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बोधिपथक्रम प्रवचन - दिवस २ २१/दिसम्बर/२०१५

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टाशी ल्हुन्पो, बाइलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत - २१ दिसम्बर २०१५-  टाशी ल्हुन्पो के चारों ओर का ग्रामीण क्षेत्र आज तड़के प्रातः धुंध में डूबा था, जब परम पावन दलाई लामा ने बोधिपथक्रम पर अपना प्रवचन जारी रखा।


"इस धरती पर सभी सत्व सुख चाहते है और दुख नहीं चाहते। यह बहुत स्पष्ट है। पीड़ा से बचने की इच्छा रखते हुए वे ऐन्द्रिक अनुभवों से सुख की खोज में रहते हैं। हम मानवों में विशेष रूप से परिष्कृत मस्तिष्क का विकास हुआ है, जो हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करने के लिए सक्षम करता है। हमारे लिए ऐन्द्रिक अनुभवों की तुलना में मानसिक अनुभव अधिक प्रबल तथा प्रभावी हैं। लगभग २०० वर्ष पूर्व वैज्ञानिक विकास के फलस्वरूप अधिक तेजी से भौतिक विकास हुआ। चूँकि परिणामतः ऐन्द्रिक आनन्द और अधिक तात्कालिक प्रतीत होता है यह एक मात्रा में संतोष प्रदान करता है।
 
"एक परिणाम यह है कि आधुनिक शिक्षा अब आंतरिक मूल्यों की उपेक्षा कर भौतिक विकास पर अधिक केंद्रित है। और अधिक भौतिक विकास के साथ मेल खाती अधिक चित्त की शांति नहीं हुई है। यदि आपका चित्त शांत नहीं तो यह आपके शारीरिक स्वास्थ्य को भी बिगाड़ता है। आंतरिक मूल्यों का विकास चित्त की शांति का स्रोत है, परन्तु कोई भी एक धर्म हर किसी एक की आवश्यकता पूरी नहीं कर सकता और अनुमानतः एक अरब मनुष्यों की धर्म में कोई रुचि नहीं है। अतः समाधान एक धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की भावना का विकास है। यह दृष्टिकोण शताब्दियों से भारत में अपनाया गया है, जहाँ सुखवादी और नास्तिक संप्रदाय चारवाकों को लेकर गहन तीव्र दार्शनिक विरोध किया गया पर फिर भी उनके गुरुओं को ऋषि या सन्त के रूप में संदर्भित किया जाता था।

"मैं मानता हूँ कि यदि बुद्ध आज हमारे बीच में प्रकट होते तो वे धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की शिक्षा देते। उनकी शिक्षा में जो अनूठी बात थी, अद्वितीय थी वह उनके नैरात्म्य की शिक्षा थी, पर फिर भी ऐसे अवसर थे कि जब जो उन्होंने शिक्षा दी उसमें प्रतीत होता है कि इस प्रकार की आत्मा का अस्तित्व है। इसका कारण यह था कि जो उन्हें सुन रहे थे वह उन विशिष्ट लोगों के लिए सहायक था। इसलिए वर्तमान संदर्भ में हम कल्पना कर सकते हैं कि वे धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की शिक्षा देंगे, क्योंकि हमें आज उसकी आवश्यकता है, यह बुद्ध की शिक्षाओं से मेल खाती हैं, जो दुख पर काबू पाने और सुख को प्राप्त करने के लिए हैं।"


ज़ामर पंडित के 'बोधिपथ क्रम' के पठन को जारी रखते हुए परम पावन ने कहा कि उद्देश्य एक सार्थक जीवन जीना है। प्रेम व करुणा स्वयं के लिए और दूसरों को लाभकारी हैं, द्वेष मात्र नुकसान लाता है। शत्रुओं का गठन सुख की ओर नहीं ले जाता।

उन्होंने ल्हासा में अपने बचपन की एक कहानी सुनाई। नोर्बुलिंगा में कई बड़ी संख्या में पिंजड़े में बंदी पक्षी थे। उनमें से एक तोता उसके निकट आने वाले की उंगली पर चोंच मारता था, केवल उस भिक्षु को छोड़कर, जो परम पावन को सुलेख सिखाता था। वह उसे खिलाने के लिए बीज तथा काजू आदि लाता था और वह तोता उसे इस प्रकार चाहने लगा कि वह केवल उसके आ रहे कदमों को सुनते ही उत्साहित हो जाता। परम पावन ने कहा कि उन्हें जलन हुई। वे चाहते थे कि तोता उन्हें भी पसंद करे और एक दिन जब उसकी ओर से कोई प्रतिक्रिया न मिली तो गुस्से में उसे लकड़ी से खोंसा। और यही अंत था उसके किसी भी तरह के दोस्त बनने की संभावना का।

'विमुक्ति हस्त धारण' में त्रिरत्न में शरण लेने के बारे में सलाह को पढ़ने के दौरान परम पावन को ऑस्ट्रेलिया में एक विश्व संसद धर्म की बैठक में एक प्रकरण का स्मरण हुआ। कुछ एक दो बर्मी भिक्षुओं ने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने स्वीकार किया कि वे एक ही शिक्षक, बुद्ध का अनुपालन कर रहे थे, पर कहा कि उनके बीच अंतर बना हुआ है। परम पावन सहमत हुए, पर यह कहते हुए उन्हें निरस्त्र कर दिया कि "परन्तु धर्म का अभ्यास विनय पर आधारित होना चाहिए, जहाँ आप थेरवाद परम्परा का पालन करते हैं, हम मूलसर्वास्तिवादिन का पालन करते हैं”, क्योंकि वे नहीं जानते थे कि तिब्बती बौद्ध विनय का पालन करते हैं।

'विमुक्ति हस्त धारण' में बॉन के विषय में कठोर शब्दों के बाद, परम पावन ने स्पष्ट किया कि बॉन तिब्बत देश का अपना धर्म है, जो बौद्ध धर्म के आगमन से पूर्व वहाँ अस्तित्व में था। उन्होंने कहा कि आजकल बोनपो भिक्षु बौद्ध भिक्षुओं के जितना अध्ययन व शास्त्रार्थ करते हैं। यह परम्परा आज उस रूप में नहीं है, जो बुद्ध पूर्व के दिनों में थी।


मध्याह्न भोजनोपरांत उन्होंने कहा: "जो बौद्ध धर्म को अन्य धार्मिक परम्पराओं से अलग करती है वह प्रतीत्य समुत्पाद की शिक्षा है। जैसे चोंखापा की 'प्रतीत्यसमुत्पाद स्तुति' स्पष्ट करती है, यह एक सम्मान योग्य सिद्धांत है।"

इस पंक्ति "अन्य लोगों को इस शरण (बुद्ध, धर्म और संघ में) की ओर ले जाओ" और ग्रंथ में आए अन्य धर्मों के प्रति आलोचना के संबंध में परम पावन ने कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि किसी को ठेस न पहुँचाई जाए बल्कि अंतर्धार्मिक सद्भाव बनाए रखा जाए। त्रिरत्न में शरण लेने की मुख्य सलाह, जो कि अन्य परम्पराओं के साथ आम है, वह दूसरों की सहायता करना है।

परम पावन को अधिक महिला नेताओं की आवश्यकता के बारे में बात करने के लिए भी कहा गया।

"पहले मानव समुदायों में नेतृत्व कम था, परन्तु कृषि और संपत्ति के अधिकार के विकास के साथ इसे सुरक्षित करने की एक आवश्यकता आन पड़ी। महत्वपूर्ण कारक शारीरिक बल था अतः पुरुष नेता बन गए। तब से शिक्षा ने अधिक समानता की अनुमति दी है। परन्तु सामाजिक परम्परा कि पुरुष नेतृत्व करते हैं धार्मिक परंपरा में भी छलक गई। यद्यपि बुद्ध ने पुरुष व स्त्रियों को क्रमशः भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के रूप में प्रव्रर्जित किया, पर भिक्षुओं ने पूर्वता माँगी और सामने बैठे।

"ऐसा नहीं है कि हमें महिला नेताओं की आवश्यकता इसलिए है कि बस समानता हो, हमें महिला नेताओं की आवश्यकता है क्योंकि वे उस भूमिका में उन गुणों को लेकर आती हैं। वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि परपीड़ा को लेकर स्त्रियाँ अधिक संवेदनशील होती हैं। उनमें सहानुभूति की अधिक क्षमता है। युद्ध के नायक और कसाई अधिकतर पुरुष हैं जबकि देखभाल करने वालीं, जैसी परिचारिकाएँ, अधिकांश रूप से स्त्रियाँ हैं।

मैं मज़ाक नहीं कर रहा, जब मैं इस प्रश्न का उत्तर कि क्या भविष्य में दलाई लामा एक महिला हो सकती है सकारात्मक रूप में देता हूँ। यह बहुत संभव है। तिब्बत में पहले ही उच्च महिला अवतरण के उदाहरण हैं। चीनियों ने मेरे संभावित पुनर्जन्म के बारे में मेरी टिप्पणी की आलोचना की है। यह सच है कि अतीत में चीनी सम्राटों का कुछ लामाओं के अवतरण की मान्यता पर कुछ प्रभाव था, पर उन दिनों सम्राट बौद्ध थे।

"मैंने सुझाव दिया है कि यदि आज चीनी नेतृत्व दलाई लामा के पुनर्जन्म के साथ क्या कुछ करना चाहता है, तो उन्हें पहले माओत्से तुंग और देंग जियाओपिंग के अवतरण की पहचान करनी चाहिए।"

बोधि पथ क्रम ग्रंथ और उसकी कर्म संबंधी व्याख्या पर पुनः लौटते हुए, परम पावन ने टिप्पणी की:

"जो समझने के लिए महत्वपूर्ण है वह यह कि कार्य कारण संबंधी नियम को लेकर किसे स्वीकार किया जाए और किसे छोड़ा जाए।"

परम पावन ने थोड़ी जल्दी पढ़ना बंद कर दिया और सत्र की समाप्ति हुई, जैसा कि प्रतिदिन होता है पथ क्रम के उत्साह पूर्ण सस्वर समर्पण प्रार्थना के साथ जिसके क्रमशः उच्च होते स्वर चरम तक पहुँचते हैं और फिर नीचे लौटते हुए शांत हो जाते हैं।

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