ तथा बोधिचित्त के संदर्भ में किया जाता है। यह चेतना के सूक्ष्म स्तरों के प्रयोग का भी एक अवसर है, जिसमें सबसे सूक्ष्म आदि प्रभास्वरता वाला चित्त है। इसी को कभी कभी बुद्ध प्रकृति के रूप में संदर्भित किया जाता है। यह असाधारण चित्त ही अंततः प्रबुद्धता की स्थिति में बुद्ध काय में परिवर्तित हो जाता है।"

"वज्रयान, मंत्रयान के रूप में जाना जाता है, जिसका अर्थ है, वह वाहन, जो चित्त की सुरक्षा करता है। यह चित्त की रक्षा एक साधारण रूप में दिखाई पड़ने वाले स्वरूप से रक्षा करता है और जिसमें अभ्यासी का स्वयं को एक देवता के रूप में भावना करना शामिल है।"

परम पावन ने वज्र और घंटा के महत्व को भी समझाया जो वह पकड़े हुए थे। उन्होंने कहा कि वज्र देव योग का प्रतिनिधित्व करता है जबकि घंटा शून्यता की समझ का प्रतिनिधित्व करता है। स्वयं को एक देव सम की भावना करने को प्रभावी करने के लिए इसमें स्वभावगत सत्ता की शून्यता की समझ का वैशिष्ट्य होना चाहिए। वज्र और घंटे का उपयोग यह दिखाने के लिए कि देव योग और प्रज्ञा अविभाज्य हैं, साथ साथ किया जाता है।


जो तांत्रिक अभ्यास में संलग्न करने के योग्य शिष्य हैं, चर्या तंत्र उन्हें भिक्षु और भिक्षुणियों और जो उपासक का संवर धारण किए हैं, के रूप में परिभाषित करता है। इसलिए परम पावन ने कहा कि जो लेने की इच्छा रखते हैं वे उनके लिए उपासक के संवर प्रदत्त करेंगे। उन्होंने हत्या (प्राणातिपात ), चोरी, (अदत्तादान) झूठ न बोलना (मृषावाद), यौन व्यभिचार (काम व्यभिचार) और मादक पदार्थों (सुरा) से दूर रहने के पञ्च शीलों की व्याख्या की। उन्होंने सलाह दी कि व्यक्तिओं को इस बात की स्वतंत्रता है कि इन शीलों में से वे कितनों का और किन संवरों को वे ग्रहण कर उनका पालन कर सकते हैं। उन्होंने इन शीलों को ग्रहण करने के समारोह का आधार बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेने के मूल छंद के पाठ पर आधारित किया। तत्पश्चात उन्होंने शिष्यों को बोधिचित्तोत्पाद का एक अवसर प्रदान किया।

उसके बाद उन्होंने इस सरल छंद का पाठ करते हुए बोधिसत्व संवर ग्रहण करने में श्रोताओं का नेतृत्व कियाः

मैं त्रिरत्नों में शरणगमन होता हूँ
सभी कुकर्मों को मैं विशिष्ट रूप से स्वीकार करता हूँ
मैं सत्वों के कुशल कर्मों की अनुमोदना करता हूँ
और मैं बुद्ध की संबुद्धता को प्राप्त करने की कामना करना चाहता हूँ।


उन्होंने टिप्पणी की कि इस छंद का दैनिक पाठ और मरणासन्न अवस्था में इसका स्मरण उपयोगी होगा।

जब परम पावन ने अवलोकितेश्वर अभिषेक समाप्त कर लिया तो उन्होंने कहा कि मंत्र का पाठ अच्छा होगा, पर प्रतिबद्धता यह है कि यदि आप कर पाएँ तो दूसरों की सहायता करें, और यदि आप न कर पाएँ तो उनका अहित न करने का प्रयास करें।


मध्याह्न भोजनोपरांत परम पावन ने चीनी बौद्ध धर्म के एक समूह के साथ भेंट की। उन्होंने उनसे कहा कि चूँकि चीन में ४०० लाख बौद्धों के होने का अनुमान है, यह एक बौद्ध राष्ट्र है। उन्होंने १९५४ - ५५ में अपनी यात्रा के दौरान देखे गए कई मंदिरों का स्मरण किया। उन्होंने टिप्पणी की कि साम्यवादी अधिकारियों ने धर्म उन्मूलन करने का प्रयास किया है और वे विफल रहे। धर्म शांति का एक स्रोत है और जहाँ कई धार्मिक परम्पराएँ आस्था पर आधारित हैं, बौद्ध धर्म अपने तर्क के उपयोग के कारण एक विशिष्ट रूप रखता है।

उन्होंने उनसे कहा कि विगत ३० से अधिक वर्षों से जो संवाद वे वैज्ञानिकों के साथ कर रहे हैं वह पारस्परिक रूप से लाभप्रद हुआ है। उदाहरण के लिए उन्होंने जाना कि अभिधम्म साहित्य ग्रंथों में वर्णित ब्रह्माण्ड विज्ञान त्रुटिपूर्ण है और जिस ब्रह्मांड में हम रहते हैं वे उसके वैज्ञानिक विवरण को स्वीकार करते हैं। पर साथ ही बौद्ध ग्रंथों से वे चित्त तथा भावनाओं के विषय में जो कुछ भी शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं उसमें वैज्ञानिक बहुत रुचि ले रहे हैं।

उन्होंने ज्ञान के संबंध में नालंदा परम्परा के कठोर दृष्टिकोण की सराहना की। उन्होंने व्याख्याओं के पठन और श्रवण और जो कुछ आप ने पढ़ा है अथवा सुना है उस के प्रति विश्वास जनित करने के लिए चिन्तन करने और ध्यान में आपने जो समझा है उससे परिचित होने की सलाह दी। उन्होंने यह इंगित करते हुए कि मात्र अमिताभ के नाम का जाप पर्याप्त नहीं, अध्ययन और विश्लेषण के महत्व पर बल दिया।

परम पावन मे मध्याह्न का सत्र अवलोकितेश्वर खसरपाणि की अनुज्ञा से प्रारंभ किया जो कि एक मुख, द्विभुजीय रूप है जो सहज रूप में चित्रित है और चित्त की प्रकृति में स्थित है। उसके बाद उन्होंने भावना क्रम के मध्य भाग का संक्षिप्त पाठ किया और उसमें चर्चित विभिन्न विषयों, जैसे कि चित्त क्या है और उसे किस प्रकार प्रशिक्षित किया जा सकता है, पर बात की। करुणा जो बोधिचित्तोत्पाद का उत्प्रेरक है और उसे क्रियाशील बनाता है, वह उस पहचान पर आधारित है कि यद्यपि सत्व दुख की कामना नहीं करते, पर वे निरन्तर उसके हेतुओं को निर्मित करते हैं।


उन्होंने समझाया कि अनादिकाल शब्द का अर्थ क्या है जब हम यह कहते हैं कि सत्व अनादिकाल से भवचक्र में फँसे हुए हैं। चेतना का आधारभूत कारण एक और चेतना है और यह चेतना के क्षणों का संतान है जो अनादि है। उन्होंने दुःख के स्वरूप की बात की और टिप्पणी की कि आधारभूत पीड़ा जिसे हम दुःख के रूप में स्वीकारते हैं, स्पष्ट है, पर विपरिणाम दुःख और संस्कार दुःखता को हम प्रायः सुख समझने की भ्रांति कर बैठते हैं।

यह समझाते हुए कि किस प्रकार विपश्यना का विकास किया जा सकता है, ग्रंथ शमथ के विकास की आवश्यकता का वर्णन करता है। यह इसके विकास के चरण की व्याख्या करता है, उदाहरण के लिए बुद्ध की कल्पित छवि पर तथा मार्ग में शैथिल्य व औदत्य़ के संकट पर ध्यान केंद्रित करना। परा विपश्यना स्वभावगत सत्ता के अस्तित्व की शून्यता पर केन्द्रित होती है। इसकी प्राप्ति शमथ के ध्यान को विपश्यना द्वारा प्राप्त हुए समझ को व्यवहार में लाकर की जाती है। यह अभ्यासी को संभार मार्ग और प्रयोग मार्ग के मार्ग में प्रवेश करने की ओर ले जाता है। दर्शन मार्ग की पहुँच दश बोधिसत्व भूमि के प्रथम भूमि तक पहुँचने की आवश्यकता पर बल देता है, जो कि भावना मार्ग और अशैक्ष्य मार्ग के दौरान प्रकट होता है।

परम पावन ने द्वितीय दलाई लामा गेदुन ज्ञाछो के 'मार्ग के तीन मुख्य आकार' के एक संक्षिप्त विवरण के साथ सत्र का समापन किया। यह एक अवलोकितेश्वर के भारतीय सिद्ध, मैत्रियोगी के साथ प्रारंभ होने वाले शिक्षण पर आधारित है। यह जीवन के दौरान, मृत्यु के समय और बार्दो जो चर्या की जानी चाहिए उसका वर्णन करता है। जीवन में की जानी वाली चर्या में अवलोकितेश्वर की भावना और सभी सत्वों और ध्यान की चित्त की प्रकृति में परिवर्तित करना शामिल है।


मृत्यु के समय के अभ्यास में सिर के शीर्ष भाग पर कल्पित अवलोकितेश्वर में चेतना के स्थानांतरण की भावना है। यह ऐसा है जिसमें अभ्यासी को 'हिक' कहते हुए चेतना को ऊर्ध्व दिशा में पारित करने में कुशल होना पड़ता है। इस चर्या का अभ्यास करते समय यह महत्वपूर्ण है कि चेतना को शीर्ष पर से जाने न दिया जाए, पर उसे वहीं पकड़ लिया जाए और 'गाह' 'गाह' कहते हुए उसे वापिस लाया जाए। एक अन्य महत्वपूर्ण कारक आसन्न मृत्यु के लक्षण पहचान करने में सक्षम होना है। परम पावन ने कहा कि दीर्घकालिक और अल्पकालिक संकेत हैं परन्तु स्थूल व सूक्ष्म संकेत भी हैं। उदाहरणार्थ एक निपुण योगी, नासिका में हो रहे श्वास प्रवाह के परिवर्तन को पढ़ सकता है।

परम पावन ने समझाया कि बार्दो में इस चर्या के अभ्यास की कुंजी इस अवस्था में होने के जागरूकता का विकास है। उन्होंने आगे कहा कि बहुत कुछ पर निर्भर करता है कि अभ्यासी ने जीवित रहते हुए इस अभ्यास को किस प्रकार िकया है।

"जापान में समय का सख्ती से पालन किया जाता है और हम पहले ही उससे आगे बढ़ चुके हैं, इसलिए हमें यहाँ रोकना होगा," परम पावन हँस पड़े। "यद्यपि हम ग्रंथ का शब्दशः पठन नहीं कर पाए पर आप पुनः स्वयं उस की समीक्षा करें और आप ने जो सीखा है उसकी चर्चा अपने मित्रों के साथ करें। बस इतना ही, आप सभी का आने के लिए धन्यवाद।"

कल, परम पावन भारत लौटने के लिए उड़ान भरेंगे। 

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