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वार्षिक जंग गुनछो शास्त्रार्थ के सत्र में भाग ले रही भिक्षुणियों ने मुख्य तिब्बती मंदिर के प्रांगण में परम पावन दलाई लामा के समक्ष प्रस्तुति रखी ३१/अक्तूबर/२०१५

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धर्मशाला, हि. प्र., भारत, ३१ अक्टूबर २०१५ - नौ भिक्षुणी विहारों से वार्षिक जंग गुनछो शास्त्रार्थ के सत्र में भाग ले रही भिक्षुणियाँ आज थेगछेन छोलिंग मंदिर के प्रांगण में परम पावन दलाई लामा के समक्ष शास्त्रार्थ की प्रस्तुति के लिए एकत्रित हुई थीं। लगभग ३५ भिक्षुणियाँ, इन निम्नलिखित भिक्षुणी विहारों से आई थीं: गदेन छोलिंग, डोलमा लिंग, जंगछुब छोलिंग, जमयंग छोलिंग और भारत में स्पीति भिक्षुणी का संस्थान, और साथ ही नेपाल के कोपन भिक्षुणी विहार और थुकजे छोलिंग। इस वर्ष जंग गुनछो शास्त्रार्थ की मेजबानी धर्मशाला के सबसे पुराने भिक्षुणी विहार गदेन छोलिंग द्वारा की जा रही है।


भिक्षुणियों के लिए अपने प्रारंभिक संबोधन में परम पावन ने सराहना भाव से इस तथ्य का संदर्भ दिया कि अब ऐसी भिक्षुणियाँ हैं जिन्होंने अपना बौद्ध दर्शन का अध्ययन लगभग समाप्त कर लिया है और गेशेमा की उपाधि के लिए आगामी वर्ष अपनी अंतिम परीक्षा देने वाली हैं।

उन्होंने उल्लेख किया कि तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रसार पूरे देश में हुआ पर अधिकांश लोगों ने अंध विश्वास से आधार पर जो प्रचलित हो गया था मात्र उसका पालन किया।

"यह २१वीं सदी है और हमें बुद्ध की शिक्षाओं को तर्क के प्रकाश में समझने की आवश्यकता है। जब हम शिक्षा देते हैं तो हमें कारण के आधार पर ऐसा करने की आवश्यकता है। मैं पालि परंपरा के अनुयायी, थाईलैंड से भिक्षुओं से मिला हूँ जो अपने विनय के पालन में पूरी तरह निष्ठावान हैं। मैंने उनसे पूछा कि वे चार आर्य सत्यों को कारण के आधार पर व्याख्यायित करते हैं अथवा शास्त्र के अधिकार पर। उन्होंने उत्तर दिया कि वे शास्त्र के अधिकार पर निर्भर रहते हैं।

"सभी बौद्ध परम्पराएँ कुछ हद तक नैरात्म्य की शिक्षा देती हैं। उदाहरण के लिए इसे अभिधर्म में समझाया गया है पर यह व्याख्या बहुत सटीक नहीं है। दूसरी ओर, नागार्जुन का अनुपालन करने वाले माध्यमक ग्रंथों में जो व्याख्या पाई जाती है वह अत्यंत सटीक व स्पष्ट है। भारत में धर्मकीर्ति और शांतरक्षित जैसे बौद्ध विद्वानों को बौद्धेतर विद्वानों की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। परिणाम यह हुआ कि उनका ज्ञान गहरा और समृद्ध हुआ।

"सम्प्रति, तर्क और कारण के साथ बुद्ध की शिक्षाओं तक पहुँचने की नालंदा परम्परा मात्र तिब्बतियों के बीच पाई जाती है। यह कुछ ऐसा बहुमूल्य है जिस पर हम गर्व कर सकते हैं और हमें इसके संरक्षण का प्रयास करना चाहिए।"
 
परम पावन ने आगे कहा कि वैज्ञानिकों के साथ अपने ३० वर्षों के संवाद के दौरान, वैज्ञानिक बौद्ध धर्म के तार्किक दृष्टिकोण और इसके मनोविज्ञान की समृद्ध समझ की सराहना करने लगे हैं। उन्होंने कहा कि इसे खोजने के लिए तिब्बतियों को चीनी, हिन्दी या अंग्रेजी सीखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे कांग्यूर और तेंग्यूर में उनके लिए उपलब्ध है जिनका पहले से ही भोट भाषा में अनुवाद हो चुका है।

उन्होंने विहारों को प्रोत्साहित करने की बात कही, जैसे नमज्ञल, जो इसके पूर्व दर्शन का अध्ययन करने के लिए अधिकांश रूप से अनुष्ठान पर अधिक ध्यान देते थे। उन्होंने इसी प्रकार भिक्षुणियों से अध्ययन करने का आग्रह किया और एक अनुकूल प्रारंभ के रूप में अभिसमयालंकार की शिक्षा देने का स्मरण किया। पुनः यह टिप्पणी करते हुए कि ऐसी भिक्षुणियाँ हैं जो गेशेमा बनने के लिए तैयार हैं, उन्होंने उन्हें बधाई दी।


तत्पश्चात प्रत्येक भिक्षुणी विहार में से एक, सात भिक्षुणियों के समूह ने शास्त्रार्थ प्रस्तुति प्रारंभ की। एक दल ने खड़े हो पूरी ऊर्जा से दूसरे समूह को चुनौती दी जिन्होंने बैठ कर उत्तर दिया। उन्होंने पूर्व और आगामी जन्म के अस्तित्व और किस तरह प्रभाव कारण के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं, जैसे विषयों पर चर्चा की।

इसके बाद एक संक्षिप्त प्रवचन में परम पावन ने मार्गत्रय प्रकाश की पुष्पिका में जो नालंदा के सत्रह महापंडितों की प्रार्थना में लिखी थी, का पहले उदाहरण दिया।

"वर्तमान समय में, साधारण विश्व में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई है। परन्तु चूँकि हम अपने व्यस्त जीवन की हलचल से विचलित हो जाते हैं, अतः हममें से जो बुद्ध का पालन करते हैं उनके लिए यह अत्यावश्यक है कि हममें उनकी शिक्षाओं की समझ के आधार पर श्रद्धा होनी चाहिए। अतः हमें उसका एक निष्पक्ष और जिज्ञासु मन के साथ परीक्षण करना चाहिए तथा सूक्ष्म रूप से विश्लेषण करना चाहिए।"

उन्होंने समझाया कि किस प्रकार इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने पारम्परिक रूप से षड़ालंकार और परम द्वय का जो संदर्भ दिया जाता है, उसमें नौ नालंदा आचार्यों को सम्मिलित किया था। उनमें से प्रत्येक ने ग्रंथों की रचना की थी जो अन्य लोगों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उन्होंने कहा कि जो बात नालंदा आचार्यों को अलग करती है वह यह, कि उन्होंने न केवल कारण और तर्क का प्रयोग किया, पर उन्होंने जो सीखा उसे अपने स्वयं के चित्त को समझने के लिए व्यवहृत किया। उसके पश्चात उन्होंने नागार्जुन से लेकर अतीश तक के आचार्यों की स्तुति के पद पढ़े और साथ ही टिप्पणियाँ भी जोड़ीं। उन्होंने शांतरक्षित के प्रति विशेष सराहना व्यक्त की जिन्होंने तिब्बत में नालंदा परम्परा की स्थापना की थी।

अंत में, परम पावन ने उपस्थित लोगों से अपने समक्ष नालंदा के आचार्यों तथा अन्य लोगों से घिरे हुए बुद्ध की कल्पना करने के लिए कहा। उसके बाद उन्होंने शरण गमन के लिए त्रिरत्न के चार पंक्तियों वाले पद पर आधारित बोधिचित्तोत्पाद के एक संक्षिप्त समारोह का नेतृत्व किया। उन्होंने यह कहते हुए समाप्त किया:

"चूँकि हममें बुद्ध प्रकृति है, हम अपने अंदर धर्म रत्न को प्राप्त कर सकते हैं और संघ रत्न बन सकते हैं। और यदि हम दूसरों की सहायता कर सकते हैं तो हमें ऐसा करना चाहिए।"

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