परम पावन 14 वें दलाई लामा
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परम पावन दलाई लामा का सौजी मंदिर में एक सार्वजनिक व्याख्यान ११/अप्रैल/२०१५

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टोक्यो, जापान - ११ अप्रैल २०१५ - कानाज़ावा में बुसशोकाइ दल के साथ दो दिनों के विश्राम के पश्चात, परम पावन दलाई लामा आज प्रातः टोक्यो के लिए रवाना हुए। उन्होंने जापान की नवीनतम बुलेट ट्रेनों में से एक, कागायाकी शिंकनसेन, जिसका पिछले महीने उद्घाटन किया गया था, द्वारा यात्रा की। नगानो होते हुए लगभग ५०० किलोमीटर की यात्रा ढाई घंटे में पूरी की गई।


टोक्यो की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर टोक्यो स्टेशन से योकोहामा के सौजी मंदिर की यात्रा काफी धीमी थी। मंदिर के मुख्य संत ने परम पावन की अगवानी की और प्रमुख बुद्ध सभागार में अनुरक्षण किया जहाँ उन्होंने अपनी श्रद्धा व्यक्त की जिसके बाद वे उनके साथ एक पारम्परिक जापानी मध्याह्न भोज में शामिल हुए। उसके बाद हुई एक बैठक में उन्होंने समझाया कि वह मंदिर उनके संस्थापक, ताइसो जोसई दैशी का स्मारक वर्ष मना रहा है। परम पावन ने अपनी यात्रा की स्मृति के रूप में दो संदेश अंकित किए और उपहारों का आदान प्रदान हुआ।

मंदिर परिसर के भवन लकड़ी के गलियारों से जुड़े हैं, जो कि सुंदर उद्यानों से होते हुए जाते हैं। परम पावन को उनसे होते हुए अनुरक्षित किया गया और जैसे ही उन्होंने सभागार में प्रवेश किया, जहाँ १८०० लोग उन्हें सुनने हेतु प्रतीक्षा कर रहे थे, तालियों की गूंज से उनका स्वागत हुआ। तिब्बती में बोलते हुए, जिसका बाद में जापानी में अनुवाद किया गया उन्होंने स्मरण कराया कि मनुष्य के रूप में हम सब एक ही हैं। हम सभी सुख चाहते हैं और पीड़ा से दूर रहते हैं। और यद्यपि हम यहाँ मंदिर में बैठ व्याख्यान सुनकर सुख और संतोष का अनुभव कर सकते हैं पर विश्व के अन्य भागों में लोग दुख से भरे हुए हैं।

"आज जीवित सभी ७ अरब लोग सुख चाहते हैं", परम पावन ने जारी रखा, "पर फिर भी क्रोध तथा रोष के कारण हम लोगों को 'हम' और 'उन' के संदर्भ में देखते हैं। इस प्रकार का व्यवहार जो संघर्ष को और अन्य लोगों की हत्या को भी प्रोत्साहित करता है। यह विशेष रूप से दुख की बात है कि जब इस तरह के संघर्ष धर्म के इर्द गिर्द होते हैं।"


उन्होंने स्पष्ट किया कि सभी धार्मिक परंपराएँ प्रेम और करुणा की शिक्षा देती हैं, तो जब उनके अनुयायी क्रोध और घृणा का व्यवहार करते हैं तो इसका कारण है कि वे अपने अभ्यास के प्रति सच्चे नहीं हैं। ऐसा कहा गया है कि आज १ अरब लोग यह दावा करते हैं कि वे किसी धर्म का पालन नहीं करते, पर एक मनुष्य होने के नाते वे प्रेम व करुणा की हमारी आम आवश्यकता का एक अंग हैं। हमारी माएँ हमें जन्म देती हैं और प्रेम व स्नेह से हमारा पालन पोषण करती हैं और जब हम बड़े भी हो जाएँ तो जीवित रहने के लिए मित्रों तथा स्नेह की आवश्यकता होती है। यदि हम नियमित रूप से क्रोध और शंका के काबू में आ जाएँ, तो न केवल हमारा कोई मित्र होगा पर यह हमारे स्वास्थ्य को निर्बल कर देगा। चाहे हम धर्म में विश्वास करें अथवा न करें स्नेह की आवश्यकता मानव स्वभाव का एक अंग है।

"ऐतिहासिक रूप से जापान एक बौद्ध देश रहा है। बौद्ध धर्म में पालि परम्परा, शामिल है जिसकी आधिकारिकता हमें स्तुति ग्रंथों में मिलती है और संस्कृत परंपरा, जो तर्क पर निर्भर है। संस्कृत परंपरा के अंदर, जापानी भिक्षु और साधारण लोग नियमित रूप से हृदय सूत्र का पाठ करते हैं। हम उन धार्मिक परम्पराओं के बीच भी अंतर कर सकते हैं जो एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास करते हैं और जो नहीं करते। इन गैर-ईश्वरवादी परम्पराओं में केवल बौद्ध धर्म ही है जो एक स्वतंत्र रूप से अस्तित्व वाले आत्मा के न होने पर बल देता है। एक अंशहीन, स्थायी तथा स्वतंत्र रूप से अस्तित्व रखने वाले, अपनी ओर से अस्तित्व रखने वाले आत्मा के बजाय आत्मा को मात्र शरीर तथा चित्त के आधार पर ज्ञापित किया जाता है। यदि शरीर में परिवर्तन होता है तो आत्मा परिवर्तित होती है। उदाहरणार्थ जब शरीर की आयु में वृद्धि होती है तो हम कहते हैं 'मैं अधिक उम्र का हो गया हूँ'।"

परम पावन ने टिप्पणी की कि अन्य भारतीय परम्पराओं की तरह, बौद्ध धर्म का उद्देश्य मुक्ति को प्राप्त करना है, जो कि अपने क्लेशों पर काबू पाना है। जब हमारे चित्त उद्विग्न भावनाओं के अधीन होते हैं तो हमारा भव चक्र में पड़े रहना बना रहता है।


"इसलिए," उन्होंने कहा कि यदि हम वास्तव में सुख चाहते हैं तो हमें अपने चित्त को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है फिर चाहे हम जापान जैसे व्यस्त स्थान में ही क्यों न रहते हों। "कई विकसित देशों में बहुत अधिक भौतिक विकास हुआ है, पर अभी तक आवश्यक नहीं कि लोग खुश हों। मैं अरबपतियों से मिला हूँ जिनके पास उनकी इच्छानुसार सब कुछ है, पर फिर भी वे खुश नहीं हैं। दूसरी ओर, स्पेन में मोंटेसेराट में मैं एक कैथोलिक भिक्षु से मिला जिसने रोटी और पानी से थोड़े अधिक में पहाड़ों पर साधु के रूप में रहते हुए पाँच वर्ष बिताए थे। जब मैंने उनसे पूछा कि वह किस पर ध्यान कर रहा था, उसने उत्तर दिया 'प्रेम', और उसकी आँखें खुशी से चमक उठीं। लगभग बिना किसी शारीरिक सुख सुविधा के वह खुश था।"

परम पावन ने समझाया कि यदि हम मानसिक रूप से उद्विग्न हों तो मात्र शारीरिक सुख हमें आराम नहीं दे सकता, पर यदि हम शारीरिक पीड़ा में हों और हमारा चित्त शांत हो तो हम उस पीड़ा को झेल सकते हैं। इससे एक शांतिपूर्ण चित्त के विकास के महत्व का पता चलता है। जहाँ सभी धार्मिक परंपराएँ सुख की खोज में हमारी सहायता करने का प्रयास करती हैं, अधिकांश विश्वास के आधार पर करती हैं जबकि बौद्ध धर्म तर्क के महत्व पर बल देता है। यह हमें प्रज्ञा की पूर्णता की शिक्षा देता है आस्था की पूर्णता की नहीं। तीन अधिशिक्षाओं की कुंजी - शील का अनुशासन, समाधि की स्थिरता और वास्तविकता को समझने की प्रज्ञा हैं क्योंकि वे प्रज्ञा की विशिष्टता रखती हैं, वे मुक्ति की ओर ले जाती हैं।

उन्होंने आगे कहा कि तिब्बती भारतीय आचार्य दिग्नाग और धर्मकीर्ति के तर्क तथा कारण की रचनाओं से प्रबल रूप से प्रभावित थे और उन्होंने सुना था कि एक समय जापान में भी इस प्रकार का दृष्टिकोण प्रचलित था। यदि कोई इस प्रकार की परम्परा थी तो उन्होंने उसे पुर्नजीवित करने का आग्रह किया।

उन्होंने श्रोताओं को छेड़ते हुए कहा कि यद्यपि उनमें से कुछ उनकी मुस्कान पर मुस्करा रहे हैं, पर कइयों के चेहरे गंभीर हैं। उन्होंने उन्हें बताया कि एक जापानी वैज्ञानिक, जो उनके पुराने मित्र हैं, ने कुछ दिनों पूर्व ही उनसे हँसी की सकारात्मक शक्ति के विषय में बताया था, कि वह किस प्रकार शारीरिक और मानसिक रूप से हमारे लिए अच्छा है।


दर्शकों को प्रश्न पूछने के लिए आमंत्रित किया गया और पहले सामने आए व्यक्ति ने उल्लेख किया कि परम पावन को जहाँ भी जाएँ भिक्षु के चीवर धारण किए हुए देखना कितना प्रभावशाली लगता है। उसने पूछा कि वह किस तरह किसी भी प्रकार की कठिनाई का सामना करते हैं। परम पावन ने उत्तर दिया कि वस्तुओं को सत्वों के अनुभव के व्यापक संदर्भ में देखना सहायक है। अनुभव को और आगे बढ़ाने का एक और ढंग के रूप में उन्होंने युवा जापानियों को अंग्रेजी सीखने और विदेशों में स्वयंसेवक बनने के लिए प्रोत्साहित किया।

उन्होंने एक व्यक्ति जो यह जानना चाहता था कि वह किस प्रकार अपनी माँ की सहायता कर सकता था जो ल्यूकेमिया से ग्रस्त थी, को पुनः हँसने के लिए कहा और कहा कि वे उसे तिब्बती औषधि देंगे, जो सहायक होगी और वे उसके लिए प्रार्थना करेंगे। एक महिला जो प्रतिदिन ज़ाज़ेन का अभ्यास करती है, ने पूछा कि क्या ऐसा करना बौद्ध धर्म के प्रसार में प्रभावी होगा, परम पावन ने कहा कि उनकी मंशा बौद्ध धर्म का प्रसार नहीं है। वे सामान्य ज्ञान, हमारे साझे अनुभव और वैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के बारे में लोगों को जागरूक करने में अधिक रुचि रखते हैं।

एक व्यक्ति जिसका कार्य उनके आत्मविश्वास को बनाना और पुनः लाना है, ने परोपकारिता और आत्मसम्मान के बीच की कड़ी के बारे में पूछा। परम पावन ने कहा कि यदि आप केवल अपनी स्वयं की समस्याओं पर सोचते रहेंगे तो आप बोझिल हो जाएँगे। आपको और अधिक व्यापक स्तर पर सोचना होगा। उन्होंने टिप्पणी की कि स्वयंसेवकों के रूप में विदेश यात्रा कर रहे जापानी, जापान के विकास की सराहना करने के लिए एक बेहतर स्थिति में हैं।

विश्व के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण समस्या के विषय में पूछे जाने पर परम पावन ने गत दिसंबर में रोम में नोबेल शांति पुरस्कार विजेताओं की घोषणा का उल्लेख किया कि परमाणु शस्त्रों के उन्मूलन के लिए एक समय सारिणी निर्धारित कर उसका पालन किया जाना चाहिए। उन्होंने स्मरण किया कि दो परमाणु विस्फोट के शिकार के रूप में जापान इस प्रकार के आंदोलन में अग्रणी है और उनसे इसे बनाए रखने के लिए आग्रह किया।

एक महिला ने पूछा कि वह अपनी एक मित्र की किस प्रकार सहायता कर सकती है जो कैंसर से पीड़ित है और जिसके पास मात्र एक वर्ष का जीवन शेष है। परम पावन ने उत्तर दिया कि यदि वह एक बौद्ध है तो उसके मित्र उसे बोधिचित्तोत्पाद के साथ, प्रेम और करुणा की भावना विकसित करने के लिए उसे प्रोत्साहित कर सकते हैं। उन्होंने उसे शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार' से एक श्लोक का परिचय कराने की भी सिफारिश की ः

क्यों उसको लेकर दुखी हों
जिसका प्रतिकार हो सकता है?
और कुछ को लेकर दुखी होने का क्या लाभ
यदि उसका प्रतिकार नहीं हो सकता?

एक अन्य महिला जिसने कहा कि वर्तमान सूचना अधिभार किस प्रकार थका देने वाला था, को चित्त की गतिविधियों के विषय में सीखने का सुझाव दिया गया। इसी प्रकार एक महिला, जिसने कहा कि वह एक कलाकार के रूप में कार्य कर रही थी, ने दिन प्रतिदिन खुश रहने के लिए सलाह माँगी। परम पावन ने सुझाया कि यदि 'बोधिसत्वचर्यावतार' जापानी में उपलब्ध हो तो उसे विशेष कर ६वें और ८वें अध्याय पर ध्यान देकर पढ़ना चाहिए जो धैर्य और ध्यान से संबंधित है। फिर, यद्यपि यह कठिन है पर उन्होंने उसे ९वें अध्याय को भी समझने की सलाह दी, जो प्रज्ञा से संबंधित है। उन्होंने कहा:


"आप युवा हैं, आप अध्ययन के लिए समय निकाल सकते हैं। ऐसा दृढ़ता से करें और उसका प्रभाव पड़ेगा। और जहाँ तक आपकी चित्रकला और चित्रकारी का प्रश्न है, मुझे एक जापानी व्यक्ति का स्मरण है जो मुझे अपनी तिब्बत यात्रा के पश्चात मिलने आया और उसने मुझे बताया कि उन रौद्र प्रतिमाओं को देख कर वह कितना भयभीत हो गया था। शांतिपूर्ण छवियाँ बनाने का प्रयास करो, ऐसी छवियाँ जो शांति की भावना भर दे।"

जैसे ही परम पावन दर्शकों के बीच से चलते हुए मंदिर से निकले, कई उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए और उनसे हाथ मिलाने के लिए आगे आए। जब वह अपने होटल पहुँचे तो कई समूहों के प्रतिनिधि जो दूर दराज़ स्थानों से कल के हृदय सूत्र, नागार्जुन के बोधिचित्तविवरण और भावनाक्रम के मध्य भाग के प्रवचनों में शामिल होने आए हैं, जिनमें रूसी चीनी और मंगोलियाई हैं, उनका अभिनन्दन करने हेतु वहाँ उपस्थित थे। 

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