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आइची गकुएन विश्वविद्यालय में छात्रों को संबोधन ७/अप्रैल/२०१५

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नागोया, जापान - ७ अप्रैल २०१५ - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा ने टोक्यो से नागोया की यात्रा, शिंकनसेन - 'बुलेट ट्रेन' से की तथा मोटर गाड़ी से आइची गकुएन विश्वविद्यालय के परिसर गए। विश्वविद्यालय का इतिहास एक सोटो ज़ेन प्रशिक्षण केंद्र के रूप में प्रारंभ हुआ था जो कि १८७६ में स्थापित किया गया था। अब यह ५०,००० छात्रों को मानवता की भावना के साथ संचरित शिक्षा प्रदान करता है, जो सोटो ज़ेन संस्थापक डोगजेन ज़ेन्जी की सोच, कि अध्ययन और अभ्यास को अलग नहीं देखा जाना चाहिए, से निकाली गई है।


परम पावन को प्रोफेसरों और शिक्षकों के साथ मध्याह्न में एक परम्परागत जापानी भोजन परोसा गया। तत्पश्चात वे उत्साही छात्रों के साथ बातचीत करते हुए सभागार की ओर चले जहाँ वे ३२०० की संख्या के श्रोताओं को संबोधित करने वाले थे। जब वे मंच पर आए तो २४०० छात्रों ने उनका उत्साह भरा स्वागत किया।

"आदरणीय वरिष्ठ लोगों और छोटे भाइयों और बहनों," उन्होंने कहा, मेरे लिए आप जैसे युवा लोगों से बातें करना, जो पुरुषों तथा महिलाओं के रूप में बड़े हो रहे हैं, बड़े सम्मान की बात है। मेरे समान नहीं, पर आपके समक्ष आपका अधिकांश जीवन है। जहाँ अतीत जा चुका है और परिवर्तित नहीं किया जा सकता पर आप भविष्य को एक नई आकृति प्रदान करने में सक्षम हो सकते हैं। आपके पास स्वयं को एक सुखी व्यक्ति, जो एक सुखी समुदाय और राष्ट्र का है और एक सुखी मानवता का अंग है, बनाने का एक महान अवसर है, वास्तव में एक उत्तरदायित्व है।"

"मेरे लिए औपचारिकता का कोई अर्थ नहीं और मैं अनौपचारिकता अधिक पसंद करता हूँ, पर मैं तेज रोशनी से अपनी आँखों को बचाने के लिए तथा श्रोताओं के चेहरों को देखने हेतु टोपी पहनने के लिए आपकी अनुमति चाहता हूँ। मैं जहाँ भी बोलता हूँ वक्ता और श्रोताओं को मात्र मनुष्य मानता हूँ, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से एक जैसे। हम सभी एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और ऐसा करना हमारा अधिकार है। हम सब एक ही तरह से जन्म लेते हैं और उसी तरह मरेंगे, इसमें कोई औपचारिकता शामिल नहीं है।"


"आज की वास्तविकता में, 'हमारे' और 'उन' के बीच के अंतर की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। हमारा विश्व, हमारी अर्थव्यवस्थाओं के संदर्भ और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ, जो सभी के लिए चुनौतीप्रद है, दोनों को लेकर बहुत गहन रूप से अन्योन्याश्रित है। वास्तविकता बदल गई है, लेकिन हम अभी तक वस्तुओं को पुराने ढंग से देखते हैं। इसी कारणवश यद्यपि हम ऐसा करने की इच्छा नहीं रखते पर हम अपने लिए समस्याएँ निर्मित करते हैं। हमारी सोच संकीर्ण और अदूरदर्शी है। हम वस्तुओं को एक समग्र रूप में नहीं देखते। हमारी धारणा और यथार्थ के बीच अंतर है। उदाहरणार्थ आप जापानियों में अपने आप को मात्र इन द्वीपों को लेकर अपनी चिंता को सीमित करने की बजाय समूचे एशिया, सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए सहयोग करने की क्षमता है। कृपया एक व्यापक दृष्टिकोण लेने का प्रयास करें।"

परम पावन ने कहा कि यद्यपि श्रोताओं से पहले ही उनका परिचय करवाया जा चुका है, वे उन्हें अपनी तीन प्रतिबद्धताओं के बारे में बताना चाहेंगे। सबसे प्रथम एक मानव के रूप में वे सम्पूर्ण मानवता के भविष्य के हित के विषय में सोचने का प्रयास करते हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि अपने जीवनकाल में, २९वीं शताब्दी ने अभूतपूर्व रक्तपात देखा था, जिसमें इतिहासकारों के अनुसार २०० अरब हिंसा में मारे गए। यदि उसने कोई अच्छा परिणाम जनित किया होता, तो इसे न्यायसंगत माना जा सकता था। परन्तु परम पावन ने सुझाया कि आज जो युद्ध तथा हत्याएँ हो रही हैं वह विगत शताब्दी की लापरवाही और त्रुटियों का लक्षण है। उन्होंने कहा कि हमें एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें एक की विजय और अन्य की पराजय शामिल नहीं है, पर जो सभी मनुष्यों को एक परिवार के सदस्य के रूप में देखता है।


"मेरे द्वारा सुख के स्रोत के रूप में मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने के प्रयास के तीन कारण हैं। सबसे पहले तो हमारी मांओं द्वारा दिखाए गए दया और स्नेह हमारे आम अनुभव हैं। दूसरा यह सामान्य ज्ञान है कि यदि कोई एक परिवार धनवान है, पर उनमें आधारभूत दया और स्नेह का अभाव है, तो उसके सदस्यों के दुखी होने की संभावना होगी। तीसरा, वैज्ञानिकों को भी आज प्रमाण मिल रहे हैं कि सुख का वास्तविक प्रभावी स्रोत चित्त की शांति है।"

"एक बौद्ध भिक्षु के रूप में मैं देखता हूँ कि सभी धार्मिक परम्पराएँ प्रेम, सहिष्णुता और क्षमा का संदेश संप्रेषित करते हैं। और चूँकि वे एक आम संदेश, एक आम अभ्यास और एक समान लक्ष्य साझा करते हैं, हम उन सबकी सराहना और सम्मान कर सकते हैं। अंत में, एक तिब्बती के रूप में, मैं हमारी अनूठी संस्कृति को संरक्षित करना चाहता हूँ, जो शांति और अहिंसा और जीवन के सभी रूपों के लिए एक सम्मान द्वारा विशिष्टता रखती है।"

उन्होंने आगे कहा कि बौद्ध धर्म ग्रंथों के अधिकतर संस्कृत से तिब्बती भाषा में अनूदित ३०० से अधिक संस्करणों की सामग्री के विषय को, विज्ञान, दर्शन और धर्म के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि बौद्ध विज्ञान की दो पुस्तकें तैयार हुई हैं और इनका अंग्रेजी, चीनी, और अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जा रहा है, ताकि विषय को प्रत्येक व्यक्ति पढ़ कर अध्ययन कर सके। उन्होंने पिछले ३० वर्षों से आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ हो रहे विचार विमर्श का भी उल्लेख किया, जिसके कारण माइंड एंड लाइफ इंस्टिट्यूट की प्रतिस्थापना हुई है। उसके कार्यों का एक भाग आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा प्राचीन भारत में चित्त तथा भावनाओं के प्रकार्य के विवरण में दिखाई जा रही रुचि से सम्बन्धित है।

"आज विश्व एक नैतिक संकट का सामना कर रहा है," उन्होंने कहा, "और हम इसका उत्तर चित्त के प्रशिक्षण के द्वारा ही दे सकते हैं। परन्तु ऐसा करने के लिए, हमें अपनी भावनाओं की पूरी प्रणाली को समझने की आवश्यकता है, हमें अपनी भावनाओं के एक मानचित्र की जरूरत है। यह योगदान तिब्बती और जापानी बौद्ध धर्म, जो नालंदा परंपरा से सम्बन्धित है, आधुनिक विश्व के लिए कर सकते हैं।"


पत्रकार अकीरा इकेगामी दर्शकों के प्रश्नों का संचालन करने के लिए मंच पर परम पावन के साथ सम्मिलित हो गए। उन्होंने उनसे पूछा कि वे उन युवाओं के लिए क्या सलाह देना चाहेंगे भविष्य की तैयारी के प्रयास में हैं। परम पावन ने कहा:

"सामान्यीकरण करना कठिन है क्योंकि लोगों की आवश्यकताएँ और क्षमताएँ विभिन्न हैं, पर सबसे अच्छी बात अपनी बुद्धि का पूरा उपयोग, एक निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ और समग्र दृष्टिकोण लेना है। जो एक कोण से गंभीर लग सकता है पर अन्य बिंदुओं से उज्ज्वल दिखाई दे सकता है। मैंने १६ वर्ष में अपनी स्वतंत्रता खो दी, २४ में अपना देश, और ५६ वर्षों से चीजें काफी मुश्किल रही हैं। परन्तु यदि मैं पोताला में बना रहता तो मैं एक औपचारिक भूमिका तक सीमित कर दिया जाता। एक शरणार्थी के रूप में मैं एक सामान्य मनुष्य के रूप में रह पाया हूँ, और इच्छानुसार मित्र बना पाया हूँ। मैंने कई अलग अलग स्थानों में सभी प्रकार के लोगों से भेंट की है और उनसे सीखा है।"

उनकी स्पष्ट दिखाई पड़ने वाली आशावादिता के बारे में प्रश्न किए जाने पर परम पावन ने १९९६ में ब्रिटेन की राजमाता के साथ हुई बातचीत के बारे में बताया, जब वे ९६ वर्ष की थीं, और उन्होंने २०वीं सदी का अधिकांश रूप से अनुभव किया था। जब उन्होंने उनसे पूछा कि विश्व बेहतर हुआ है या बदतर, तो उन्होंने निस्संकोच उत्तर दिया कि यह बेहतर था। उन्होेंने कहा कि जब वे युवा थीं तो कोई भी मानव अधिकार और आत्म-निर्णय के बारे में बात नहीं करता था, जो आज आम बात है। उन्होंने कहा कि जहाँ विज्ञान तथा धर्म बिलकुल परे थे, आज वैज्ञानिक चित्त के बौद्ध ज्ञान में सच्ची रुचि ले रहे हैं। उन्होंने हो रहे परिवर्तन का भी प्रमाण के रूप में उदाहरण दिया, जैसे कि सोवियत संघ में अधिनायकवाद का पतन और चीन में दिखाई दे रहे बदलाव, कि विश्व एक सकारात्मक दिशा में बढ़ रहा है तथा आशावादी होने के लिए बहुत कुछ है।


यह पूछे जाने पर कि वे उन छात्रों को क्या सलाह देना चाहेंगे जो सोच रहे हैं कि वे अपने जीवन के साथ क्या करें, उन्होंने उन्हें जापान और जर्मनी का भी स्मरण कराया कि उन्होंने, युद्ध की राख से स्वयं का पुनर्निर्माण किया था।

"आप युवा जापानियों को अंग्रेजी सीखने का और अधिक प्रयास करना चाहिए जो आपके लिए अच्छा होगा। मैं अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी भी बहुत उपयोगी पाता हूँ। मैं आपको मुझसे बेहतर बोलने की चुनौती देता हूँ। और आप को दुनिया के विभिन्न भागों में स्वयं सेवा करते हुए कुछ समय लगाने पर विचार करना चाहिए। आपकी सहायता से अफ्रीका और एशिया में कई लोग विश्व के हित के लिए अपना योगदान दे सकते हैं।"

जब एक अन्य छात्र ने पूछा कि वे दलाई लामा बने कैसे और उन्हे कैसा लगता है परम पावन ने पहले उस प्रश्न को परे कर दिया, कि यह बहुत प्रासंगिक नहीं है, पर आगे स्पष्टीकरण किया कि बौद्ध जीवन पर्यन्त जीवन को मानते ​​हैं। मान्यता प्राप्त पुनर्जन्म की परम्परा में यह माना जाता है कि व्यक्ति कब और कहाँ पैदा होने का चयन करने के लिए सक्षम होता है। उन्होंने सूचित किया कि, उनकी माँ ने बताया था कि जब वे छोटे थे तो उन्होंने स्पष्ट रूप से पिछले जीवन की स्मृतियों की बात की थी। उन्होंने कहा कि उनका दलाई लामा के रूप में चयन किया गया जब तीन उम्मीदवारों के बीच वे खोजी दल की परीक्षा में सफल हुए थे।

एक छात्र जो यह अनुभव करता था कि उसके परोपकारी होने के प्रयास प्रायः अवास्तविक हैं, ने सलाह माँगी। परम पावन ने उससे कहा:


"हम एक सामाजिक प्राणी हैं जिन्हें मित्रों की आवश्यकता है। हमें जीवित रहने के लिए एक समुदाय की जरूरत है। मित्र विश्वास के आधार पर बनते हैं और विश्वास तभी बढ़ता है यदि आप लोगों के प्रति दयालु होंगे। शोषण, धोखाधड़ी और दूसरों पर धौंस जमाकर आप कोई मित्र नहीं जीत सकते। दया और करुणा आत्म-विश्वास को जन्म देती है जो बदले में आपको ईमानदार, सच्चा और पारदर्शी होने के लिए सशक्त करती है। यह आत्म विश्वास चित्त की शांति लाता है जो अच्छे स्वास्थ्य का पक्षधर है।"

"एक सत्य से भरा, करुणापूर्ण व्यवहार शक्ति का संकेत है। झूठ बोलना और क्रोध निर्बलता को प्रकट करता है। तिब्बत के प्रश्न का उदाहरण लें। यह सत्य की शक्ति और बंदूक की शक्ति के बीच का एक संघर्ष है। तत्काल अल्पावधि में, बंदूक की शक्ति अधिक मजबूत है, पर दीर्घकालीन दृष्टि से सत्य की शक्ति की ही विजय होगी। हम चीन के पथभ्रष्ट नीतियों का विरोध करते हैं, परन्तु बिना क्रोध के। हम संवाद और पारस्परिक रूप से सहमत समाधान चाहते हैं। हमारे पास नोबेल शांति पुरस्कार विजेता लियू ज़ियाओबो जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का समर्थन है जो सत्य के बचाव के लिए, अपने दृढ़ता के लिए जेल में हैं।"

जब अवसर का अंत हुआ तो विश्वविद्यालय के अध्यक्ष एत्सुज्यो साटो ने परम पावन को एक उपहार भेंट किया और बदले में एक रेशमी दुपट्टा ग्रहण किया। श्रोताओं ने ज़ोरदार तालियाँ बजाईं जब परम पावन मुस्कराते और हाथ हिलाते हुए मंच से बाहर आए। कल वह अखिल जापान सोटो युवा संत संस्था की ४०वीं वर्षगांठ के अवसर पर गिफू में एक व्याख्यान देंगे।

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