मुंडगोड, कर्नाटक, भारत - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा एक बार पुनः नीचे डेपुंग लाची महाविहार के बरामदे में आए और सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर अपना आसन ग्रहण किया। उनकी दाईं ओर विहारीय समुदाय के वरिष्ठ सदस्य थे और उनके बाईं ओर केंद्रीय तिब्बती प्रशासन और अन्य अतिथि विराजमान थे। उनके समक्ष महाविहार के प्रांगण में आगे की पंक्ति में प्रथम बीस भिक्षुणियाँ बैठी थीं जिन्होंने गेशे-मा की उपाधि प्राप्त की है ।
धर्म और संस्कृति के मंत्री श्रद्धेय कर्मा गेलेग ने प्रथम गेशे-मा की उपाधियाँ प्रदान करने के आधिकारिक समारोह के उद्घाटन की घोषणा के पहले परम पावन को एक मंडल और काय, वाक् और प्रबुद्धता के चित्त के प्रतीक प्रस्तुत किए।
इस ऐतिहासिक घटना की पृष्ठभूमि समझाते हुए कर्मा गेलेग ने परम पावन की दृष्टि को रेखांकित किया, कि भिक्षुणियों को अवसर प्रदान किया जाना चाहिए और विद्वान बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के धार्मिक कार्यालय ने तिब्बती भिक्षुणी परियोजना के साथ साझेदारी में उस दृष्टि की पूर्ति का समर्थन किया है। दक्षिण भारत में पुनर्स्थापित शिक्षा पीठों के विद्वानों ने भी परीक्षा की प्रक्रिया में भाग लिया है। मंत्री ने उन सभी के प्रति अपनी सराहना और आभार व्यक्त किया जिन्होंने इस परियोजना के सफलीकरण में योगदान दिया।
"आधारभूत तर्क की शिक्षा से प्रारंभ कर, भिक्षुणियों ने गेशे-मा की उपाधि के लिए आवश्यक अध्ययन पूरा कर लिया है," श्रद्धेय कर्मा गेलेक ने स्पष्ट किया। "उन्होंने उन सभी परीक्षाओं में भी सफलता प्राप्त की है जो इन चार वर्षों के अध्ययन काल में हुए। यद्यपि इस उपाधि में गेलुगपा अध्ययन कार्यक्रमों का अनुपालन किया जाता है, पर यह सभी तिब्बती परम्पराओं की भिक्षुणियों के लिए खुला है। इस अवसर पर डोलमा लिंग से छह भिक्षुणियाँ, पाँच जंगछुब छोलिंग से, छह जमयंग छोलिंग, एक गदेन छोलिंग से और दो कोपन, नेपाल के कछो गक्यल ने स्नातक की उपाधि प्राप्त किया।
"आगामी वर्षों में, हम गेशे-मा की उपाधि के लिए और अधिक भिक्षुणियों के समूहों के आगे आने की आशा करते हैं।"
अपने संबोधन में डॉ सिक्योंग लोबसंग सांगे ने कहा कि १९९५ में परम पावन ने सलाह दी थी कि इस तरह की एक उपाधि उपलब्ध कराई जानी चाहिए और मंत्री मंडल ने इसे साकार करने हेतु काम किया था। इसके परिणामस्वरूप और उनके स्वयं के कठोर परिश्रम के कारण बीस भिक्षुणियाँ आज गेशे-मा की उपाधि प्राप्त कर रही थीं। उन्होंने अपनी ओर से बधाई दी और आशा व्यक्त की कि नईं गेशे-मा बुद्ध की शिक्षाओं को कायम रखने और उनके प्रसार का उत्तरदायित्व लेंगी।
गदेन ठि रिनपोछे जेचुन लोबसंग तेनजिन ने कहा,
"आपने अपना अध्ययन पूरा कर लिया है और अपनी उपाधियों की आवश्यकताओं को पूरा कर लिया है। यह किस तरह हुआ? परम पावन की प्रेरणा और सलाह के परिणामस्वरूप कि भिक्षुणियों को तर्क और दर्शन के अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह एक अभूतपूर्व नवाचार है जिसके लिए हमें उन्हें धन्यवाद देना है। आपको यह उपलब्धि आपके अपने और आपके शिक्षकों के प्रयासों से ही प्राप्त हुई है। मैं जानता हूँ कि आप में से कुछ पहले से ही शिक्षकों के रूप में काम कर रही हैं। गेशे-मा के रूप में आप विश्व में बुद्ध की शिक्षाओं के फलने फूलने में सीधा योगदान देने में सक्षम होंगी। आज पाँच भिक्षुणी विहारों से भिक्षुणियाँ स्नातक बन रही हैं, पर हाल ही में दस भिक्षुणी विहारों से भिक्षुणियों ने एक वार्षिक एक महीने के लंबे शास्त्रार्थ सत्र में भाग लिया। मैं आप सब को बधाई देना और धन्यवाद करना चाहूँगा।”
प्रत्येक गेशे-मा परम पावन से अपना उपाधि प्रमाण पत्र, एक औपचारिक रेशमी दुपट्टा और नालंदा के सत्रह आचार्यों की हस्ताक्षरित तस्वीर प्राप्त करने ऊपर आईं। पूरे समूह ने उनके साथ तस्वीर के लिए पोज़ किया। उनमें से एक सदस्या ने परम पावन के प्रति आभारोक्ति का एक प्रशस्ति पत्र पढ़ा और उन्हें एक खचित प्रति अर्पित की, जो पारंपरिक अलंकृत शैली में नीले रंग पर स्वर्णिम रूप से सचित्रित और मुद्रित थी।
"हमारी गहन कृतज्ञता की स्मृति चिह्न के रूप में हम आपको यह प्रशस्ति पत्र अर्पित करते हैं," उसने कहा, "आपकी दीर्घायु और आपकी सभी कामनाओं की पूर्ति के लिए हार्दिक प्रार्थना के साथ।"
इस संबोधन को प्रारंभ करते हुए परम पावन ने टिप्पणी की:
"जैसा मैंने कल उल्लेख किया, कुछ लोग ऐसे थे, जो इस उपाधि के लिए हमारे द्वारा दिए गए शब्द गेशे-मा को लेकर इतने इच्छुक नहीं थे, पर मैंने आपको शास्त्रार्थ करते देखा है, आपने कठोर परिश्रम किया है और उच्च मानकों को प्राप्त कर लिया है। आप इस उपाधि के लिए हर तरह से योग्य हैं। मैं आपको बधाई देता हूँ।"
परम पावन ने तिब्बत की बौद्ध परम्परा, नालंदा परंपरा की बात की और कहा कि यह किस तरह शिक्षा के संदर्भ में एक सामान्य संरचना और चुने शिष्यों के समूहों से संबंधित शिक्षाओं के संदर्भ में देखा जा सकता है। गेशे और गेशे-मा द्वारा द्वारा अध्ययन किए गए शास्त्रीय ग्रंथ प्रथम श्रेणी के हैं। उन्होंने कहा कि अतीत में तिब्बती बौद्ध धर्म को लामावाद कहकर खारिज कर दिया गया था, मानों कि वे वास्तव में बुद्ध की देशनाएँ नहीं थीं। परन्तु एक और स्पष्ट समझ का अर्थ है कि आज वैज्ञानिक गंभीर रुचि ले रहे हैं, उदाहरण के लिए, यह चित्त और भावनाओं के कार्यों के बारे में क्या प्रकट कर सकते हैं।
"उस दिन," परम पावन ने जारी रखा, "मैं भिक्षुओं के एक समूह द्वारा प्रभावित हुआ जो नागार्जुन की 'मूल मध्यम कारिका' का कंठस्थ पाठ कर रहे थे। मैंने कहीं और आगे के अध्ययन की खोज में विशेषज्ञता के बारे में बात की है। आप चित्त मात्र अथवा प्रासंगिक के विचार धारा के गहन अध्ययन का चयन कर सकते हैं, अथवा दिङ्नाग और धर्मकीर्ति की रचनाओं का विशेष रूप से अध्ययन कर सकते हैं। वैकल्पिक रूप से, बेंगलुरू के निकट दलाई लामा उच्च शिक्षा संस्थान ने मैसूर विश्वविद्यालय के साथ मिलकर हाल ही में पीएचडी कार्यक्रम आरंभ की घोषणा की है जिसमें आप प्रवेश ले सकते हैं।"
परम पावन ने साधारणतया नेतृत्व के विषय में और किस तरह पहले के ज़माने में शारीरिक शक्ति की आवश्यकता का अर्थ निकला कि समाज में पुरुष प्रमुख बन गए। उन्होंने कहा कि शिक्षा ने समानता के लिए एक और अधिक क्षमता की पहल की है और आज विश्व में अधिक महिला नेतृत्व की आवश्यकता पर बल दिया।
मध्याह्न में, परम पावन कुछ समय के लिए शिवाछो पुस्तकालय गए जहाँ उन्होंने बच्चों के एक समूह को विभिन्न तरह की पुस्तकों का आनंद लेते हुए पाया। वे कुछ एक के साथ बैठे और उनसे उन्हें बताने के लिए कहा कि वे क्या पढ़ रहे थे।
केंद्रीय तिब्बती विद्यालय, मुंडगोड की ५०वीं वर्षगांठ मनाने के एक समारोह में पूर्व छात्र अध्यक्ष डॉ नमज्ञल ख्युसर ने घोषणा की कि समारोह के आयोजन का उद्देश्य परम पावन को उनकी दृष्टि और भारतीय अधिकारियों और तिब्बती प्रशासन को उसकी परिपूर्ति के लिए आभार व्यक्त करने का था।
स्कूल के वर्तमान छात्र और पूर्व छात्रों के समूह ने एक भावप्रवण बांसुरी और ड्रम बैंड के संगीत पर मार्च किया। तिब्बती और भारतीय राष्ट्रगान बजाए गए। प्रधानाचार्य सी रवीन्द्रन, शिक्षा मंत्री ङोडुब छेरिंग और सिक्योंग डॉ लोबसंग सांगे ने जनमानस को संबोधित किया। सिक्योंग ने टिप्पणी की, कि कहा जाता है कि विश्व में ६० लाख शरणार्थी हैं, पर जिस तरह से उन्होंने अपने बच्चों के लिए अद्वितीय शैक्षिक अवसरों का निर्माण किया है, उस दृष्टि से तिब्बतियों की तरह कोई अन्य नहीं है।
परम पावन ने इस विषय को उठाया और उल्लेख किया कि वे इस अवसर पर बैनर पर नेहरू का चित्र देख कर खुश थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि निर्वासन के प्रारंभिक दिनों में नेहरू ने तिब्बती स्कूलों और भारत में शिक्षा के गठन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने तिब्बतियों को कड़े लोगों के रूप में संदर्भित किया जिनकी भावना निडर बनी रहती है। उन्होंने स्मरण किया कि स्कूल की स्थापना के प्रारंभिक दिनों में तिब्बतियों ने सोचा था कि तिब्बत की समस्याओं का शीघ्र समाधान होगा और वे शीघ्र ही वापस लौट जाएँगे। उन्होंने दोहराया कि निर्वासन में तिब्बतियों का एक उत्तरदायित्व बनता है कि वे तिब्बत में अपने भाइयों और बहनों के समर्थन में बात करें।
"आज आप स्कूल के बच्चे," उन्होंने आग्रह किया, "तिब्बत के भविष्य के बीज हैं।"
गदेन लाची महाविहार में उनके पारम्परिक स्वागत के बाद परम पावन ने समृद्ध नालंदा परम्परा की प्रशंसा की, जिसे तिब्बतियों ने जीवित रखा है और भोट भाषा जो इसे शतशः अभिव्यक्त करने के लिए अनुकूल है। यह उन्होंने कहा, वास्तविक रूप से गौरव के योग्य है।
परम पावन ने धीरे से अपने मेजबानों को वर्षों पहले के अवसर का स्मरण कराया, जब वे गदेन शरचे महाविहार में ठहरे हुए थे और एक स्वप्न ने उन्हें रक्षक प्रार्थना कक्ष, जहां वे उसी समय गए थे, से तत्काल ही दोलज्ञल की मूर्ति को हटाने की सिफारिश के लिए प्रेरित किया था। उन्होंने उसी दिन बाद में लिंग रिनपोछे के साथ उनके घर में मध्याह्न के भोजन के लिए जाने को और उन्हें जो किया था उसे समझाने को याद किया। लिंग रिनपोछे ने उनसे कहा कि यह ठीक था।
कल परम पावन १४१९ में जे चोंखापा के देहांत की स्मृति में गदेन ङाछो- पच्चीसवें प्रार्थनाओं के गदेन समर्पण में सम्मिलित होंगे।