परम पावन 14 वें दलाई लामा
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ओसाका में 'बोधिसत्वचर्यावतार' का दूसरे दिन ११/मई/२०१६

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ओसाका, जापान, ११ मई २०१६ - आज प्रातः ओसाका इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस सेंटर के सभागार में आगमन पर परम पावन दलाई लामा मंच के सामने आए और उनका अभिनन्दन कर रहे श्रोताओं को हाथ जोड़कर पहले दाएँ, बाएँ और फिर मध्य में नमस्कार किया।


"सभी को सुप्रभात," उन्होंने प्रारंभ किया, "हम जानते हैं कि बुद्ध विश्व में प्रत्यक्ष हुए यद्यपि इसको लेकर असहमति है कि कब। प्रश्न यह है कि क्या उन्होंने उसी जीवन में प्रबुद्धता प्राप्त कर ली, या फिर बहुत पहले प्रबुद्धता प्राप्त कर चुके थे। पालि परम्परा का कहना है कि वह एक साधारण व्यक्ति थे जो एक बार ध्यान में बैठने के साथ ही बुद्ध बन गए। मैत्रेय की ‘उत्तर तन्त्र’ बुद्ध के जीवन के १२ कार्यों को सूचीबद्ध करता है, कुछ एक बोधिसत्व और कुछ एक बुद्ध के रूप। तीन अनगिनत कल्पों में उनके द्वारा पुण्य संभार तथा ज्ञान का संभार किए जाने की कल्पना कठिन है, पर यह भी विश्वास करना कठिन है कि उन्होंने एक जीवन में प्रबुद्धता प्राप्त कर ली। संस्कृत परम्परा से पूर्व विवरण अधिक उचित न्यायसंगत जान पड़ता है।

"प्रचलित कथा है कि बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई और उन्होंने धर्म चक्र प्रवर्तन किया जब उन्होंने चार आर्य सत्य की शिक्षा दी। द्वितीय चक्र प्रवर्तन, जिसका संबंध प्रज्ञा- पारमिता की शिक्षाओं से है, का ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलता, तो कुछ लोग विवाद करते हैं कि क्या बुद्ध ने वास्तव में उनकी शिक्षा दी। परन्तु नागार्जुन, मैत्रेय और भवविवेक ने विस्तृत रूप से इस संस्कृत परम्परा की प्रामाणिकता के पक्ष में लिखा। उसका केंद्र वस्तु में स्वतंत्र सत्ता का अभाव था।"

परम पावन ने कहा कि 'हृदय सूत्र', जिसमें शारिपुत्र तथा अवलोकितेश्वर के बीच एक संवाद है, संस्कृत परम्परा का एक जाना माना उदाहरण है। उन्होंने कहा कि 'संधिनिर्मोचन सूत्र', जो वैशाली में दिया गया था, का संबंध तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन से है। उन्होंने कहा कि पारम्परिक स्तुति, जो षड़ालंकार और परम द्वय के नाम से रूप में जानी जाती है, का संबंध का तृतीय धर्म प्रवर्तन से है क्योंकि मध्यम दृष्टिकोण के कई आचार्य - चन्द्रकीर्ति, भवविवेक और बुद्धपालित - इनमें शामिल नहीं हैं। परिणामस्वरूप परम पावन ने नालंदा के १७ पंडितों की एक समग्र प्रशंसा की रचना की। 'संधिनिर्मोचन सूत्र', भी शिष्यों की विभिन्न क्षमताओं के संबंध में बताता है।


चार आर्य सत्य, दुख, दुःख समुदय, निरोध तथा मार्ग बौद्ध धर्म की सभी परम्पराओं द्वारा स्वीकृत किया जाता है तथा शिक्षा की नींव है। इस बीच तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन ने चित्त की प्रकृति को समझाया जो कि तंत्र के अभ्यास का आधार बनता है। बुद्ध ने विविध शिक्षाएँ दी, क्योंकि वे समझ गए थे कि शिष्यों की प्रकृति अलग अलग प्रकार की थी।

जब उन्होंने प्रथम बार ज्ञान की प्राप्ति हुई तो बुद्ध ने सोचा कि उन्होंने जो अनुभूति की है यदि वे उसकी शिक्षा दें तो कोई समझ न पाएगा। बोधगया में बोधि वृक्ष के निकट के क्षेत्र में ४९ दिवस का एकांतवास बिताने के पश्चात देवताओं ने उनसे धर्म चक्र प्रवर्तन की प्रार्थना की। उन्होंने उन साथियों की खोज की जिनके साथ उन्होंने पहले तपस्या की थी और जो उनसे अलग हो गए थे, जब बुद्ध ने अपना निराहार व्रत तोड़ दिया था। जैसे ही वाराणसी में बुद्ध उनके निकट गए, उन्होंने पहले से निश्चय किया हुआ था कि वे उनका अभिवादन नहीं करेंगे, पर वे लोग अपने को ऐसा करने करने में असमर्थ पाया। बुद्ध ने उन्हें प्रव्रर्जित किया और उनका पहला निर्देश था कि किस प्रकार भिक्षु के चीवर धारण किए जाएँ। इसके बाद उन्होंने चार आर्य सत्य की देशना दी।

उन्होंने सलाह दी - दुःख को जानो, उसके समुदय पर प्रहाण करो, निरोध को प्राप्त करो और मार्ग का सेवन करो। उस संदर्भ के भीतर, दुःख की चार आकार हैं, अनित्य, दुःख, शून्य तथा नैरात्म्य। दुःख समुदय के चार आकार हैं, हेतु, समुदय, प्रभव और प्रत्यय। चार आकार जो निरोध को संदर्भित करती हैं, वे हैं निरोध, शांत, प्रणीत और निर्याण, जबकि चार आकार जो मार्ग को संदर्भित करती हैं, वे हैं, मार्ग, न्याय, प्रतिपत्ति और अवधारण। इन आकारों का अध्ययन प्रज्ञा में योगदान देता है जो इस अवलोकन के ठीक विपरीत है कि यह शरीर जो अब हमारे पास है का स्रोत अज्ञानता है।


बुद्ध ने दुःख के तीन पक्षों का वर्णन किया। हर कोई दुःख दुखता से परिचित है। परिवर्तन दुःख का संदर्भ उससे है, जिस तरह सुख दुःख में परिवर्तन हो जाता है।अबौद्ध योगी ४वें अवशोषण, जो कि एक साधनात्मक अवस्था है, जिसमें भावनाएँ तटस्थ होती हैं, में प्रवेश कर इससे बचता है। तीसरे पक्ष का स्रोत, परिणाम दुःख, कर्म तथा क्लेश हैं, जो अज्ञानता में निहित हैं।

परम पावन स्पष्ट किया कि बुद्ध की शिक्षाओं की बुनियादी संरचना चार आर्य सत्य और बोधि पक्ष के ३७ धर्मों के निर्देश पाई जाती हैं, जो पालि और संस्कृत परम्पराओं में आम है। ३७ धर्मों में ४ स्मृत्युपस्थान, ४ सम्यक् प्रहाण, ४ ऋद्धिपाद, ५ इन्द्रियाँ, ५ बल, ७ बोध्यंग तथा ८ आर्य अष्टांगिक मार्ग सम्मिलित हैं।
 
बोधिसत्वचर्यावतार के तीसरे अध्याय के अपने पाठ को जारी रखते हुए परम पावन ने इंगित किया कि मात्र मनुष्य के रूप में हम बोधिचित्तोत्पाद में सक्षम हैं। फिर भी, जैसा कि ग्रंथ स्पष्ट करता है, यह दुर्लभ है - 'जिस तरह एक अंधे व्यक्ति को कूड़े के एक ढेर में एक रत्न मिलता है, इस तरह प्रबुद्धता की यह भावना किसी तरह मुझ में उत्पन्न हो गई है।' यह अनमोल है - 'यह जीवन का अमृत है जो संसार में मृत्यु पर विजय प्राप्त करने हेतु उत्पादित है। यह संसार में निर्धनता को मिटाने के लिए एक कभी न समाप्त होने वाली निधि है।'

नागार्जुन प्रणिधान बोधिचित्त को इस तरह व्यक्त कियाः

मैं सदा भोग की एक वस्तु बनूँ
सभी सत्वों के लिए उनकी इच्छा के अनुसार
और बिना किसी हस्तक्षेप के जैसे पृथ्वी,
जल, अग्नि, वायु , जड़ी बूटी, और अकृष्ट वन।

जैसे ही वह अध्याय के अंत में पहुँचे परम पावन ने टिप्पणी की कि हम सभी को इस तरह के एक सहृदय की आवश्यकता है, सौहार्दतापूर्ण हृदय जो विश्व में शांति का स्रोत हो सकता है।


चौथा अध्याय बोधिचित्त अप्रमाद पढ़ते हुए परम पावन ने इस ओर ध्यान आकर्षित किया कि हमारे वास्तविक वैरी अपने भीतर के क्लेश है न कि सिर्फ शारीरिक रूप से क्षति करने वाला। वे अनादि काल से हमारे वैरी रहे हैं और यद्यपि हम एक शारीरिक वैरी को अपना मित्र बना सकते हैं, पर क्लेशों से मैत्री करना हमारे लिए किसी रूप में हितकारी न होगा।

मध्याह्न के बाद परम पावन ने टिप्पणी की कि आज और कल के सत्रों का आयोजन प्रारंभ में बिना किसी जाप के इस प्रकार किया गया था, मानो किसी कक्षा में हो। परन्तु उन्होंने कहा कि परसों 'हृदय सूत्र' का पाठ किया जाएगा, जो मंजुश्री की अनुमति देता हो और प्रार्थना जो प्रारंभ होती है:

'नमन मेरे गुरु और मेरे रक्षक, मंजुश्री
जो अपने हृदय के पास एक धार्मिक ग्रंथ धारण किए हैं
उनके द्वारा सभी वस्तुओं को
यथा रूप देखने के प्रतीक रूप में'

यह एक ऐसी प्रार्थना है जिसे कंठस्थ करना अच्छा है। परम पावन ने उल्लेख है कि उनके अपने दीक्षा गुरु और शिक्षक लिंग रिनपोछे यह प्रार्थना और मंजुश्री मंत्र का नियमित रूप से जाप करते थे।

ग्रंथ की ओर उन्मुख होते हुए उन्होंने कहा:

"ऐसा कोई जिसने बोधिसत्व व्रत लिया है, उसे उसकी रक्षा बड़ी सावधानी से करनी चाहिए, ठीक उसी तरह जो रोगी है और इस बात के प्रति सावधानी बरतता है कि वे क्या खाते हैं अथवा किस प्रकार का व्यवहार करते हैं। जागरूकता महत्वपूर्ण है और इस कारण सतर्क रहने की आवश्यकता है। अन्य प्राणियों को नुकसान पहुँचाने से बचने के लिए अपनी सतर्कता में जैन भिक्षु अनुकरणीय हैं।"

पाँचवें अध्याय को पूरा करने पर, परम पावन ने छठवें अध्याय का पाठ प्रारंभ किया, जिसका संबंध क्षांति (सहिष्णुता) से है। प्रथम श्लोक स्पष्ट करता है कि क्रोध सभी सदाचरणों को नष्ट करता है, जैसे कि दानशीलता और बुद्धों के प्रति सम्मान व्यक्त करना, जिसका संभार सहस्रों कल्पों के चलते हुआ है। अतएव क्षांति की एक महत्वपूर्ण सुरक्षात्मक भूमिका है। सत्र के अंत में अध्याय के अंत तक पहुँच कर अंत से पहले के श्लोक ने ग्रंथ की भावना का सार व्यक्त कर दिया:

भावी बुद्धत्व के अतिरिक्त,
क्या तुम सत्वों को प्रसन्न करने पर मिलने वाले
सौभाग्य, यश तथा सुखी जीवन की ओर
क्यों नहीं देखते?

प्रवचन कल जारी रहेगा।

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