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नालंदा शिक्षा के अनुरोध पर प्रवचन का दूसरा दिन ८/जून/२०१६

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थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, भारत, ८ जून २०१६ -  नालंदा शिक्षा द्वारा अनुरोध किए गए दूसरे दिन के प्रवचन का प्रारंभ वरिष्ठ सदस्यों द्वारा संस्कृत में 'हृदय सूत्र' के पाठ के साथ प्रारंभ हुआ।


परम पावन ने यह स्मरण करते हुए प्रारंभ किया कि ३० वर्षों से अधिक समय पहले उन्होंने आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ विचार विमर्श में संलग्न होने की इच्छा व्यक्त की थी। तब से उनके ब्रह्माण्ड विज्ञान, तंत्रिका जीव विज्ञान, भौतिक विज्ञान और विशेष रूप से क्वांटम भौतिकी और मनोविज्ञान पर केंद्रित संवाद हुए हैं। उन्होंने हँसते हुए सभा को बताया कि इसका एक परिणाम यह हुआ कि उनका बौद्ध धर्म ग्रंथों में पाए जाने वाले ब्रह्माण्ड विज्ञान में विश्वास नहीं रह गया है जो एक सपाट विश्व जिसके केन्द्र में पर्वत मेरु को वर्णित करता है।

"हमारे विचार विमर्श अत्यंत उपयोगी और पारस्परिक रूप से समृद्धवान रहे हैं ", उन्होंने कहा। "और वैसे भी विश्व में बुद्ध की प्रकट होने का मुख्य उद्देश्य मानचित्र बनाने में योगदान देना नहीं था, अपितु दुःख की समाप्ति में सहायता करना था।"

उन्होंने कहा कि विभिन्न भारतीय परम्पराएँ जो शमथ और विपश्यना का विकास करती हैं, उन्होंने चित्त और भावनाओं के कार्यों की एक गहन समझ प्राप्त कर ली है। एक शैक्षिक संदर्भ में इस ज्ञान का अध्ययन आज सहायक हो सकता है।

उन्होंने कहा कि मनुष्य के रूप में हम सब एक सुखी जीवन व्यतीत करना चाहते हैं और वास्तव में ऐसा करने का हमारा अधिकार है। चूँकि हमारे समक्ष की आज कई मानव निर्मित समस्याएँ, नैतिक सिद्धांतों के अंतर्निहित अभाव के कारण हैं, उन्होंने आग्रह किया कि शिक्षा प्रणाली में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को शामिल किया जाए। जब परम पावन ने श्रोताओं की ओर से प्रश्न आमंत्रित किए तो यह मुद्दा उठाया गया और उन्होंने कहा कि भारत का एक धर्मनिरपेक्ष संविधान है। उन्होंने सुझाव दिया कि मात्र अनुष्ठानों में लगे रहना सकारात्मक परिवर्तन को प्राप्त करने हेतु पर्याप्त नहीं है, तर्क और अध्ययन का उपयोग आवश्यक है। समुदाय में मंदिरों की भूमिका की प्रशंसा व्यक्त करते हुए उन्होंने लोगों के अध्ययन के लिए उनमें पुस्तकें रखने का भी प्रस्ताव रखा। उन्होंने आगे सुझाया कि आध्यात्मिक गुरु न केवल उपदेशात्मक कथाएँ सुनाएँ पर साथ ही दार्शनिक विचारों की व्याख्या भी करें।

"एक और भारतीय गुणवत्ता जिसका मैं बहुत प्रशंसक हूँ, वह है दीर्घ काल से चली आ रही अहिंसा की परम्परा," उन्होंने कहा। "इसके दो पक्ष हैं, हानि न पहुँचाना और करुणा की प्रेरणा।"

जब उनके अपने आध्यात्मिक विकास के संबंध में बात करने के लिए कहा गया तो परम पावन ने उत्तर दिया:

"किशोरावस्था तक मेरी अध्ययन या अभ्यास में कोई रुचि नहीं थी। मैं मात्र खेलना चाहता था। पर जब मैं १५ या १६ वर्ष का हुआ तो मेरी दर्शन में और प्रतीत्य समुत्पाद में रुचि उत्पन्न हुई। विगत ६० वर्षों से प्रातः जागने पर मेरा प्रथम विचार बुद्ध का स्मरण और उनकी प्रतीत्य समुत्पाद की शिक्षा है।

"५० वर्ष पूर्व मैंने पुद्गल नैरात्म्य के संबंध कुछ अनुभव विकसित किया और तब से मैंने धर्म नैरात्म्य की ओर ध्यान दिया है। यह समझ मोह जैसे क्लेशों के प्रभाव को कम करने में वास्तविक रूप से प्रभावशाली है। और इस आधार पर मैं आश्वस्त हूँ कि दुख का निरोध संभव है। परन्तु अभ्यास के एक पक्ष जिसका मुझमें अभाव है वह है, एकाग्र ध्यान और उसे प्राप्त करने के लिए मुझे मौन एकांतवास में जाना होगा। यह मेरे समक्ष एक दुविधा प्रस्तुत करता है, आध्यात्मिक विकास के लिए एकांत में जाऊँ अथवा या अधिक कल्याण के लिए अन्य लोगों के साथ काम करूँ। प्रथम दलाई लामा, जिन्होंने अभ्यास के कुछ अवसर के पश्चात टाशी ल्हुन्पो महाविहार की स्थापना और दूसरों को शिक्षा देने के लिए स्वयं को समर्पित किया, के उदाहरण ने मुझे प्रभावित किया।"

इस बात पर सलाह देने के लिए पूछे जाने पर कि अन्य लोग किस प्रकार अपना अभ्यास करें, परम पावन ने टिप्पणी की कि बुद्ध ने शिक्षा दी कि दुःख का स्रोत अज्ञान है। उन्होंने आगे जोड़ा कि बस कुछ न जानने का मात्र अज्ञान है, और वास्तविकता की विकृति का अज्ञान है। उन्होंने नागार्जुन के ग्रंथ 'मूल मध्यम कारिका' से एक श्लोक उद्धृत किया:

कर्म और क्लेशों के उन्मूलन से निरोध है।
कर्म और क्लेश धारणात्मक विचार से आते हैं
ये चित्त की अतिशयोक्ति अथवा प्रपञ्च से आते हैं।
प्रपञ्च का शून्यता से निरोध होता है।

उन्होंने बताया कि खुनु लामा रिनपोछे ने समझाया कि संस्कृत में अंतिम पंक्ति को इस तरह पढ़ा जा सकता है कि 'प्रपञ्च शून्यता में विलीन हो जाते हैं'। परम पावन ने नागार्जुन के 'प्रज्ञाज्ञान मूलमध्यमकारिका' से दो और श्लोकों की ओर ध्यान आकर्षित किया जिन्हें वे मूल्यवान मानते हैं और जिनका प्रतिदिन पाठ करते हैं:

जो प्रतीत्य समुत्पाद है
उसे शून्यता कहकर व्याख्यायित किया जाता है
वह चूँकि प्रतीत्य ज्ञापित है,
वही मध्यम प्रतिपदा है।

ऐसा कुछ भी अस्तित्व में नहीं
जो प्रतीत्य समुत्पादित न हो
अतः ऐसा कुछ भी अस्तित्व में नहीं
जो शून्य न हो।

'अभिसमयालंकार' को उद्धृत करते हुए कि, बोधिचित्त का मूल करुणा है, दूसरों को दुःख से मुक्त करने की कामना और यह कि वह सक्रिय हो जाता है जब वास्तव में दुःख से बाहर करने की प्रेरणा उपस्थित रहती है, परम पावन ने 'बोधिसत्वचर्यावतार' का चौथा अध्याय खोला। उन्होंने अध्याय के कई श्लोकों पर चर्चा की जिसके पश्चात उन्होंने खुनु लामा रिनपोछे के साथ हुई ४६ श्लोक से संबंधित बातचीत के बारे में बताया।

प्रज्ञा दृष्टि अथवा प्रज्ञा चक्षु द्वारा साधने पर
और चित्त से निकाले जाने पर तुम कहाँ आश्रय पाओगे?
मुझे पुनः आहत करने के लिए तुम कहाँ बसोगे?
पर मैं ही मन्द बुद्धि निरस्त व कायर हूँ।

परम पावन की टिप्पणी कि क्लेश बहुत बलशाली हैं, के उत्तर में खुनु लामा ने कहा, "नहीं, वे इतने सशक्त नहीं हैं। उनके उन्मूलन के लिए आणविक शस्त्रों की आवश्यकता नहीं होती, तथता की समझ, वास्तविकता की समझ उन्हें नष्ट करने में हमारी सहायता करते हैं।"

परम पावन ने घोषणा की कि कल बोधिचित्तोत्पाद का एक अनुष्ठान होगा। 

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