परम पावन 14 वें दलाई लामा
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ग्यूमे तांत्रिक महाविद्यालय में प्रारंभिक प्रवचन ९/दिसम्बर/२०१५

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हुन्सुर, कर्नाटक, भारत - ९ दिसंबर २०१५- जब परम पावन दलाई लामा कल बेंगलूर से रवाना हुए तो उन्होंने सीधे ग्यूमे तांत्रिक महाविद्यालय न जाकर मुंडगोड जाने का निर्णय किया। उद्देश्य गदेन पीठाधीश के हाल ही में निर्मित नूतन कार्यालय और आवास का प्रतिष्ठापना था। परिणामतः वे मध्याह्न विलम्ब से हुन्सुर पहुँचे। आज उन्होंने मध्याह्न भोजन के पश्चात ठीक १२ बजे प्रवचन प्रारंभ किया। अपने ऊपर वाले कक्ष से वे लिफ्ट द्वारा सीधे ग्यूमे मंदिर पहुँचे। उन्होंने सिंहासन के समक्ष अपना सम्मान व्यक्त किया,श्रेष्ठ लामाओं, गदेन ठि रिनपोछे, सक्या दगठी, शरपा छोजे, जंगचे छोजे और लिंग रिनपोछे, और साथ ही उपाध्यायों तथा पूर्व उपाध्यायों का अभिनन्दन किया और अपना आसन ग्रहण किया।


बुद्ध वंदना के पद, प्रज्ञा पारमिता सूत्र और मंडल समर्पण का पाठ हुआ, जिसके बाद १७ नालंदा के पंडितों और तांत्रिक महाविद्यालय के संस्थापक जेचुन शेरब सेंगे की स्तुति का पाठ हुआ। पाठों की समाप्ति के पश्चात परम पावन ने सभा को संबोधित करना प्रारंभ किया।

"आजकल महान भौतिक विकास हुआ है। पर उसी समय तिब्बत में बहुत अशांति रही है। हममें से कुछ निर्वासन में आए और न केवल अपनी आजीविका को सुरक्षित करने में सक्षम रहे पर अपनी परंपराओं का भी संरक्षण कर सके। इनमें हमारी संस्कृति और नालंदा पंडितों की प्रज्ञा शामिल है, जो कि तर्क और कारण के माध्यम से सत्यापित की जा सकती है। तीन महान पीठों - सेरा, डेपुंग, गदेन और ग्युमे और ग्युतो तांत्रिक महाविद्यालय और टाशी ल्हुन्पो की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

"हम निर्वासन में लगभग ६० वर्षों से हैं  । १९५९ में आए लोगों में से कइयों का निधन हो चुका है, पर उनमें शिक्षक थे जो नालंदा के आचार्यों से प्रेरित थे और जिन्होंने युवा पीढ़ी को शिक्षित व पोषित किया। अतीत में जब जे चोंखापा ने पूछा कि कौन उनकी शिक्षाओं की देखरेख करेगा, विशेषकर गुह्यसमाज के संबंध में, तो जेचुन शेरब सेंगे ने ऐसा करने का वचन दिया।

"अब मैं यहाँ धर्म प्रवचन और गुह्यसमाज की दीक्षा देने वाला हूँ। गुह्यसमाज को तंत्र के राजा के रूप में जाना जाता है। तंत्र का सार योग तथा बुद्ध के तीन कायों की प्राप्ति है। योग का संदर्भ शरीर और चित्त के योग से है। गुह्यसमाज में विशेष व्याख्याएँ निहित हैं कि मृत्यु की तीन अवस्थाओं, अंतरभव की अवस्था तथा मार्ग पर जन्म का किस प्रकार ध्यान रखा जाए। नागार्जुन, आर्यदेव और चन्द्रकीर्ति सभी ने गुह्यसमाज के विषय में लिखा और जे चोंखापा के १८ भागों के समग्र लेखन में ५ भागों का मुख्य विषय यही है। तांत्रिक महाविद्यालयों के बिना गुह्यसमाज की व्याख्या जीवित नहीं रहती। मैं उन सभी लोगों को धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने इस अवसर के निर्माण में कार्य किया है।"

परम पावन ने पथ क्रम की शिक्षाओं का उल्लेख किया जो वे लिंग रिनपोछे के अनुरोध पर देते आ रहे हैं और कहा कि वे उन्हें इस बार टाशी ल्हुन्पो में पूरा करेंगे जहाँ वे एक नए सभागार का भी प्रतिष्ठापन करेंगे। उन्होंने टिप्पणी की कि टाशी ल्हुन्पो तर्क और ज्ञान-मीमांसा के अपने अध्ययन की गुणवत्ता के लिए जाना जाता है, जो गेदुन डुब द्वारा प्रोत्साहित किया गया था।

परम पावन ने कहा कि लिंग रिनपोछे से गुह्यसमाज की दीक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने उत्पत्ति क्रम का अभ्यास प्रतिदिन किया है। चूँकि जे रिनपोछे ने इसे इसनी गंभीरता से लिया, उन्होंने कहा, कि आप के अंदर पञ्च क्रमों का क्रियान्वयन करना महत्वपूर्ण है। अतः उन्होंने अपने श्रोताओं से प्रतिदिन साधना करने का और यदि वे कर सकें तो एकांतवास करने का आग्रह किया।

उन्होंने कहा कि आम उपाय में सस्वर पाठ का उपयोग किया जाता है पर जैसे खेडुब रिनपोछे ने सलाह दी कि यदि आप शब्दों को उच्चरित किए बिना अभ्यास कर सकें तो यह और भी बेहतर है। परम पावन ने कहा कि जब उनके पास समय होता है तो वह ऐसा करते हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि लिंग रिनपोछे अभ्यास बहुत अच्छी तरह से करते थे और यदि वे कभी विचलित हुए तो उन भागों को दोहराते थे। अभ्यास करने के लिए बोधिचित्त और शून्य की समझ के आम अभ्यासों में प्रशिक्षण की आवश्यकता है।

परम पावन ने घोषणा की कि वे चोंखापा की 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति' और 'सुलक्ष्य अवदान' पर प्रवचन देंगे। उन्होंने टिप्पणी की कि यदि आप अष्ट लौकिक धर्मों में उलझे रहें तो आप धर्माभ्यास नहीं कर रहे और बिना बोधिचित्त के आपका अभ्यास महायान नहीं है।

"एक बौद्ध प्रवचन देने से पहले मैं कुछ परिचयात्मक पृष्ठभूमि देना चाहूँगा। यहाँ एकत्रित हजारों लोगों में लगभग ९००० विश्व भर के देशों से हैं। हम सामान्य रूप से कहते हैं कि सभी सत्व सुखी हों तथा सुख के कारणों से युक्त हों। शांतिदेव कहते हैं कि जो अपना सुख अन्यों के दुख से परिवर्तित नहीं कर लेते, निश्चित रूप से प्रबुद्धता नहीं प्राप्त करते। तो वे भव चक्र में किस तरह सुख प्राप्त कर सकते हैं? इस बीच विश्व में आज धार्मिक मतभेदों पर लोग लड़ते हैं, यहाँ तक कि आपस में एक दूसरे की हत्या भी कर देते हैं। हम सभी मानव रूप में समान हैं, हम सभी सुख चाहते हैं, दुःख नहीं। तो फिर ऐसा क्यों करें? क्यों दूसरों को पीड़ित करें? वह किस तरह सुख ला सकता है? इस संदर्भ में यह प्रार्थना, 'सभी मातृ सत्व सुखी हों' बहुत मूल्यवान है।


"हम जो दूसरों के लिए कर सकते हैं वह करने की आवश्यकता है। परोपकारिता सुख का मूल है। धर्म का सार एक दयालु हृदय का होना है। सभी धार्मिक परम्पराएँ यही सिखाती हैं। यह समान संदेश है। दार्शनिक दृष्टिकोण से मतभेद हैं, कुछ हैं जो सृजनकर्ता में विश्वास करते हैं और ऐसे हैं जो नहीं करते पर उनका सामान्य प्रयोजन प्रेम और करुणा को बढ़ावा देना है।

"तिब्बती बौद्ध परम्पराएँ सभी भारतीय स्रोतों पर निर्भर हैं। हम सभी एक ही बुद्ध का पालन करते हैं और नालंदा की परंपराओं को बनाए रखते हैं। एक बार जब मैंने गुह्यसमाज की दीक्षा दी तो खेनपो जिगमे फुनछोग उसमें सम्मिलित हुए, इस समय सक्या ठिज़िन हमारे साथ हैं और मैं उन्हें यहाँ आने के लिए उसे धन्यवाद देना चाहूँगा। जब हम तिब्बत में थे तो विभिन्न परम्पराओं के आचार्यों का मिलना बिरला था परन्तु निर्वासन में हम न केवल भेंट करने में सक्षम हुए हैं, अपितु एक दूसरे के निकट भी आए हैं।

"चूँकि हम सभी मनुष्य रूप में एक समान हैं, मैं मानव मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए कार्य करता हूँ। एक भिक्षु के रूप में, मैं धार्मिक सद्भाव और समझ को बढ़ावा देने के लिए कार्य करता हूँ। मैं एक तिब्बती भी हूँ जिस पर तिब्बत के कई तिब्बतियों ने अपनी आशा रखी है। इसलिए यद्यपि मैंने राजनीतिक उत्तरदायित्व छोड़ दिया है पर फिर भी मेरा तिब्बती भाषा और अपनी गहन दार्शनिक विचारों और भावनाओं के कार्य की समझ के साथ नालंदा परंपरा की रक्षा में सहायता करने का एक उत्तरदायित्व है। और मैं तिब्बत के पर्यावरण की स्थिति को लेकर बहुत चिंतित हूँ।"

परम पावन तो द्रुत गति से 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति' का पाठ प्रारंभ किया। उन्होंने अज्ञानता को दूर करने का उल्लेख किया और यह कि प्रतीत्य समुत्पाद दोनों अति दृष्टिकोणों पर काबू पाता है। उन्होंने ञोडुब छोगञी का स्मरण किया जो उनके शास्त्रार्थ सहायकों में तेज़ था विशेष रूप से जब मध्यमक दृष्टिकोण की बात आती, और १९ वें पद के महत्व पर टिप्पणी की:

"प्रतीत्य समुत्पाद होने के कारण
अतिवादी दृष्टि पर निर्भर न होगा।
यह प्रवचन नाथ आपके
उक्ति अनुत्तर हेतु है।"

अपने श्रोताओं को जे रिनपोछे के चरण चिह्नों का अनुपालन करने की सलाह देते हुए पर पावन ने 'सुलक्ष्य अवदान' का पाठ प्रारंभ किया जिसमें बताया गया है कि चोंखापा किस प्रकार अध्ययन व अभ्यास किया करते थे। परम पावन ने टिप्पणी की कि पाठशालाओं का प्रयोजन अज्ञान को दूर करना है पर उनका उद्देश्य भौतिक विकास की दिशा में हो जाता है। उन्होंने कहा कि आंतरिक विकास भी आवश्यक है।

परम पावन ने कहा कि वे आत्मश्लाघा नहीं करना चाहते परन्तु उन्होंने मध्यमक दृष्टिकोण और बोधिचित्त के बारे में उस समय से सुना व अध्ययन किया था जब वे एक छोटे बालक थे। प्रारंभ में बोधिचित्त कोई दूर की संभावना लगी, परन्तु खुनु लामा की व्याख्याओं के बाद उन्होंने अनुभव किया कि कम से कम उसका विकास संभव था। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि ६० के दशक में मध्यमकावतार में चोंखापा के भाष्य की एक पंक्ति कि "वस्तुएँ मात्र नामित हैं" ने बिजली के कौंध सा कार्य किया। उन्होंने कहाः

"सीखने और अध्ययन की प्रक्रिया के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। यदि आप दृढ़ रहें तो आप अपने अंदर एक परिवर्तन देख सकेगें।"

इसके बाद वे सातवीं दलाई लामा के ‘स्मृति चारयुक्त दोहा’ की ओर उन्मुख हुए जो कि शिक्षक की स्मृति और प्रबुद्धता की प्रेरणा के प्रति स्मृति से संबंधित है और प्रेरणा के स्रोत के रूप में जे रिनपोछे के 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार' का उदाहरण दिया।

"चार प्रबल नदियों के बहाव से प्रवाहित
कर्म के सशक्त बंधन से बंधे खोलना जिसे कठिन
आत्मग्रह के लौह जाल में फंसे,
अज्ञान के अंधकार से पूर्ण रूप से आवृत,
अनन्त भव चक्र में जन्म व पुनर्जन्म
निरंतर तीन दुखों से पीड़ित
ऐसी स्थिति में स्थित सभी मातृ की
स्वभाव का चिंतन करके महासत्त्व को उत्पादित करो।"

बाद के पदों का संबंध काय को दैविक काय के रूप में और शून्यता की दृष्टि की स्मृति करने से है।

अंत में, परम पावन ने चोने लामा लोबसंग ज्ञाछो के(चोंखापा के) 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति' पर भाष्य का पाठ प्रारंभ किया। उन्होंने स्पष्ट किया कल की गुह्यसमाज की दीक्षा के लिए प्रारंभिक तैयारियों को प्रांरभ करने से पूर्व वे अपना पाठ समाप्त कर लेंगे। परम पावन अपने कक्ष में लौट गए और विशाल जनसमुदाय जिसमें १०,००० भिक्षु व भिक्षणियाँ शामिल थीं तितर-बितर होने लगा। 

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