परम पावन 14 वें दलाई लामा
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सेरा लाची में दीर्घायु समर्पण और टाशी ल्हुन्पो में आगमन १८/दिसम्बर/२०१५

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बाइलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत - १८ दिसम्बर २०१५- आज भोर होते ही लंबे सींगों वाले वाद्य की गूँज ने सेरा महाविहार, बाइलाकुप्पे में परम पावन दलाई लामा के प्रवास के अंतिम कार्यक्रम का आह्वान किया, दीर्घायु समर्पण। इसका आयोजन सूत्रयान प्रार्थनाओं, सोलह अर्हतों की प्रार्थना, अमितायुस की दीर्घायु प्रार्थना तथा समन्तभद्र के समर्पण प्रार्थना के अनुसार हुआ।



जब प्रार्थनाएँ समाप्त हुईं तो परम पावन ने घोषणा की कि सेरा मे और सेरा जे महाविहारों के उपाध्यायों ने उनसे एक प्रवचन का अनुरोध किया था जिसके लिए वे सहमत हुए थे।

"हम अपने इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं," उन्होंने कहा। "परन्तु तिब्बत में लोगों की भावना और साहस अटूट है। पहले निर्वासन में आए भिक्षुओं में से अधिकांश प्रारंभ में मिसामारी में रुके थे। उनमें से कुछ चंबा में सड़क निर्माण के लिए गए जहाँ उन्हें साधारण वस्त्र पहनने थे। अंततः हम यहाँ नीचे आवासों का निर्माण करने आए, जिसका अर्थ वृक्षों को काटना और जलाना और भूमि को साफ करना था। जब एक बार आवास स्थापित हो गए तो बक्सा और अन्य स्थानों से भिक्षुओं को भी यहाँ लाया गया। जब तक वे यहाँ पहुँचे तो उनमें से कइयों ने बहुत कठिनाई का सामना किया था।

"आज मैं टाशी ल्हुन्पो जा रहा हूँ जहाँ मैं उनके नूतन प्रार्थना सभागार का उद्घाटन करूँगा और पथ क्रम के संकलित ग्रंथों का संचरण समाप्त करूँगा, जिसका प्रारंभ मैंने दो वर्ष पूर्व किया था। अपने आध्यात्मिक बंधन को बनाए रखना महत्वपूर्ण है। हम इसे किस तरह करें? अध्ययन और शिक्षाओं को व्यवहार में ला कर। उन्हें संरक्षित करने का यह एक ही मार्ग है। हम तीन पिटकों का अध्ययन करते हैं तथा तीन प्रशिक्षणों में लगते हैं, जब हम अपनी प्रार्थना में कहते हैं, 'धर्म पनपे', तो हमारा मंतव्य होना चाहिए 'यह मुझमें पनपे।'


"अब तक हमने भली भांति धर्म का संरक्षण किया है पर हमें उन दोषों के प्रति सतर्क होने की आवश्यकता है जो अनायास ही समा जाती हैं। मैं गदेन ठि रिनपोछे सहित वरिष्ठ लामाओं और अधिकारियों से कहना चाहूँगा कि साथ मिलकर चर्चा करें कि हमें क्या सुधार लाने की आवश्यकता है।

"अब मैं 'सुलक्ष्य अवदान' का पाठ करूँगा जिसमें जे चोंखापा ने वर्णित किया है कि उन्होंने किस तरह अध्ययन, अभ्यास और परिणामना की। इसमें ग्रंथ को कंठस्थ करना, शब्दशः व्याख्या प्राप्त करना और शास्त्रार्थ के प्रांगण में जो उन्होंने समझा उसका अभ्यास शामिल था। नालंदा के आचार्यों और छात्रों का यही व्यावहारिक रूप था। उन्होंने जितनी अधिक शिक्षा प्राप्त की उनके चित्त उतने अधिक शांत हुए। जे रिनपोछे कहते हैं कि मात्र एक स्थूल समझ को लेकर अध्ययनशील मत बनो। बोधिसत्व परसेवा हेतु मार्ग में प्रवेश करते हैं। भारत में कई अलग अलग आचार्यों की रचनाएँ थीं। तिब्बत में हमारी कई अलग अलग परम्पराएँ हैं। हमें उनसे अपने आपको परिचित करना चाहिए।

"बहुत समय पहले किन्नौर का एक बहुत अच्छा भिक्षु था जो मेरे पास एक शिक्षा का अनुरोध करते हुए आया जो मैं उसे नहीं दे सका क्योंकि मुझे वह प्राप्त नहीं हुआ था। मैंने उससे खुनु लामा रिनपोछे के पास जाने को कहा। मुझे दुःख था कि मैं उसकी इच्छा को पूरा करने में असमर्थ था। २५,००० पंक्तियों का प्रज्ञा पारमिता सूत्र कहता है कि एक बोधिसत्व को सभी शिक्षाओं से परिचित होना चाहिए ताकि वह अन्य लोगों को देने में सक्षम हो। लगभग उसी समय मैंने खुनु लामा रिनपोछे से उनकी 'बोधिचित्त स्तुति', साथ ही 'बोधिसत्वचर्यावतार' शिक्षा प्राप्त की। मैं उनसे गुह्यगर्भ भी लेना चाहता था। जैसी मेरी प्रथा थी, मैंने अपने उपाध्याय लिंग रिनपोछे से इस संबंध में पूछा और उन्होंने सुझाया कि मैं सावधान रहूँ, इस बात से आशंकित होकर कि दोलज्ञल क्या करेगा। तो यह देखते हुए कि मेरी धार्मिक स्वतंत्रता प्रतिबंधित थी, मैंने इस अवसर को खो दिया।


"इसके बाद मैंने जोवो वती संगपो की प्रतिमा के समक्ष आटे गेंद की भविष्यवाणी की, जिसने दिखाया कि मुझे शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। लिंग रिनपोछे ने कहा कि चूँकि आप दलाई लामा हैं और यहाँ तिब्बती लोगों की सेवा करने के लिए हैं तो आप जो भी करने का निर्णय लें उसे लेकर किसी को भी आलोचना नहीं करनी चाहिए। और उस समय से मैंने धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त की। दोलज्ञल की तुष्टि मात्र एक साधारण आत्मा की प्रार्थना करना है। इसमें धर्म के अभ्यास से विकर्षित होने का खतरा है।"

परम पावन ने कहा कि वे 'सुलक्ष्य अवदान ' से पाठ करने वाले हैं जो कि जे रिनपोछे के प्रशिक्षण और शिक्षा का विवरण है, जो दिखाता है कि उन्होंने अपना जीवन किस तरह चालित किया। चौथे पद में इसका उदाहरण है:

प्रारंभ में, मैंने अधिक बहुश्रुत किया।
मध्य में, सभी ग्रन्थ उपदेश रूप में प्रकट हुए।
अंत में, मैंने अर्हनिश अभ्यास किया।
मैंने इन सभी पुण्यों की धर्म विस्तार हेतु परिणामना की।
इस पर चिंतन करता हूँ तो मेरा लक्ष्य बहुत अच्छा हुआ है।
बहुत कृपा की, आर्य मंजुश्री निधि।

अंत में परम पावन ने कहा:

"अब मैं अपने ८१वें वर्ष में हूँ। हमने इन आवासों की स्थापना की है और धर्म के संरक्षण को सुरक्षित किया है, पर समय रहते गदेन ठि रिनपोछे और मेरे जैसे वरिष्ठ लोग न रहेंगे पर जब ऐसा होगा तो निर्भर होने के लिए लिंग रिनपोछे जैसे कनिष्ठ लामा होंगे।"

जब प्रार्थनाएँ और प्रवचन का समापन हुआ तो गेशे लोबसंग मोनलम सिंहासन के निकट आए और परम पावन ने उनके द्वारा बनाए गए एक नए बृहत् तिब्बती शब्दकोश का विमोचन किया। उन्होंने मुक्त भाव से प्रशंसा की:

"मैं आपको इस अभूतपूर्व परियोजना के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ। आपने आधुनिक शिक्षा के लाभ के बिना इसे प्राप्त किया है। मैं आपके प्रयास की अनुमोदन करता हूँ, यह तिब्बती भाषा के विकास को आगे बढ़ाएगा और तिब्बती लोगों को लाभान्वित करेगा।"

मध्याह्न भोजनोपरांत जब परम पावन टाशी ल्हुन्पो की लघु दूरी गाड़ी से जाने के लिए रवाना हुए तो सेरा महाविहार के मार्ग पर लोग पंक्तिबद्ध होकर उन्हें विदा देने की प्रतीक्षा कर रहे थे। नए मंदिर तक पूरे मार्ग का नव निर्माण हुआ था। आगमन पर परम पावन टाशी शोपा नर्तकों को देखने के लिए रुके, जो उनके स्वागतार्थ नाच गा रहे थे। वे धीरे धीरे रास्ते में पुराने मित्रों का अभिनन्दन करते और छेड़ते हुए मंदिर के द्वार तक चलकर गए। उन्होंने फीता काटा, द्वार को धकेल कर खोला और उद्घाटन का प्रारंभ करते हुए प्रार्थनाओं का पाठ किया। ऊपर वेदी पर उन्होंने चमकीले प्रतिमाओं के समक्ष श्रद्धा व्यक्त की और दीप प्रज्ज्वलित किया। गोनखंग जाते हुए उन्होंने दोखम दगमो को प्रणाम किया।


जब चाय और मीठे चावल दिए जा रहे थे और प्रथम दलाई लामा, गेदुन डुब की स्तुति का पाठ हो रहा था तो परम पावन सिंहासन पर बैठे थे। उन्होंने कहा कि जे रिनपोछे ने भविष्यवाणी की थी कि गेदुन डुब, जिन्होंने उनके साथ अध्ययन किया था, महान कार्य करेंगे। उनकी उपलब्धियों में से एक टाशी ल्हुन्पो की स्थापना थी, जिसका नाम, उन्होंने कहा कि पलदेन ल्हामो का एक रूप, दोखम दगमो द्वारा दिया गया था। इन स्मृतियों से परम पावन की आँखें अश्रुपूरित हो गईं और उन्होंने टिप्पणी की कि जिस तरह वे डोमतोनपा के संबंध में एक प्रबल कार्मिक कड़ी का अनुभव करते हैं, उसी तरह टाशी ल्हुन्पो के प्रति भी उनमें एक गहरा स्नेह है।

कल, नूतन सभागार का औपचारिक रूप से उद्घाटन किया जाएगा और परम पावन धर्मकीर्ति के 'प्रमाण वार्तिक' पर प्रवचन देंगे।

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