परम पावन 14 वें दलाई लामा
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बौद्ध पवित्र दिवस पर परम पावन दलाई लामा के लिए दीर्घायु समर्पण ३/नवम्बर/२०१५

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थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - ३ नवंबर २०१५- थेगछेन छोलिंग प्रांगण तथा चुगलगखंग, पुष्पों तथा बैनरों से चमकीले रूप से सुसज्जित था जब भिक्षुओं द्वारा पारम्परिक वाद्यों की अगुवाई में आज प्रातः परम पावन दलाई लामा का आगमन हुआ।


 सदैव की तरह मुस्कुराते हुए उन्होंने ७००० लोगों की भीड़ के बीच मित्रों का अभिनन्दन किया, बुद्ध शाक्यमुनि की प्रतिमा के समक्ष श्रद्धा व्यक्त की तथा सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण किया। जब उन्होंने दीर्घायु अभिषेक जो वे देने वाले थे, के लिए प्रारंभिक अुनष्ठान प्रारंभ किया तो सभा ने नालंदा के सत्रह महापंडितों की प्रार्थना, अवलोकितेश्वर के अवतरित रूपों की प्रार्थना और तारा मंत्र का पाठ किया।

"आज वह दिवस है जब हम उस अवसर को मनाते हैं जब बुद्ध अपनी माँ, जिन्होंने देव लोक में जन्म लिया था, को वर्षावास में प्रवचन देने के पश्चात त्रयस्त्रिंशत स्वर्ग से अवतिरत हुए थे।" परम पावन ने प्रारंभ किया। "यह पालि परंपरा के अनुयायियों द्वारा भी मनाया जाने वाला उत्सव है। दीर्घायु समर्पण प्रमुख रूप से बरखम रोंगपो, बरखम छोगशो, ठिनदो और खमपा के केंद्रीय कार्यकारी समिति के लोगों द्वारा आयोजित किया गया है। चूँकि यह एक शुभ दिन है, मैंने सोचा कि आपके लिए पारस्परिक भेंट के रूप में मैं एक दीर्घायु अभिषेक से प्रारंभ करूँगा। यहाँ प्रयोजकों के समूह में धर्मशाला के निवासी, हिमालय क्षेत्रों के आस पास के लोग और अन्य लोग हैं जो पारंपरिक रूप से ईसाई देशों से आते हैं।

"अतिथियों में अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के सदस्य हैं जिनके साथ आगामी दो एक दिनों में मैं विचार-विमर्श करने वाला हूँ। संभवतः उन्होंने इस तरह का एक अनुष्ठान पहली बार देखा है।"

परम पावन ने समझाया कि तिब्बत में बौद्ध धर्म की जो परम्परा प्रचलित है उसमें विनय, विहारीय अनुशासन, ध्यान और भेदक की अंतर्दृष्टि का अभ्यास शामिल है। इनमें सभी बौद्ध परंपराओं में मान्य प्रबुद्धता के ३७ कारक शामिल हैं। संस्कृत परंपरा से यह आंतरिक अस्तित्व की शून्यता की समझ के विकास, परोपकार के लिए बोधिचित्तोत्पाद और छह पारमिताओं के लिए निर्देश तथा अभ्यास को संरक्षित करता है। उन्होंने कहा कि आधारभूत रूप से यह दूसरों की सहायता करने से संबधित है।


उन्होंने आगे समझाते हुए कहा कि आम शिक्षाओं के अतिरिक्त चित्त की सूक्ष्मता को लेकर विभिन्न स्तरों की असामान्य व्याख्याएँ हैं। उदाहरणार्थ, जाग्रत अवस्था जो कि ऐन्द्रिक जानकारी के आधार पर एक अपेक्षाकृत स्थूल चित्त है, स्वप्नावस्था में चित्त सूक्ष्मतर होता है, गहरी नींद में यह और अधिक सूक्ष्म होता है और बेहोशी की अवस्था में बहुत सूक्ष्म होता है। सूक्ष्मतम चित्त मृत्यु के समय में प्रकट होता है। उन्होंने उल्लेख किया कि कुछ बौद्ध अभ्यासी मृत्यु के समय चित्त की सूक्षमतम अवस्था पर ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि उनके अवशोषण के दौरान उनके शरीर का क्षय नहीं होता। सम्प्रति वैज्ञानिक इस घटना की जाँच कर रहे हैं।

हाल ही में नासिक में अपने मित्र एक हिन्दू स्वामी, जो बौद्ध दर्शन में रुचि रखते हैं, के साथ हुई बातचीत के बारे में जानकारी देते हुए परम पावन ने कहा कि वे इस बात पर सहमति रखते थे कि वे लोग जो अपने विगत जीवन का स्मरण करते हैं, वे उनके अस्तित्व का एक प्रबल संकेत देते है।

"हम ऐसे अभ्यास करते हैं जो सूक्ष्म चित्त को प्रकट करने देते हैं ताकि हम उसे अपने आध्यात्मिक पथ में काम में ला सकें।" परम पावन स्पष्ट किया। "यह तिब्बतियों द्वारा गढ़ा हुआ कुछ नहीं है; यह हमने भारत के आचार्यों से सीखा जिन्होंने हमें शिक्षा दी।"

उन्होंने उल्लेख किया कि सभी देशों के बौद्ध जो संस्कृत परम्परा का पालन करते हैं, वे 'हृदय सूत्र' का पाठ करने के आदी हैं जो कि प्रज्ञा- पारमिता शिक्षाओं का लघु रूप है। परन्तु तिब्बती परम्परा न केवल प्रज्ञा- पारमिता सूत्रों के कई दीर्घ रूपों को, पर साथ ही उन पर नागार्जुन और उनके शिष्यों की स्पष्ट व्याख्याएँ भी संरक्षित किए हुए है। उन्होंने कहा कि इसके लिए तिब्बती, बोधिसत्व उपाध्याय शांतरक्षित के कृतज्ञ हैं। उन्होंने ही तिब्बत में व्याख्या तथा भाष्य की नालंदा परम्परा की स्थापना की थी। उन्होंने तिब्बतियों को भारतीय बौद्ध साहित्य को भोट भाषा में अनुवाद करने हेतु प्रोत्साहित किया ताकि वे ग्रंथों का अध्ययन अपनी स्वयं की भाषा में कर सकें। उन्होंने अध्ययन के कड़े रूप का भी प्रारंभ किया जिसका जन्म नालंदा में हुआ था। इसका परिणाम यह है कि तिब्बती बौद्ध शिक्षाओं के सबसे व्यापक परंपरा के संरक्षक हैं।


बुद्ध को एक चिकित्सक के समान मानते हुए जो रोगी के रोग की पहचान करता है और उसका निदान बताता है, परम पावन ने कहा कि बुद्ध की सलाह का सार यह है कि, यह सुनिश्चित करना कि अन्य सुखी हैं, स्वयं को सुखी करने का मार्ग है।

"हमें अज्ञानता पर काबू पाने की आवश्यकता है। बुद्ध ने स्पष्ट रूप से सलाह दी 'अच्छी तरह से अपने मन को वश में करो।' हम अनुपयुक्त रूप से सोचते हैं, हम भ्रांति के अधीन हो जाते हैं जिसके मूल में अज्ञान है। वस्तुएँ जिस रूप में प्रतीत होती हैं हम उसी को लेकर चिपके रहते हैं। अर्थात हम उन्हें एक स्वतंत्र अस्तित्व लिए हुए के रूप में देखते हैं।"

परम पावन ने उनके मित्र अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक का हमारे क्लेशों के संबंध में मानसिक प्रक्षेपण की शक्ति के बारे में जो कथन है उसका संदर्भ दिया। वह बल देते हुए कहते हैं कि जब हम किसी पर क्रोधित होते हैं और उन्हें सम्पूर्ण रूप से नकारात्मक देखते हैं, तो उस धारणा का ९०% मानसिक प्रक्षेपण है।

"वस्तुओं की यथार्थता को आप जितना अधिक समझेंगे आप उनके स्वतंत्र अस्तित्व से विषय में उतनी कम ग्राह्यता रखेंगे। दूसरी ओर जब तक आप यह नहीं समझेंगे कि आप किस प्रकार स्वतंत्र अस्तित्व के प्रति ग्राह्यता की भावना रखते हैं तब तक आप आध्यात्मिक पथ पर बहुत कम प्रगति कर पाएँगे। अतः बुद्ध के शब्द 'अपने चित्त को भली तरह वश में कर लो' का अर्थ अज्ञान से जूझना है। और उस दिशा में पहला कदम जागरूकता और नैतिकता का विकास है।"


परम पावन ने सुझाया कि अतीत में तिब्बत में अधिकांश लोग मात्र श्रद्धा से परिचालित होते थे। अब जबकि सामान्य रूप में शिक्षा में सुधार हुआ है, तो लोगों के लिए बुद्ध की शिक्षाओं के अद्वितीय गुणों को समझना महत्वपूर्ण है। उन्होंने उस सलाह का सुझाव दिया जब लोग 'अभिसमयालंकार' का अध्ययन करते हैं। "विषय सामग्री का परीक्षण करो और पूछो कि उसका उद्देश्य क्या है। उसका अस्थायी उद्देश्य क्या है? परम उद्देश्य क्या है? और ये दोनों एक दूसरे से कैसे संबंधित हैं?" इस संदर्भ में बुद्ध की सलाह पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि उनकी शिक्षाओं का परीक्षण उस तरह से किया जाए जिस प्रकार एक सुनार सोने का परीक्षण करता है। उनका परीक्षण करो, उनकी जांच करो और उनके साथ प्रयोग करो।

"इसी आधार पर मैं वैज्ञानिकों के साथ बातचीत करने में सक्षम हो सका हूँ", परम पावन ने कहा। "यह तर्क के साथ स्पष्टीकरण देने के बारे में है। जो ज्ञान हम तिब्बतियों के पास है उसे लेकर हमें गर्व होना चाहिए। मैं दूसरों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने की बात नहीं कर रहा पर उदाहरण के लिए मनोविज्ञान के बारे में हमारी समझ कुछ ऐसी है जो सामान्य मानव कल्याण के लिए योगदान दे सकती है। यह सलाह कि हम दूसरों के हितों को पूरा करते हुए अपने हितों की देख भाल कर सकते हैं, वह सभी के लिए लाभकारी हो सकता है। यदि हम आत्मकेन्द्रितता का सामना दूसरों के प्रति चिंता रखते हुए करें और अज्ञान का सामना प्रज्ञा के साथ करें तो एक दीर्घ जीवन जीना लाभकारी तथा मूल्यवान होगा। पर जैसे गेशे पोतोवा ने टिप्पणी की, कि यदि आप केवल हानि पहुँचाते हैं तो यह बेहतर होगा यदि आपका जीवन लघु हो।"

इसके पश्चात परम पावन ने श्वेत तारा का दीर्घायु समर्पण दिया जिस दौरान उन्होंने सभा का बोधिचित्तोत्पाद में नेतृत्व किया। एक बार उसकी समाप्ति हुई तो नमज्ञल विहार के उपाध्याय ने परम पावन के लिए दीर्घायु समर्पण का नेतृत्व किया और वह भी श्वेत तारा पर आधारित था। चार प्रायोजित समूहों के सदस्य, पुरुष और महिलाएँ, युवा व वृद्ध जो कि प्रसन्न दिखाई दे रहे थे भेंट लेकर मंदिर से होते हुए जा रहे थे।


मंदिर में कार्यक्रम के पश्चात, एक दूसरा कार्यक्रम नीचे प्रांगण में हुआ। सबसे पहले बरखम छोगशा के लोगों के एक प्रतिनिधि ने घोषणा की कि वे परम पावन को कृतज्ञता का एक प्रतीक प्रस्तुत करना चाहते हैं। छोगशा शबडुंग रिनपोछे ने परम पावन के जीवन के गुणों का गुणगान करते हुआ एक प्रशस्ति पत्र पढ़ा। उन्होंने उल्लेख किया कि हिम प्रदेश के जीवन में अवलोकितेश्वर का विशिष्ट स्थान है, पञ्चम दलाई लामा ने तिब्बत पर और आमदो में परम पावन के जन्म पर लौकिक और आध्यात्मिक अधिकार संभाला था।

प्रशस्ति पत्र में शुगदेन की तुष्टि की कमियों के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए और जे चोंखापा की शिक्षाओं की विशुद्ध परम्परा को स्पष्ट करने के लिए भी परम पावन का आभार व्यक्त किया गया था। अपने समुदाय की प्रतिज्ञा अभिव्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि वे सभी तिब्बत लौटने और परम पावन के प्रवचनों को अपनी मातृभूमि में सुनने में सक्षम होने की प्रार्थना करते हैं। तिब्बत, दीर्घायु के बुद्ध, अमितायुस और पञ्चम दलाई लामा का बरखम के लोगों के साथ संबंध की छवि लिए एक स्वर्ण पदक परम पावन को भेंट किया गया।

बरखम रोंगपो के लोगों ने अपनी ओर से परम पावन को एक स्वर्णिम धर्म चक्र प्रस्तुत किया। उन्होंने भी स्वेच्छा से दोलज्ञल की तुष्टि न करने का वचन लिया और उल्लेख किया कि वे भी तिब्बत में अपने देश के वासियों को उनके उदाहरण का अनुसरण करने के लिए तैयार करने का प्रयास कर रहे हैं।


उसके बाद छोगशा से एक समूह ने एक पारम्परिक नृत्य और गीत का प्रदर्शन किया जो था कि 'लामा त्रिकाल बुद्ध का साकार हैं।'

अपने उत्तर में परम पावन ने पुष्टि की कि १९५९ के पूर्व और निर्वासन में भी उनके तथा इन लोगों के बीच के आध्यात्मिक बंधन प्रबल व स्थिर थे।

"यही महत्वपूर्ण है," उन्होंने कहा। "कुमबुम के पास के एक गांव के एक छोटे लड़के का तिब्बत का नेता बन जाना, हम सब के बीच एक मजबूत कार्मिक संबंध रहा होगा।"

"आपने दोलज्ञल का उल्लेख किया और किस तरह आपके सह देशवासियों में से अभी भी कुछ उसका अभ्यास कर रहे हैं, पर उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इस दलाई लामा ने एक समय ऐसा किया था। मैंने १९५० में डोमो मे इसे प्रारंभ किया और १९७० तक मैंने उसे बनाए रखा। ऐसी मान्यता थी कि गेलुग रक्षक के रूप में उसकी एक भूमिका थी। कुछ लामाओं ने इसे अपनाया, कुछ अन्यों ने नहीं।
 
"इन दिनों शुगदेन लोग मेरा विरोध करते हैं। वे मुझे एक झूठा दलाई लामा कहते हैं। वे कहते हैं कि मैं एक मुसलमान हूँ और तिब्बतियों को मेरा समर्थन नहीं करना चाहिए। जिन्होंने लोगों को मेरे विरुद्ध उकसाया होगा उन्होंने वह मेरे विरुद्ध एक व्यक्तिगत दुर्भावना से किया होगा। वह जो भी हो मैं तिब्बतियों को सलाह देता हूँ कि वे उनके प्रति क्रोध न रखें। अपनी ओर से मैं प्रतिदिन बोधिचित्त के विकास और शून्यता की समझ को विकसित करने का अभ्यास करता हूँ ताकि मुझमें उनके प्रति भी क्रोध की भावना न हो।


"अपने दोलज्ञल की तुष्टि के प्रारंभ से ही मैं भी उलझन में था। इसलिए मैंने इसके लगभग ४०० वर्ष के इतिहास पर शोध किया। मैंने विभिन्न प्रकार से जाँच की। मैंने अज्ञान के कारण इसका अभ्यास किया था। एक बार जब मैंने इसकी वास्तविकता जानी तो मैंने इसे बंद करने का निश्चय किया। पर मैंने इस उत्तरदायित्व को भी अनुभव किया कि जो मैंने पाया उसे सबके समक्ष रखूँ। जो मैं कहना चाहता हूँ उस पर कोई ध्यान दे अथवा नहीं यह उन पर निर्भर है।"

परम पावन ने १६ वर्ष की आयु से जब उन्होंने तिब्बत का उत्तरदायित्व संभाला था, का संक्षेप में सर्वेक्षण किया। महत्वपूर्ण घटनाओं पर संकेत करते हुए जिसका अंत १९५९ में भारत में शरण लेने से हुआ, उन्होंने समाप्त करते हुए कहा कि अब २१वीं सदी में विश्व परिवर्तित हो गया है और ऐसे समाधान की आवश्यकता है जो तिब्बत तथा चीनी लोगों के लिए पारस्परिक रूप से लाभदायी हो।

"हममें से १९५९ में जो निर्वासन में आए थे उनकी संख्या और कम होती जा रही है, पर फिर भी युवा जो हमारे बाद आए वे एक सशक्त भावना बनाए हुए हैं। हमें यही करने की आवश्यकता है। टाशी देलेग।"

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