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प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय में विश्व शांति के लिए एक मानवीय दृष्टिकोण की व्याख्या १३/जनवरी/२०१५

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कोलकाता, पश्चिम बंगाल, भारत - १३ जनवरी २०१५- आज प्रातः परम पावन दलाई लामा के प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय आगमन पर कुलपति सुश्री अनुराधा लोहिया तथा कुलसचिव, श्री देबज्योति कोनार ने उनका स्वागत किया और विश्वविद्यालय के देरोज़ियो सभागार तक उनका मार्गरक्षण किया। पश्चिम बंगाल के शिक्षा राज्य मंत्री, श्री पार्थ चटर्जी, परम पावन तथा कुलपति के साथ मंच पर उपस्थित थे।


कुलपति ने परम पावन का शिक्षकों, छात्रों तथा श्रोताओं में से अन्य अतिथियों से परिचय करवाने से पूर्व दोनों अतिथियों को फूलों का एक गुलदस्ता, एक दुशाला तथा विश्वविद्यालय की एक खचित तस्वीर भेंट की। उन्होंने यह कहते हुए प्रारंभ किया ः

"आज हमारे बीच शांति के एक प्रतीक हैं।"

उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में २०० वर्ष पूर्व स्थापित विश्वविद्यालय के गौरवपूर्ण योगदान का स्मरण किया और उसके पूर्व छात्रों में विचारकों, स्वतंत्रता सेनानियों और नेताओं का उल्लेख किया। उन्हें सभा को संबोधित करने हेतु आमंत्रित करने से पूर्व उन्होंने परम पावन को एक असाधारण मानव के रूप में वर्णित किया और साथ ही उन्हें प्रज्ञा व करुणा का स्पष्ट साकार रूप बताया।

"बड़े भाई और बहनों, और छोटे भाइयों और बहनों", उन्होंने प्रारंभ किया, "मेरे िलए आधुनिक भारतीय शैक्षिक संस्थानों की इस प्राचीनतम संस्था में व्याख्यान देना एक सम्मान की बात है।"

उन्होंने उल्लेख िकया कि आज प्रातः जब वे विश्वविद्यालय आने के रास्ते पर थे तो उनके मन में विचार आया कि वे िवश्व शांति के िलए मानवीय दृष्टिकोण पर क्या बोलेंगे। तब अचानक उनके मन में विचार आया कि हजारों वर्ष पूर्व मनुष्यों के पास आपस में समस्याओं और संघर्षों के समाधान के विभिन्न उपाय रहे होंगे। फिर उन्होंने संभवतः चाकू और तीर से प्रारंभ करते हुए हथियारों का विकास िकया। इस प्रवृत्ति का समापन आज विनाशकारी क्षमता के हथियारों के साथ हुआ है। उनका िवकास श्रेष्ठ मस्तिष्क और उच्चतम शिक्षा वाले वैज्ञानिकों द्वारा हुआ, यद्यपि उनकी यह मंशा न रही होगी पर यह हत्या के साधन को परिष्कृत करने पर केंद्रित है।

"हमें समस्याओं के समाधान हेतु, शस्त्रों द्वारा बल प्रयोग की प्रवृत्ति को बदलना होगा। हमारे बीच मतभेदों का उत्पन्न होना निश्चित है पर हमें समाधान के ऐसे उपाय ढूँढने की आवश्यकता है जो विनाशकारी नहीं, अपितु शांतिपूर्ण हों। यहाँ तक कि एक व्यक्तिगत स्तर पर भी समय-समय पर हम दूसरों के साथ संघर्ष का सामना करते हैं पर हमें उनके समाधान का प्रयास संवाद द्वारा खोजना चाहिए। ठीक इसी तरह हमें संवाद के माध्यम से परिवार, समुदाय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर समस्याओं के समाधान के उपायों को ढूँढने की आवश्यकता है। अहिंसा का प्रयोग करते हुए हमारे पास हिंसा से बचने और शांति से संघर्ष के समाधान के एक अधिक मानवीय दृष्टिकोण को विकसित करने का अवसर है।"

वे स्मितहास्य से बोले कि जहाँ उनके व्याख्यान का केन्द्र अहिंसा की प्राचीन अवधारणा हो सकती है, पर यह आज अत्यधिक प्रासंगिक बनी हुई है और लगभग अस्सी वर्ष की आयु के किसी वयोवृद्ध व्यक्ति द्वारा, विश्वविद्यालयों में प्राचीनतम इस संस्था में बोलने का कुछ औचित्य हो सकता है।


"मैं आप में से एक हूँ।" उन्होंने जारी रखा। "मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से हम एक समान हैं। हम सब एक सुखी जीवन जीने की कामना करते हैं। इसके अतिरिक्त हम सभी को इस लक्ष्य को पूरा करने का एक समान अधिकार है। और हम सबमें ऐसा करने की क्षमता है जिसका सरल कारण यह है कि भविष्य निश्चित नहीं है उसे परिवर्तित िकया जा सकता है। इसलिए हमें इस आशा में जीना चाहिए कि हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, हम वास्तव में उन पर काबू पा सकते हैं।"

परम पावन ने समझाया कि आशा हमारे जीवन का आधार है। जब हम आशा छोड़ देते हैं तो यह हमारे जीवनों को छोटा कर सकती है और सबसे बदतर परिस्थिति में यह हमें आत्महत्या के िलए प्रेरित कर सकती है जो एक भयावह परिणाम है। उन्होंने सुझाया कि जब हम समस्याओं का सामना करते हैं तो हमें परिस्थिति को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखना चाहिए, क्योंकि सदा एक आशावादी पक्ष पाया जा सकता फिर चाहे स्थिति कितनी ही नैराश्यपूर्ण क्यों न प्रतीत हो। उन्होंने टिप्पणी की कि यहाँ तक कि धर्म का उद्देश्य भी हमें सुख देना है, कोई भी दुखी होने के लिए धार्मिक नहीं होता।

मंच के गर्म वातावरण में परम पावन ने जो दुशाला उन्हें दिया गया था उसे अपना माथा पोंछने के लिए उठाया और श्रोताओं की ओर देखते हुए बोले ः

"औपचारिकताओं में मेरी कोई रुचि नहीं है।"

सभागार हँसी से गूँज उठा और परम पावन ने अपनी बात पुनः प्रारंभ की।

"चूँकि हम सामाजिक प्राणी हैं, अतः हमें स्नेह की आवश्यकता है। यह माँ - संतान के शर्तहीन संबंध के साथ प्रारंभ होता है। जब हमारे बीच प्रेम तथा सम्मान होता है तो वह स्वाभाविक रूप से उस संदेह को कम करता है जो हमारी चित्त की शांति का विनाश करता है। आज मनोवैज्ञानिक तथा अन्य वैज्ञानिक इस बात की पुष्टि करते हैं। उन्होंने पाया है कि निरंतर भय तथा चिंता हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को नष्ट कर देते हैं। जैसा कि कुलपति ने आपको पहले बताया, इस वृद्ध व्यक्ति ने तिब्बत में बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था, पर एक शरणार्थी बनने के बाद मुझे विगत तीस वर्षों में अधिक से अधिक वैज्ञानिकों के साथ विचार विमर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ है। इसके परिणाम स्वरूप हमने सीखा है कि यदि हम पारंपरिक मूल्यों को वैज्ञानिक निष्कर्षों के साथ जोड़ें तो यह बड़े पैमाने पर मानवता के लिए अत्यधिक लाभकारी हो सकता है।"

परम पावन ने कहा कि आज विश्व जिस नैतिक संकट का सामना कर रहा है उसके समाधान के िलए हम केवल धार्मिक परंपराओं पर निर्भर नहीं रह सकते क्योंकि यह आज जीवित सभी ७ अरब लोगों के लिए रुचिकर न होगा। इसके बजाय हमें नैतिक मूल्यों के प्रति एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो आस्था रखने वालों और गैर विश्वासियों के लिए समान रूप से रुचिकर होगा।

"उदाहरण के लिए एक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रणाली में नैतिक मूल्यों को लेकर एक धार्मिक दृष्टिकोण उपयुक्त नहीं है। इसलिए हमें आज जिसकी आवश्यकता है वह है भारत के तीन हजार से अधिक वर्ष की परंपरा के सदृश दृष्टिकोण, जो धार्मिक आस्था वाले लोगों और आस्थाहीन लोगों को बराबर के सम्मान के साथ देखता है।"


परम पावन ने उल्लेख किया कि व्यापक विश्व में अंतर्धार्मिक सद्भाव और अहिंसा दोनों, जो प्राचीन भारतीय परंपराएँ हैं, को बढ़ावा देने के उनके प्रयासों के कारण वह प्रायः स्वयं को भारत के दूत के रूप में संदर्भित करते हैं।

"आज विश्व धार्मिक असहिष्णुता के कारण नष्ट हो रहा है, और यहाँ तक कि एक ही धर्म के लोग, जैसे शिया और सुन्नी मुसलमान अथवा एक सम्प्रदाय के ईसाई दूसरे सम्प्रदाय पर धर्म के नाम पर आक्रमण कर रहे हैं। ऐसे समय में धार्मिक सह-अस्तित्व की भारत की जीवंत परम्परा बाकी विश्व के िलए एक प्रकाश स्तम्भ हो सकती है। प्राचीन नालंदा परंपरा के एक छात्र के रूप में, मैं काफी सक्रिय रूप से इस संदेश के प्रसार में लगा हूँ। पर क्या आप भारतीयों के िलए भी अपनी प्राचीन परम्पराओं को बढ़ावा देने का समय नहीं आ गया?"

उन्होंने ८वीं ईस्वी शताब्दी के महान विहाराध्यक्ष शांतरक्षित तथा १०वीं और ११वीं शताब्दी के अतीश दीपंकर श्रीज्ञान, जो बंगाली थे जिन्होंने तिब्बत आने के िलए तिब्बती राजा का आमंत्रण स्वीकार किया था, का संदर्भ दिया। परम पावन ने मानवता के व्यापक हित के लिए काम करने हेतु इन प्राचीन आचार्यों का अनुकरण करने के लिए आज के बंगालियों से आग्रह िकया। उन्होंने एक अधिक शांतिपूर्ण विश्व के निर्माण में अहिंसा, धार्मिक बहुलवाद और धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के पारंपरिक भारतीय मूल्यों की भूमिका के विषय में जागरूकता बढ़ाने के लिए कार्यक्रम आयोजित करने का सुझाव दिया। इसकी ताली करुणा का विकास है जो हम सब को अपने जीवन के आरंभ में अपनी माँ द्वारा प्राप्त हुआ है।

परम पावन ने विनाशकारी भावनाओं को कम करते हुए रचनात्मक भावनाओं के विकास के महत्व पर विस्तार पूर्वक बताया। सकारात्मक भावनाएँ अच्छे स्वास्थ्य के लिए अनुकूल हैं जबकि नकारात्मक भावनाएँ उसे दुर्बल करती हैं।

"मुझे कभी कभी लगता है कि मेरा शरीर मुझसे कह रहा है, 'क्योंकि तुम्हारा चित्त शांत है, तो मैं अधिक समय तक जीवित रह सकता हूँ।' यदि मैं क्रोध, ईर्ष्या और नफरत से भरा हुआ होता तो मेरा शरीर शिकायत करता, 'मैं तुम्हारे भावनात्मक उतार चढ़ाव के कारण तुम्हें वहन नहीं कर सकता।' परन्तु दुर्भाग्यवश, जहाँ तक मेरे घुटनों का प्रश्न है, उसका करुणा के चित्त से कोई सम्पर्क नहीं जान पड़ता। शायद मुझे वैज्ञानिकों से इस तरह के सम्पर्क को ढूँढने के िलए कहना चाहिए।"

एक बार फिर हँसी ने सभागार को भर दिया। परम पावन ने दोहराया िक चित्त की शांति अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी है। और चित्त की शांति की कुंजी आवश्यक रूप से धर्म नहीं, अपितु धर्मनिरपेक्ष नैतिकता है। उन्होंने श्रोताओं को बताया कि वे अगले महीने संयुक्त राज्य अमरीका में धर्मनिरपेक्ष स्कूल प्रणाली में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता लाने के िलए मसौदा पाठ्यक्रम को अंतिम रूप देने हेतु वैज्ञानिकों के साथ बैठक के लिए उत्सुक हैं।

जब एक सदस्य ने प्रश्न किया कि क्या विश्व शांति सभी मनुष्यों द्वारा एक ही समय में प्राप्त की जा सकती है, परम पावन का उत्तर था ः

"एक ही समय - असंभव।"

उन्होंने हाल ही के रोम में हुए नोबेल शांति पुरस्कार विजेताओं का शिखर सम्मेलन, जिसमें वे सम्मिलित थे, के अंतिम बयान का उल्लेख िकया जिसमें पुरस्कार विजेताओं ने यथाशीघ्र परमाणु हथियारों के उन्मूलन के लिए एक एक लक्ष्य निर्धारित किया था। उन्होंने बल दिया कि सामूहिक विनाश का अर्थ केवल शत्रुओं का िवनाश ही नहीं, पर अनगिनत निर्दोष का भी विनाश है जिसमें बच्चे भी हैं। उन्होंने पुनः दोहराया कि शांति निर्माण का मात्र सच्चा विकल्प संवाद है। इसके िलए और महिलाओं तथा गरीबों में भेदभाव के विरोध में जनसमुदाय को सौहार्दता में शिक्षित कर भूमि तैयार की जा सकती है। परम पावन ने श्रोताओं में युवा पीढ़ी, जो २१वीं सदी के हैं, को उन समस्याओं के समाधान हेतु, जो २०वीं शताब्दी की पीढ़ी द्वारा धरोहर के रूप में दिए गए है जिनमें परम पावन ने स्वयं को, कुलपति तथा शिक्षा मंत्री को सम्मिलित किया है, दृष्टि, दृढ़ता तथा धैर्य के विकास के िलए प्रोत्साहित िकया।

कुलपति ने परम पावन को उनके व्याख्यान के िलए बहुत धन्यवाद दिया और कार्यक्रम का समापन विश्वविद्यालय के वृन्द समूह द्वारा बंगला भाषा में जिसमें बीच बीच में अंग्रेज़ी और हिन्दी थी 'हम होंगे कामयाब' के गायन से हुआ।

मध्याह्न में परम पावन ने मर्चेंट्स चेम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (एमसीसी) कोलकाता अध्याय को शिक्षा का अर्थ और उद्देश्य पर संबोधित किया। अतिथियों में पश्चिम बंगाल के शिक्षा राज्य मंत्री श्री पार्थ चटर्जी थे और सेंट जेवियर्स कॉलेज, कोलकाता के छात्र भी शामिल थे। परम पावन ने ऐसे लोगों को बनाने में जो समाज में जिम्मेदार भूमिका निभाएँगे, आधुनिक ज्ञान और समझ को पारंपरिक मूल्यों के साथ संयोजित करने में शिक्षा के महत्व पर बल दिया। उन्होंने पुनः दृष्टि, दृढ़ संकल्प और लक्ष्य को न खोने देने की आवश्यकता पर बल दिया ः

"अपने आप को आगे ले जाने के लिए और अपनी शिक्षा के लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपनी आशा बनाए रखना महत्वपूर्ण है।"

कल प्रातः परम पावन दिल्ली लौटने के लिए उड़ान भरेंगे। 

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