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परम पावन दलाई लामा की धर्मशाला में विदेशी यात्रियों के साथ भेंट ३०/मार्च/२०१५

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धर्मशाला, हि. प्र., भारत - ३० मार्च २०१५ - परम पावन दलाई लामा ने आज एशिया के ५६ विभिन्न देशों, आस्ट्रेलिया, यूरोप, उत्तर और दक्षिण अमरीका और अफ्रीका के अनुमानतः ११०० लोगों के साथ भेंट की। उनमें से १०० से अधिक भारतीय थे। नीचे मुख्य मंदिर में उनके साथ बातचीत के िलए बैठने के पूर्व सबसे पहले उन्होंने राष्ट्रीयता के अनुसार समूहों में व्यवस्थित हो उनके साथ तस्वीरें खिंचवाईं।


उन्होंने कहा कि "कुछ समय पहले मैंने यह सोचा कि जब यहाँ काफी संख्या में आगंतुक आएँ, तो मैं उन लोगों के साथ मिलकर उनके साथ अपने विचारों और अनुभवों से कुछ को बाँट सकूँ। तो, आप न केवल मेरा चेहरा देखें पर यह भी सुनें कि मैं क्या सोचता हूँ।"
 
उन्होंने उल्लेख किया कि हम सब मनुष्य रूप में एक समान हैं। हम सब सुखी रहना चाहते हैं तथा एक दूसरे के प्रति स्नेह का मूल्य समझते हैं। हमारे प्रारंभिक जीवन की देखभाल और स्नेह का अनुभव ही हमें बड़े होने पर हमें दूसरों के लिए स्नेह व्यक्त करने के लिए तैयार करता है। उन्होंने इंगित किया कि आज वैज्ञानिकों ने पाया है कि निरंतर क्रोध और घृणा की भावनाएँ स्वास्थ्य के लिए बुरी हैं, जबकि स्नेह की अभिव्यक्ति हमारे लिए अच्छी होती है।

दर्शकों में विशेष रूप से भारतीयों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि तिब्बतियों ने ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीयों को गुरु के रूप में माना है, क्योंकि उन्होंने भारतीयों से ही ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने १४/१५वीं शताब्दी के एक महान तिब्बती शिक्षक को उद्धृत करते हुए कहा कि यद्यपि तिब्बत हिम भूमि है और हिम श्वेत रंग का होता है पर जब तक ज्ञान का प्रकाश भारत से नहीं आया तब तक तिब्बत अंधकार में था। परम पावन ने कहा कि उनका अपना दर्शन और मनोविज्ञान का अध्ययन नालंदा विश्वविद्यालय के पंडितों द्वारा सिखाया गया जैसा था, एक ऐसा आधार, जिस पर वह विगत ३० वर्षों से आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ संवाद करने में सक्षम रहे हैं। उन्होंने चित्त के विज्ञान और प्राचीन भारत का गहन ज्ञान, जो आज भी बहुत प्रासंगिक बना हुआ है, की ओर शिक्षित भारतीयों की रुचि की बढ़ती संख्या की सराहना की।
 
उन्होंने भारत की लम्बे समय से चली आ रही धर्मनिरपेक्षता की परम्परा, सभी आध्यात्मिक परम्पराओं के प्रति निष्पक्ष सम्मान और यहाँ तक ​​कि किसी धर्म का पालन न करने के वैयक्तिक अधिकार की भी प्रशंसा की।

"हमें आंतरिक मूल्यों और नैतिक सिद्धांतों के प्रति इस प्रकार का एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, जिसकी शिक्षा स्कूलों में दी जाए जहाँ सब उन्हें सुन सकें, न कि केवल मंदिरों, गिरजाघरों और मस्जिदों में।"

 
इसके बाद परम पावन ने धर्म के तीन पहलुओं पर चर्चा की ः सबसे प्रथम प्रेम, करुणा, सहिष्णुता और संतोष का संदेश, जो सभी धर्मों में आम रूप से है। दूसरा दार्शनिक पहलू जिस पर उन सबमें अंतर है। उन्होंने उन परम्पराओं, जो सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास करते हैं, की तुलना उनसे की जो कार्य कारण के सिद्धांतों में विश्वास रखते हैं, यह विचार कि कुशल कर्म सुख की ओर ले जाते हैं जबकि अकुशल कर्म दुख को जन्म देते हैं। उन्होंने इस बात पर मज़ाक किया कि किस तरह लोग आलस्य के कारण जो होता है उस का दोष कर्म पर डाल देते हैं, मानो भाग्य उनके नियंत्रण के बाहर है। वे भूल जाते हैं कि 'कर्म' का अर्थ कार्य होता है और वे उसके कर्ता हैं।

अंत में उन्होंने धर्म की सांस्कृतिक पहलुओं का उल्लेख किया, वे रीति रिवाज़ जो परिवर्तन के अधीन हैं। उन्होंने समान अवसर के सामान्य सिद्धांत का उदाहरण दिया, जो बुद्ध ने पुरुषों और स्रियों को दिया था पर इसके बादजूद पुरुष अभी भी प्रमुख हैं।

"इसमें परिवर्तन का समय आ गया है," उन्होंने कहा, हममें और अधिक वास्तविक समानता होनी चाहिए।" इसी प्रकार बुद्ध ने भारत की जाति व्यवस्था की अवहेलना की और कहा कि आज जातिगत भेदभाव को अंत करने का समय आ गया है। यह धार्मिक परंपरा का एक सांस्कृतिक पहलू है जिसके विरोध में आध्यात्मिक शिक्षकों को बोलना चाहिए।"

अन्त में, परम पावन ने टिप्पणी की, कि वे तिब्बती हैं जिनमें शांति, अहिंसा और करुणा जैसे मूल्य, जो सभी के लिए लाभकारी हैं, की तिब्बती संस्कृति को संरक्षित रखने को लेकर गहन चिंता है। उन्होंने तिब्बत के प्राकृतिक पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिए अपनी चिंता की भी बात की, और यह टिप्पणी की, कि ग्लेशियर के विषय में तिब्बत एक तीसरे ध्रुव की तरह है। इन स्रोतों से एशिया की प्रमुख नदियाँ प्रवाहित होती हैं जो एक अरब लोगों की पानी की आपूर्ति के लिए महत्वपूर्ण हैं।

अपनी तीन प्रतिबद्धताओं की रूपरेखा के अंत में: वास्तविक सुख के लिए आंतरिक मूल्यों को बढ़ावा देना, अंतर्धार्मिक सद्भाव को पोषित करना जिसका उदाहरण भारत प्रस्तुत करता है और तिब्बती भाषा, संस्कृति और पर्यावरण का संरक्षण, उन्होंने श्रोताओं से आग्रह कियाः

"मैंने जो कुछ भी कहा यदि उसमें कुछ रुचिकर हो, तो उस पर कुछ और अधिक सोचें तथा अपने परिवार और मित्रों के साथ चर्चा करें। धन्यवाद। परसों मैं जापान के लिए निकल रहा हूँ। फिर मिलेंगे।"

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