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स्कूल के छात्रों के साथ बातचीत और नागार्जुन के 'प्रज्ञानाममूलमध्यमकारिका' पर प्रवचन २१/मार्च/२०१५

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नई दिल्ली, भारत - २० मार्च २०१५- आज नौंवा अवसर था जब फाउंडेशन फॉर युनिवर्सल रेसपांसिबिलिटी ने वसंत ऋतु में, राष्ट्रीय राजधानी में रुचि रखने वाले भारतीयों के लिए प्रवचन हेतु परम पावन दलाई लामा को आमंत्रित किया। जैसा कि पहले भी किया जाता रहा है, फाउंडेशन ने इस अवसर पर परम पावन की युवा पीढ़ी के सदस्यों के साथ बातचीत करने की व्यवस्था भी की थी। दिल्ली के १८ स्कूलों के १५० छात्र, श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर का एक स्कूल और सेलाकुई के रूप में टीसीवी स्कूल के छात्र, २० परामर्शदाता और ५० शिक्षक पीस जाम फाउंडेशन की भागीदारी में एक साथ आए। फाउंडेशन एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जो अपने समुदाय और विश्व में सकारात्मक परिवर्तन करने के लिए प्रतिबद्ध है। जब परम पावन ने कक्ष में प्रवेश किया तो छात्रों ने पूरे उत्साह से उनका स्वागत किया।


"मैं यहाँ आप युवा लोगों के बीच आकर बहुत प्रसन्न हूँ," उन्होंने उनसे कहा। "आप शारीरिक ऊर्जा से भरे हुए हैं, अभी भी बढ़ रहे हैं । मेरे जैसे ८० वर्ष के एक व्यक्ति के लिए आप लोगों के साथ रहकर मैं ताजा अनुभव करता हूँ, जबकि मैं अन्य वयोवृद्ध लोगों के साथ होता हूँ, मैं यह सोचने पर बाध्य हो जाता हूँ कि कौन पहले जाएगा, पहले मैं अथवा वे। एक मुनष्य होने के नाते, चाहे हम युवा हों अथवा वृद्ध, उत्तर से हों अथवा दक्षिण से, हमारी धर्म में आस्था हो अथवा नहीं, हमारे बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं है। इसी कारण मैं सदा इस पर बल देता हूँ कि हमें आज जीवित ७ अरब मानवों के बीच एकता की भावना के विकास की आवश्यकता है।  
"हम सभी ऐसी माँओं से पैदा हुए हैं जिसने हम पर स्नेह की बौछार की। निश्चित रूप से उसके बिना हम जीवित न रह पाते। यह मातृ वृत्ति हम जैसे सभी स्तनधारियों प्राणियों में सामन रूप से है, पर एक तितली में भी देखी जा सकती है कि किस प्रकार वह अपने अंडे देने के लिए एक सुरक्षित स्थान खोजती है, क्योंकि जब उन अंडों से बच्चे निकलेंगे तो वह वहाँ नहीं होगी। अपनी माँ की देखभाल के साथ प्रारंभ कर हम सब को दूसरों से सहायता प्राप्त करने का अनुभव है। वे लोग जो अपनी शैशवास्था में अपने माँ के स्नेह से लाभान्वित होते हैं, अपने जीवन के बाद के समय में अधिक सुखी होते हैं तथा दूसरंो के प्रति स्नेह व्यक्त करने में अधिक सक्षम होते हैं ।"

उन्होंने कहा कि यदि इसके विपरीत हम भय से भरे हुए हों तो हम किसी पर भी विश्वास न करेंगे और जब हम किसी पर विश्वास नहीं करते तो हमारा कोई मित्र नहीं होता। आज जब लोग बड़े हो रहे हैं तो वे वस्तुओं को धन तथा शक्ति की एक भौतिकवादी दृष्टि से देखने लगते हैं। जब नैतिक सिद्धांतों का भी अभाव हो गया है तो यह भी बहुत सरलता से स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी और शोषण की ओर जाता है। युद्ध का यह विचार जिसमें एक पक्ष विजयी और दूसरा पराजित किया जाता है, आज की तारीख से बाहर है। अब जब हम इतने अन्योन्याश्रित हैं तो हमारे दुश्मन का विनाश हानि पहुँचाता है और हमारे लिए हितकारी नहीं है।


परम पावन ने फिर अपने दर्शकों को बताया कि वे उनके प्रश्न सुनना पसंद करेंगे और प्रथम प्रश्न एक युवक का था जिसने परम पावन से समलैंगिकता पर अपने विचारों के स्पष्टीकरण का अनुरोध किया। उन्होंने उत्तर दिया ः

"यह बहुत कुछ व्यक्ति की स्थिति पर निर्भर करता है। सामान्य रूप से यदि आप धार्मिक हैं तो आपको अपनी आस्था के नियमों का पालन करने का प्रयास करना चाहिए। ऐसी कई गतिविधियाँ हैं जिन्हें बुद्ध की शिक्षाएँ यौन दुराचार के रूप में संदर्भित करती हैं। इनसे बचना बेहतर है, पर यदि आप उन्हें करते हैं तो इसका यह अर्थ नहीं कि आप एक बौद्ध नहीं बने रहते। जो एक उपासक, नव प्रव्रजित अथवा पूर्ण प्रव्रजित भिक्षु अथवा भिक्षुणियों के संवर धारण करते हैं वे चार मुख्य व्रतों से अनुबद्ध हैं: एक मनुष्य की हत्या न करना, बहुत बड़ा झूठ न बोलना, अपने आध्यात्मिक सिद्धियों के विषय में दूसरों से छल न करना, चोरी और यौन दुराचार। यदि आप इनमें से कुछ करते हैं तो आप अपना संवर खो बैठते हैं और उदाहरण के लिए एक भिक्षु अथवा भिक्षुणी बने नहीं रह सकता। इस संदर्भ में, यौन दुराचार में मौखिक और गुदा सेक्स, हस्तमैथुन, यद्यपि अनुचित माना जाता है, पर उसके कारण यह आवश्यक नहीं कि आप भिक्षु न बने रहें।"

"दूसरी ओर यदि आप किसी धर्म का पालन न करें, तो आप जो चाहें उसका पालन करने के लिए १०० % स्वतंत्र हैं, बशर्ते आप जो कर रहे हों वह सुरक्षित हो और आपको या किसी और को संकट में न डाले।"

एक युवती जानना चाहती थी, कि सच्चे मित्र किस प्रकार प्राप्त किए जाएँ और परम पावन ने उससे कहा कि आप स्वयं ईमानदार, सच्चे और करुणाशील होकर ऐसे मित्र जमा करें जो कठिनाई में भी आपके साथ खड़े रहें। उन्होंने कहा कि दूसरी ओर, यदि आप शंका से भरे हैं, तो आप सरलता से ऐसे मित्र आकर्षित नहीं कर पाएँगे।


एक अन्य प्रश्नकर्ता ने पूछा कि क्या सामान्य रूप में विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहायक हैं अथवा हानिकारक। परम पावन ने उत्तर दिया कि वे उन्हें सहायक की दृष्टि से देखते हैं। उन्होंने कहा:

"मुझे विज्ञान से प्रेम है और मैं वैज्ञानिकों के उन्मुक्त चित्त, पूर्वाग्रह से मुक्त और कारण पर निर्भर होने का प्रशंसक हूँ।"

यह पूछे जाने पर कि समाज को आतंकवादियों के साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, परम पावन सहमत हुए कि यह एक गंभीर समस्या है, पर यह हमारी पिछली गलतियों का परिणाम है विशेष रूप से यह विचार, कि समस्याओं का समाधान बल द्वारा हो सकता है।

तिब्बत में चीनी व्यवहार के संबंध के एक प्रश्न के उत्तर में, परम पावन ने कहा कि वह एक समग्र रूप में चीनी लोगों और चीनी सरकार के बीच अंतर करना चाहते थे। सरकार के अंदर वह साधारण लोगों और कट्टरपंथियों के बीच भेद करना चाहते थे जिनमें ज्ञान का अभाव था। उन्होंने कहा कि ७वीं, ८वीं और ९वीं सदी में तिब्बती, मंगोलियाई और चीनी तीन साम्राज्यों का अस्तित्व एक ऐतिहासिक तथ्य है। उन्होंने इसकी तुलना भारत के साथ की जो पहले छोटी छोटी राज व्यवस्थाओं का एक संग्रह था तथा १९४७ में स्वतंत्रता के उपरांत एक संयुक्त देश के रूप में उभरा।

 
सत्र का अंत होने के पूर्व छात्र प्रतिनिधियों ने एक बेहतर विश्व के निर्माण के लिए योगदान के रूप में बनाए जा रहे परियोजनाओं की घोषणा की। उनमें मानव अधिकार का समर्थन, पर्यावरण की स्थिरता, समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए शैक्षिक सहायता प्रदान करना, गांवों में शैक्षिक सहायता प्रदान करने और महिलाओं और बच्चों के अधिकारों का समर्थन करने के प्रयास शामिल हैं। प्रत्येक घोषणा पर तालियों की गड़गड़ाहट सुनने को मिली। परम पावन टिप्पणी की:

"ये परियोजनाओं अद्भुत हैं। मैं आपके साथ अपने कुछ अनुभव साझा करना चाहता हूँ। १६ वर्ष की आयु में मैं अपनी स्वतंत्रता खो बैठा, २४ में मैंने अपना देश खो दिया। मैंने एक शरणार्थी के रूप में ५६ वर्ष बिताए जिस दौरान निरंतर दुखपूर्ण समाचार मिलते रहे हैं। पर ऐसी परिस्थितियों में भी मैंने आशा या अपना दृढ़ संकल्प नहीं खोया। आपकी सफलता भी आपके दृढ़ संकल्प और आत्मविश्वास पर निर्भर करेगी। याद रखें यदि आप समाज को लाभ पहुँचाएँगे तो समाज आप का समर्थन करेगा।"

मध्याह्न में, परम पावन एक पूरी तरह से अलग ३४० वयस्क दर्शकों के बीच लौटे जिनमें से लगभग सभी भारतीय थे। फाउंडेशन फॉर युनिवर्सल रेसपांसिबिलिटी के सचिव, राजीव मेहरोत्रा ने परम पावन का परिचय कराया, जिन्होंने उत्तर देते हुए कहा ः

"धन्यवाद राजीव, मेरे लंबे समय के विश्वसनीय मित्र । मैं आपके अच्छे काम की सराहना करता हूँ। पुनः इस वार्षिक सभा के आयोजन के लिए धन्यवाद।"


उन्होंने कहा कि वास्तविकता की एक गहन समझ प्राप्त करने के लिए हमें अपनी विनाशकारी भावनाएँ, जो अज्ञानता में निहित हैं, को संबोधित करने के लिए हमारी बुद्धि और विश्लेषण को काम में लाने की आवश्यकता है।

"एक अभ्यासी के रूप में मैं अब ८० वर्ष का हूँ और विगत ३० या ४० वर्षों में मैंने जो नागार्जुन ने सिखाया है उस पर गंभीर चिन्तन किया है। मैंने इसे अपने विनाशकारी भावनाओं से निपटने में वास्तव में उपयोगी पाया है। अभ्यास मात्र अपनी आँखें मूँदने की बात नहीं, पर वास्तव में विश्लेषण में लगने का है। कुछ मित्र पूछते हैं कि दलाई लामा क्यों जो करुणा के बारे में बात करते थे पर अब सदा शून्यता की बात करते हैं। यह इसलिए क्योंकि मैंने इसे प्रभावी पाया है।"

उन्होंने कहा कि नागार्जुन की मूलमध्यमककारिका उनके छह तर्क संग्रहों में सबसे महत्वपूर्ण है और इसमें २७ अध्याय हैं।

उन्होंने टिप्पणी की, कि बुद्ध के प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन में चार आर्य सत्यों की व्याख्या, उनकी प्रकृति, उनके प्रकार्य तथा परिणाम आते हैं। उन्होंने ध्यानाकर्षित किया कि, बुद्ध हमारी ही तरह एक साधारण व्यक्ति थे परन्तु पूर्व बुद्धों की देशनाओं के कारण वे अपने चित्त को परिवर्तित करने के लिए प्रवृत हुए और अंततः एक बुद्ध बन गए।


परम पावन ने उल्लेख किया कि बौद्ध दर्शन की सभी चार परम्पराएँ वैभाषिक, सौतांत्रिक, चित्तमात्र और मध्यमक, सत्य द्वय को स्वीकार करते हैं, सांवृतिक दृश्य का सत्य और परमार्थ वास्तविकता का सत्य। पहले दो, वैभाषिक और सौतांत्रिक स्वीकार करते हैं कि वस्तुएँ बाह्य रूप से अस्तित्व रखती हैं। पर चित्तमात्र परम्परा वाले कहते हैं कि जब तक दर्शक है, तब तक दृश्य वस्तु का अस्तित्व है और इस प्रकार यह चुनौती देता है कि वह बाह्य रूप से वह अस्तित्व रखता है। यह क्वांटम भौतिकी के अभिकथन से मेल खाता है कि वस्तुओं का कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता। मध्यमकों के लिए वस्तुएँ नािमत आधार पर अस्तित्व रखती हैं। वे परमार्थिक रूप से अस्तित्व नहीं रखती पर सांवृतिक रूप से अस्तित्व रखती हैं।

यह कहते हुए कि तीन महान प्राचीन सभ्यताओं, मिस्र, चीनी और सिंधु घाटी सभ्यता में ऐसा प्रतीत होता है कि बाद की सभ्यता ने बड़ी संख्या में महान विचारकों को जन्म दिया है। उन्होंने एक भावुक अवसर का स्मरण किया जब उन्होंने प्राचीन भारतीय धरोहर को उसके भारतीय वंशजों को सक्रियता से लौटाते हुए बनारस संस्कृत विश्वविद्यालय के चार शिक्षकों प्रोफेसर त्रिपाठी, उपाध्याय और तिवारी को गुह्यसमाज का अभिषेक दिया।


परम पावन ने नागार्जुन के 'मूलमध्यमककारिका' के २४वें अध्याय के प्रथम छह श्लोकों को पढ़ते हुए अपनी व्याख्या प्रारंभ की। उन्होंने कहा कि अज्ञानता को पराजित करने के लिए, जो विनाशकारी भावनाओं का आधार है, आत्म को लेकर भ्रांत धारणा का खंडन आवश्यक है। उन्होंने कहा कि विनाशकारी भावनाएँ तुरन्त और भावावेश में उत्पन्न होती हैं, जबकि सकारात्मक भावनाएँ जो कि तर्क का परिणाम हैं, धीरे घीरे उत्पन्न होती हैं पर अधिक स्थिर होती हैं। उन्होंने कहा कि यही कारण है कि वे वैज्ञानिकों को भावनाओं का एक मानचित्र बनाने में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।

जैसे उन्होंने श्लोकों का पाठ जारी रखा परम पावन ने समझाया कि, प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन और चार आर्य सत्यों की व्याख्या के दौरान, तीसरे आर्य सत्य की व्याख्या में वह वास्तविकता, जो विनाशकारी भावनाओं का प्रहाण कर सकती है, की ओर संकेत किया गया। द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन में उन्होंने शून्यता के अनुभव को सविस्तार रूप दिया तथा तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन में उन्होंने चेतना की प्रकृति का स्पष्टीकरण किया।

सत्रांत में, परम पावन ने दर्शकों से प्रश्न आमंत्रित किए। वे कल 'प्रज्ञानाममूल' का पठन जारी रखेंगे। 

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