बेंगलुरू, कर्नाटक, भारत - आज भोर होते ही जब परम पावन दलाई लामा, दलाई लामा इंस्टिट्यूट ऑफ हायर स्टडीज (दलाई लामा उच्च अध्ययन संस्थान) में आए तो विगत कुछ दिनों के चक्रवात प्रभावित मौसम ठीक होने लगा था ।
जब अन्य अतिथियों का भी आगमन हुआ तो वे उनके साथ उस स्थान पर गए जहाँ समारोह का फीता बंधा हुआ था। उनके मंगल छंदों के जाप में ग्यूमे तांत्रिक महाविद्यालय के भिक्षुओं के सहयोग के साथ, परम पावन ने कर्नाटक के गृह मंत्री डॉ जी परमेश्वर और मैसूर के कुलपति के एस रंगप्पा ने फीता काटने में और प्रतीकात्मक रूप से संस्थान का उद्घाटन करने में साथ दिया।
तत्पश्चात सभी ने उनके समक्ष के घास के ढलान पर छात्रों और कर्मचारियों के सामने मंच पर अपना स्थान ग्रहण किया। जब पूर्वी तिब्बत के एक युवक ने घुमावदार तिब्बती घास के मैदानों की उन्मुक्तता और स्वतंत्रता का आह्वान करते हुए हृदयस्पर्शी पारम्परिक स्वर में गीत गाया तो हर किसी का ध्यान आकर्षित हुआ।
संस्थान के प्राचार्या डॉ बी छेरिंग ने सर्वप्रथम संबोधन किया, यह समझाते हुए कि इसका एक उद्देश्य सक्षम तथा योग्य नेता बनने के लिए लोगों को प्रशिक्षित करना था। उन्होंने कहा कि दलाई लामा ट्रस्ट से बीज राशि द्वारा प्रारंभिक स्थापना संभव हो पाई थी जिससे अन्य मित्र आगे समर्थन देने के लिए आकर्षित हुए। उन्होंने स्पष्ट किया कि संस्थान में प्रवेश तिब्बतियों के साथ स्थानीय भारतीय छात्रों के लिए भी खुला था।
उन्होंने समझाया कि २०१३ के बाद से, संस्थान को मैसूर विश्वविद्यालय का सशक्त और सक्रिय समर्थन मिला है पर जो अनूठा था वह यह कि संस्थान भोट भाषा में कार्य जारी रखने की क्षमता रखता है। वास्तव में छात्र न केवल भोट और अंग्रेजी भाषा और साहित्य का अध्ययन कर सकते हैं, परन्तु चीनी भाषा और साहित्य में भी संलग्न हो सकते हैं। चीनी भाषा के पाठ्यक्रमों की शिक्षा ताइवान के स्वयंसेवकों द्वारा दी जाती है।
उनके शैक्षिक लक्ष्यों के अतिरिक्त, सार्वभौमिक मूल्यों के विकास, सामुदायिक कार्यों में संलग्नता और दूसरों के कल्याण के लिए उत्तरदायित्व की भावना दिखाने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए सक्रिय कदम उठाए गए हैं।
प्राचार्या ने हर्ष के साथ यह घोषित किया कि एक शोध केंद्र की स्थापना के अनुरोध को दो दिन पहले स्वीकृति प्राप्त हुई जिसके परिणामस्वरूप तिब्बती अध्ययन में पीएचडी और परास्नातक कार्यक्रमों आगे ले जाए जा सकते हैं। उन्होंने आभार अभिव्यक्त करते हुए समाप्त किया कि संस्थान में उत्कृष्ट आधारभूत सुविधाएँ हैं और एक समर्पित युवा संकाय है।
दावा नावा ने भोट भाषा में निर्माण कार्य की प्रगति पर एक रिपोर्ट रखी।
मैसूर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर के एस रंगप्पा ने घोषणा की, कि इस तरह के एक विशिष्ट संस्थान के उद्घाटन के शुभ अवसर पर भाग लेना एक वरदान था। उन्होंने कहा कि उनकी शैक्षिक आकांक्षाओं के अतिरिक्त छात्र जीने की कला और विज्ञान का अध्ययन करने में भी सक्षम हो सकेंगे। उन्होंने तिब्बती संस्कृति और भोट भाषा के संरक्षण के महत्व पर बल दिया।
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन में शिक्षा मंत्री ङोडुब छेरिंग ने भोट भाषा में बोलते हुए समकालीन तिब्बती शिक्षा प्रणाली में आकांक्षाओं और कमियों का एक भावप्रवण वक्तव्य दिया जिसका अनुवाद नहीं किया गया। वे तिब्बतियों की शिक्षा के लिए भारत सरकार और कर्नाटक सरकार के लंबे समय से चली आ रहे, उदार और लगातार समर्थन के लिए दोनों को धन्यवाद देने से नहीं चूके।
डॉ जी परमेश्वर ने घोषणा करते हुए कि वे कर्नाटक सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं, सभी गणमान्य व्यक्तियों, सह अतिथियों और छात्रों का अभिनन्दन किया और मुख्यमंत्री की शुभेच्छाएँ संप्रेषित कीं। उन्होंने स्मरण किया कि जब परम पावन १९५९ में भारत आए, जबकि उनके पास जाने के लिए कोई अन्य स्थान न था, कर्नाटक ने सहयोग प्रस्तुत किया था। बाद में २००९ में वे परम पावन द्वारा संस्थान की आधारशिला रखने में सम्मिलित हुए और उस समय से अब जो विकास हुआ है उसे मनाने में वे साथ हैं। यह कहते हुए कि शिक्षा व्यक्ति और समाज दोनों के विकास के लिए एक उपकरण है, उन्होंने छात्रों और कर्मचारियों को एक बार पुनः आश्वस्त किया कि कर्नाटक सरकार उनके साथ है।
परम पावन ने इस उद्घाटन के शुभ अवसर पर सभी उपस्थित लोगों का अभिनन्दन करते हुए प्रारंभ किया। उन्होंने पूर्व वक्ताओं के प्रति भी उनके रिपोर्ट और सलाह के लिए आभार व्यक्त किया।
"मैं प्रथम बार १९५६ में कर्नाटक आया था," उन्होंने कहा, "और उस समय भी श्री निजलिंगप्पा ने तिब्बत में जो हो रहा था उस संबंध में सच्ची चिंता जताई थी। १९५९ में जब हमने भारत में पलायन किया तो वे सभी मुख्यमंत्रियों में से सबसे उदार थे जिन्होंने तिब्बती शरणार्थियों को आवासित करने के लिए प्रधानमंत्री नेहरू की याचिका का उत्तर दिया था। इन वर्षों में जिस तरह कर्नाटक सरकार ने उसी भावना को बनाए रखते हुए हमें लगातार समर्थन दिया है, मैं वास्तव में उसकी सराहना करता हूँ।
"जब हम निर्वासन में आए तो हमारी प्राथमिकता हमारी अस्मिता, भाषा और संस्कृति का संरक्षण थी। इसी प्रकार इन दिनों, जब तिब्बत में तिब्बती अपनी संस्कृति को संरक्षित करने की प्रबल भावना प्रकट करते हैं तो कट्टरपंथी उसे उनके 'अलगाववादी' उद्देश्यों के संकेत के रूप में उसका विरोध करते हैं। प्रतिबंधों के बावजूद तिब्बतियों की भावना दृढ़ बनी हुई है।
"भारत और तिब्बत के बीच संबंधों को गुरु और चेला या गुरु और शिष्य का रूप दिया गया है। जब हम सोचते हैं कि हमें भारत से क्या प्राप्त हुआ है तो हम अत्यंत निकटता का अनुभव करते हैं। निस्सन्देह भारतीय शिव की भक्ति करते हैं, पर जबकि उनका निवास तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर है, बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध और उनके बाद के सभी आचार्य भारतीय थे। और तो और गंगा नदी, जो भारत के लिए इतनी पवित्र है, का स्रोत तिब्बत में है।"
परम पावन ने भारत और तिब्बत में पाँच महाविद्या स्थानों और पाँच लघु विद्या स्थानों को कायम रखने के महत्व पर टिप्पणी की, जिनमें वे चित्त और भावनाओं के कार्य की गणना करते हैं। उन्होंने कहा कि एक ऐसा विश्व जहाँ कई समस्याएँ जिनका सामना हम कर रहे हैं हमारी अपनी निर्मित हैं, तो हमें उन विनाशकारी भावनाओं से निपटने की आवश्यकता है जो उन्हें प्रेरित करती हैं। इसके लिए चित्त और भावनाओं के प्रकार्य से परिचित होना आवश्यक है। चूँकि आवश्यक निर्देश भोट भाषा में स्पष्ट रूप से और सही ढंग से उपलब्ध हैं, अतः भाषा का संरक्षण महत्वपूर्ण है। उन्होंने कारण और तर्क को काम में लाने पर भी बल दिया जो मात्र तिब्बती बौद्ध परम्परा में पाई जाती है। स्वयं बुद्ध ने सलाह दी:
हे भिक्षुओं और विद्वानों,
जिस तरह स्वर्ण जला कर, काट कर और रगड़ कर परखा जाता है,
मेरे शब्दों को अच्छी तरह से परखो
और तभी उन्हें स्वीकारो - केवल मेरे प्रति गौरव के कारण नहीं।
परम पावन ने चार प्रतिशरणों की भी सराहना की, जो बौद्ध परीक्षण का मार्गदर्शन करते हैं: व्यक्ति की नहीं पर उनके शब्दों का प्रतिशरण, शब्दों का नहीं पर उनके अर्थ का प्रतिशरण; नेयार्थ का नहीं पर नीतार्थ का प्रतिशरण; और विज्ञान का नहीं परन्तु ज्ञान का प्रतिशरण। उन्होंने कहा यह नालंदा परंपरा है।
"६० के दशक में, जैसा मैंने कहा, हम मात्र अपनी परम्पराओं को बनाए रखने के प्रति चिन्तित थे," परम पावन ने दोहराया। "अब हम दूसरों के साथ प्राचीन भारतीय ज्ञान का लाभ साझा करते हुए मानवता की सेवा कर सकते हैं। यह आप जैसे कुछ युवा लोग, जो आज अध्ययन कर रहे हैं, कर सकते हैं। केवल तिब्बतियों के हितों की नहीं अपितु सम्पूर्ण मानवता के विषय में सोचें। हम नियमित रूप से सभी सत्वों के कल्याणार्थ प्रार्थना करते हैं, और जहाँ ब्रह्मांड के अन्य भागों में विभिन्न प्रकार के प्राणी हो सकते हैं, पर आज जीवित ७ अरब मनुष्य ऐसे हैं जिनके साथ हम संलग्न हो सकते हैं।"
एक व्यापक धन्यवाद ज्ञापन के पश्चात मध्याह्न का भोजन हुआ।
परम पावन बेंगलुरू के लिए रवाना होने से पहले, तिब्बती चिकित्सा संस्थान की एक शाखा के लिए पास ही निर्धारित भूमि देखने गए। उन्होंने आधार शिला का अनावरण किया और मंगल छंदों का सस्वर पाठ किया। तिब्बती चिकित्सा परम्परा में उनकी रुचि के लिए उपस्थित मित्रों और प्रायोजकों को धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि तिब्बत में, जब इतना कुछ और नष्ट किया जा रहा था, इसका बचा रहना उसके मूल्य का द्योतक था। चीनी अधिकारी तिब्बती चिकित्सकों से परामर्श लेते हैं और तिब्बती औषधि लेते हैं।
"चूँकि तिब्बती चिकित्सा ने अतीत में आयुर्वेद, यूनानी प्रणाली और चीनी दवा जैसे कई प्रभावों को आत्मसात किया है, यह उचित है कि अब इसे आधुनिक विज्ञान के प्रति भी उन्मुक्ततता रखनी चाहिए," परम पावन ने कहा। "केवल तिब्बती चिकित्सा ही नहीं हैं जिसके द्वारा तिब्बती दूसरों के हित के लिए योगदान दे सकते हैं, यह दिखाता है कि चीनी कट्टरपंथी सोचें, तिब्बती इतने पिछड़े नहीं थे।"