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हृदय सूत्र तथा बोधिचित्त विवरण पर प्रवचन १२/अप्रैल/२०१५

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टोक्यो, जापान - १२ अप्रैल २०१५ - मौसम आज पुनः खिला हुआ था, मार्ग अपेक्षाकृत खाली थे, जब परम पावन दलाई लामा शोवा जोशी महिला विश्वविद्यालय के लिए टोक्यो से गुज़रे। स्मारक सभागार, जो कार्यक्रम स्थल था, में प्रतीक्षा कर रहे लोग उन्हें गाड़ी में आते देख आश्चर्य से भर गए। कइयों ने मस्तक नवाया और फिर हाथ हिलाया।

परम पावन ने २१०० संख्या के श्रोताओं के समक्ष ठीक ९ः३० निश्चित समय पर आसन ग्रहण किया। उनमें ३७० कोरियाई, १२० मंगोलिया के लोग और लगभग १००० चीनी थे, जो अधिकांश रूप से ताइवान से और कुछ मुख्य भूमि से शामिल थे।


उन्होंने प्रारंभ में घोषणा की, "चूँकि हममें से अधिकांश प्रथानुसार प्रज्ञा हृदय सूत्र का पाठ करते हैं, हम आपकी विभिन्न भाषाओं में पाठ करेंगे। आज चलिए कोरियायी भिक्षु पाठ करें और कल जापानी करेंगे।"
कोरियाई सस्वर पाठ के पश्चात, परम पावन ने चीनियों को भी ऐसा ही करने के लिए आमंत्रित किया और १००० आवाज़ों ने स्थिर स्वर में पाठ किया। उन्होंने समझाया कि प्रवचन के प्रारंभ में वे 'अभिसमयालंकार' से प्रज्ञा पारमिता की स्तुति में वंदना के छंदों का पाठ करना पसन्द करते हैं। इसके बाद वे बुद्ध की स्तुति में नागार्जुन की 'प्रज्ञानाममूलमध्यमकारिका' के वंदना श्लोक और प्रतीत्य समुत्पाद की व्याख्या करते हैं।

"मैं यहाँ इन दो दिनों के प्रवचन में जापानी, कोरियाई, मंगोलियायी, ताइवान और चीनियों को देख कर बहुत प्रसन्न हूँ। यह सभागार शोवा जोशी महिला विश्वविद्यालय का एक अंग है जो प्रज्ञा पारिमता के प्रवचन के लिए उपयुक्त जान पड़ता है, चूँकि उन्हें प्रायः सभी बुद्धों की जननी के रूप में संदर्भित किया जाता है। मैं यह भी जानता हूँ कि इन प्रवचनों का इंटरनेट पर प्रसारण किया जा रहा है और ये जापान में अन्य स्थानों पर ३९ सिनेमा हॉल में उपलब्ध होंगे। आप सबका स्वागत जो यहाँ हमारे साथ जुड़ रहे हैं। बुद्ध की देशनाएँ वस्तुओं को मायोपम रूप से संदर्भित करती हैं, तो यह उसका स्मरण दिलाता है, जब आप मेरी मायोपम छवि के प्रवचन पर ध्यान दे रहे हैं।"

परम पावन ने स्पष्ट किया कि वह 'प्रज्ञा हृदय' और 'बोधिचित्त विवरण' को संक्षेप में समझाएँगे जिसका स्पष्टार्थ प्रज्ञा है। उन्होंने इंगित किया कि शून्यता का माध्यमक दृष्टिकोण जो बोधिचित्त के साथ जुड़ा हो, वह ज्ञान के अवरोध का प्रतिकारक है। उन्होंने कमलशील के 'भावना क्रम' के मध्य भाग के पठन का इरादा भी व्यक्त किया, जो कि उचित है क्योंकि वह मार्ग का सम्पूर्ण सर्वेक्षण है जिसमें शमथ तथा विपश्यना पर बल दिया गया है। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि कल वह अवलोकितेश्वर का अभिषेक तथा अनुज्ञा और साथ ही 'तीन अर्थ सार' की व्याख्या देने वाले हैं।

 बौद्ध धर्म का सदा की तरह परिचय के साथ प्रारंभ कर परम पावन ने कहाः

"इस २१वीं सदी में हम सभी ७ अरब मनुष्य सुख की कामना करने और दुखी न होने की इच्छा में समान हैं। यह हम सभी के लिए सच है फिर चाहे हम धार्मिक हों अथवा नहीं। अधिकांश समस्याएँ जिनका सामना हम कर रहे हैं वे हमारी अपनी बनाई हुई हैं, क्योंकि हम आत्म केन्द्रित हैं और वस्तुओं को एक संकीर्ण, अदूरदर्शी बिंदु से देखते है जो केवल हमारी हताशा को अधिक करता है।"

उन्होंने कहा कि यद्यपि आज के विश्व में शिक्षा पर बल है, पर यह भौतिकवादी लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित कर एक भौतिकवादी संस्कृति में छात्रों को एक भौतिकवादी मार्ग के लिए तैयार करता है। समाज सुखी रहने के लिए चित्त के योगदान की उपेक्षा करता है। चूँकि हम आंतरिक रूप से शांत नहीं इसलिए हम क्रोध और हताशा की ओर प्रवृत्त होते हैं। हमें आंतरिक मूल्यों पर आधारित होने की आवश्यकता है। सभी धार्मिक परंपराएँ प्रेम और करुणा, भाईचारे और भगिनी चारे के विचार पर जोर देती हैं और उस लक्ष्य के लिए वे विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाते हैं।

धार्मिक परंपराएँ या तो आस्तिक होती हैं और एक निर्माता ईश्वर में विश्वास करती हैं अथवा कारण कार्य पर विश्वास करते हुए गैर आस्तिक होती हैं। गैर-ईश्वरवादी परंपराओं में मात्र केवल बौद्ध धर्म इस पर बल देते हुए कि शरीर और चित्त से पृथक कोई आत्मा नहीं, एक स्वतंत्र, स्वभावगत सत्ता िलए आत्मा के अभाव का अधिवक्ता है। उन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म के अंतर्गत पालि और संस्कृत परम्परा है। दोनों ही तीन अधिशिक्षाओं शील, समाधि तथा प्रज्ञा की बात करती हैं, पर प्रज्ञा की परिभाषा में अंतर रखती हैं।

'संधिनिर्मोचन सूत्र' तीन धर्म चक्र प्रवर्तनों की व्याख्या करता है। प्रथम में पालि परम्परा में दी गई देशनाओं का संदर्भ आता है, जबकि द्वितीय और तृतीय का संबंध संस्कृत परम्परा से है। परम पावन ने स्पष्ट किया कि प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान बुद्ध ने चार आर्य सत्य दुःख, दुःख समुदय, निरोध तथा मार्ग की देशना दी, जो कि उनकी शिक्षाओं का मूल आधार है। वे उनकी १६ विशिष्टताओं, प्रत्येक सत्य की चार विशेषताएँ को समझाने के लिए कुछ विस्तार में गए। उन्होंने विशेषकर नैरात्म्य की समझ, अज्ञानता को कम और दुःख के निरोध की प्राप्ति पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया। जब चार आर्य सत्यों के १६ विशिष्टताओं को चर्या में लाया जाता है तो यह प्रबुद्धता के ३७ कारकों को जन्म देता है।


मध्याह्न भोजन से लौटकर परम पावन ने समझाया कि प्रज्ञा पारमिता हृदय सूत्र ग्रंथों के एक संग्रह के अंतर्गत आता है जो प्रज्ञा पारमिता शिक्षा के रूप में जानी जाती हैं जिनमें सबसे व्यापक रूप में १२ खंडों में १००, ००० सूत्र आते हैं। अपने सबसे संक्षिप्त रूप में वे एक अक्षर 'अ' के रूप में है। साधारणतया प्रज्ञा हृदय को २५ पंक्तियों का माना जाता है। प्रज्ञा पारमिता का स्पष्टार्थ स्वभावगत सत्ता की शून्यता और निरोध सत्य के लिए इसका प्रभाव है।

"नागार्जुन ने निरोध का अर्थ ऐसे होने के रूप में बताया जब शून्यता विनाशकारी भावनाओं पर काबू पाती है। दूसरी ओर जो खुनु लामा रिनपोछे ने समझाया, और मुझे यह अच्छा लगता है, कि विनाशकारी भावनाओं का शून्यता में विलय हो जाता है। जबकि बुद्ध ने द्वितीय चक्र प्रवर्तन के समय शून्यता का अर्थ समझाया और तीसरे के दौरान उन्होंने चित्त की प्रभास्वरता का परिचय दिया।"

परम पावन ने स्पष्ट किया चार आर्य सत्यों की व्याख्या के दौरान, बुद्ध ने निरोध तथा निर्वाण का संदर्भ पुद्गल नैरात्म्य के संबंध में दिया। प्रज्ञा पारमिता के प्रमुख बिंदुओं में से एक हैः

'अवलोकितेश्वर ... ने पञ्च स्कंधों को भी स्वभाव शून्य देखा'

महत्वपूर्ण शब्द 'भी' जो चीनी अनुवाद में नहीं है पर संस्कृत मूल और उसके तिब्बती अनुवाद में पाया जाता है, पुद्गल नैरात्म्य के अतिरिक्त धर्म नैरात्म्य को इंगित करता है। यह कहना कि पुद्गल और धर्म में स्वभावगत सत्ता का अभाव है का यह तात्पर्य नहीं है कि उनका अस्तित्व है ही नहीं। सूत्र के शब्द 'रूप शून्यता है' का संदर्भ वस्तुओं के परमार्थ वास्तविकता से है जबकि शब्द 'शून्यता रूप है' का संदर्भ सांवृतिक अस्तित्व से है। यह इस कथन द्वारा दोहराया गया है ः 'शून्यता रूपों से पृथक नहीं और रूप शून्यता से पृथक नहीं।'

शून्यता की समझ की खोज का कारण जैसा कि चन्द्रकीर्ति अपने 'मध्यमकावतार' में कहते हैं 'सभी दोष, कमियों और उद्वेलित करने वाली भावनाएँ [एक स्वभावगत अस्तित्व रखनेवाली]आत्मा की भ्रांत धारणा से उत्पन्न होती हैं।' इस तरह की भ्रांति के आधार पर हम वस्तुओं की स्वभाव सत्ता को ग्राह्य करते हैं और उनके प्रति उद्वेलित भावनाएँ उत्पादित करते हैं, जिसके विषय में परम पावन ने उनके मित्र अमेरिकी मनोचिकित्सक, हारून बेक को उद्धृत किया, जो कहते हैं कि वह ९०% हमारा अपना मानसिक प्रक्षेपण है।

परम पावन ने नागार्जुन को उद्धृत करते हुए कहा कि धर्म नैरात्म्य को समझे बिना तुम वास्तव में पुद्गल नैरात्म्य को नहीं समझ सकते। अंत में उन्होंने प्रज्ञा हृदय को ही उद्धृत किया ः

"अतीत, वर्तमान और भविष्य के सभी बुद्ध प्रज्ञा पारिमता पर निर्भर रहे हैं, रहते हैं और रहेंगे। और इस तरह वे अनुत्तर सम्यक संबुद्ध बने, बन रहे हैं और बनेंगे।'

नागार्जुन के 'बोधिचित्तविवरण' की ओर लौटते हुए, परम पावन ने एक संक्षिप्त रूपरेखा दी। ४ - ९ छंद में ग्रंथ तैर्थिकों के दृष्टिकोण का खंडन करता है। १० - २४ छंद, निम्न बौद्ध विचार धाराओं को अस्वीकार करते हैं तथा २५ - ४४ छंद चित्त मात्रता के दृष्टिकोण को संबोधित करते हैं। ४८वें छंद में नागार्जुन बताते है शून्यता वह दृष्टिकोण है जो सभी भ्रांत धारणाओं को मूल से काटता है।

४८
इसलिए शून्यता की नित्य भावना करो,
सभी धर्मों का अधिष्ठान
शांत और माया की भांति
आधार रहित और भव चक्र को नष्ट करने वाली।


छंद ६३ से माध्यमक दृष्टिकोण की व्याख्या है जो कि ६८वें छंद में स्पष्ट है ः

संवृति को भी शून्यता रूप में कहा गया है
शून्यता स्वयं में संवृति है
एक दूसरे के अभाव में नहीं होता
जैसे कृतकत्व और अनित्यता


७२वें छंद में दान पारमिता तथा बोधिचित्त की व्याख्या की गई है, यह दिखाते हुए कि किस प्रकार शून्यता की समझ बोधिचित्त के विकास के लिए एक प्रेरक तत्व बनता है। उसके पश्चात ७६ - ८५ छंद परात्मसमपरिवर्तन की चर्या के विकास का वर्णन है। इस बिंदु पर परम पावन ने घोषित किया ः

"आज के लिए बस इतना ही। शुभ रात्रि। हम कल फिर मिलेंगे।"

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