परम पावन 14 वें दलाई लामा
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मैसूर विश्वविद्यालय के ९७वां दीक्षांत समारोह में प्रतिभागी १३/दिसम्बर/२०१६

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मैसूरु, कर्नाटक, भारत - कल प्रातः परम पावन दलाई लामा भोर की उड़ान से दिल्ली से बंगलुरू के लिए रवाना हुए, जहाँ से उन्होंने मैसूरु के लिए उड़ान भरी। आगमन पर स्थानीय उपायुक्त एवं जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक, साथ ही उपाध्यायों, कल्याण अधिकारी और मुंडगोड से तिब्बती संसद के सदस्यों ने उनका स्वागत किया। जब वे अपने होटल पहुँचे तो सैकड़ों तिब्बतियों के बीच, जो उनके स्वागत के लिए एकत्रित हुए थे, स्कूली बच्चों के एक समूह ने उनके सम्मान में 'टाशी शोलपा' नृत्य का प्रदर्शन किया।

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आज प्रातः चक्रवात वरदा के परिणामस्वरूप सब जगह हो रही बूंदा बांदी से घिरे शहर में बाहर निकलने से पूर्व परम पावन ने 'स्टार ऑफ मैसूर' के दिग्गज पत्रकार एन निरंजन निकम को एक साक्षात्कार दिया। उन्होंने निकम को बताया कि वे पहले बार १९५६ में भारत की यात्रा के दौरान २५००वीं बुद्ध जयंती समारोह में भाग लेने के लिए मैसूर आए थे। एक समारोहीय मध्याह्न भोज के दौरान मैसूर राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री, एस निजलिंगप्पा ने उनसे कहा कि वह तिब्बत की स्वतंत्रता का समर्थन करते हैं।

अंततः १९५९ में भारत में उनके पलायन और उसके बाद १५,००० तिब्बतियों द्वारा उनका अनुपालन करने के बाद भारत सरकार से भूमि के लिए अनुरोध किया गया जहाँ वे बस सकते थे। पंडित नेहरू ने इस अनुरोध के साथ देश के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा और निजलिंगप्पा का उत्तर तब तक का सबसे उदार उत्तर था। परिणामस्वरूप सम्प्रति ४०- ५०,००० तिब्बती कर्नाटक में रहते हैं, पर उससे अधिक महत्वपूर्ण, परम पावन ने कहा, कि तिब्बत के प्रमुख विहारीय विश्वविद्यालयों की भी यहाँ पुनर्स्थापना हुई है।

निकम ने परम पावन से पूछा कि उनके विचार में आधुनिक शिक्षा में क्या त्रुटि है। परम पावन ने उन्हें बताया कि चूँकि यह प्राथमिक रूप से भौतिक लक्ष्योन्मुख है, अतः इसमें आंतरिक मूल्यों और नैतिक सिद्धांतों के लिए बहुत कम स्थान है। उन्होंने कहा कि आज कल की कई समस्याएँ, जो हमारी अपनी बनाई हुई हैं और जिनका हमें सामना करना पड़ रहा है, को अततः अंततः नैतिक सिद्धांतों के इस अभाव के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। उन्होंने सुझाव दिया कि हम सौहार्दता के विकास से इसकी आपूर्ति कर सकते हैं।

"वैज्ञानिकों को प्रमाण मिले हैं कि आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है," उन्होंने कहा, "जो कि आशा का एक स्रोत है। अतः शिक्षा का एक प्रकार्य इसे सशक्त करना होना चाहिए।"

परम पावन ने निकम के लिए स्पष्ट किया कि १९७४ के बाद से उनका लक्ष्य तिब्बत की स्वतंत्रता नहीं है, परन्तु उन अधिकारों पर बल देना है जिनका उल्लेख चीनी संविधान और '१७ सूत्रीय समझौता' में हुआ है।

"कभी कभी चीजें और अधिक आशावान प्रतीत होती हैं और अन्य समयों में कम।" उन्होंने टिप्पणी की, कि "हूयोबंग के नेतृत्व में आशा थी, परन्तु उन्हें सहारा नहीं मिला। इस समय कोई सीधा संपर्क नहीं है, पर तिब्बत में तिब्बतियों की भावना सशक्त बनी हुई है। यहाँ तक कि युवा पीढ़ी के लोग भी अद्भुत रूप से लचीले हैं। एक बार तिब्बती मुद्दे का समाधान हो जाए तो ताइवान, हांगकांग और जो चीनी शिनजियांग कहते हैं, वे और अधिक सरलता से संबोधित किए जा सकते हैं और चीन की अंतरराष्ट्रीय छवि में सुधार होगा।"

यह टिप्पणी करते हुए कि परम पावन ने विश्व भर में एक बड़ी संख्या में जाने माने लोगों से भेंट की है, निकम ने पूछा कि किसने उन्हें सबसे अधिक प्रभावित किया था। परम पावन ने तनिक विराम लिया और फिर भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद का उल्लेख किया, जिनकी उनके उच्च पद के बावजूद उनकी विनम्रता और प्रामाणिक आध्यात्मिक प्रवृत्ति के कारण वे उनके प्रशंसक थे और साथ ही नेहरू, निजलिंगप्पा और, अभी हाल के राष्ट्रपति ओबामा की भी सराहना की।

मैसूर के गीली सड़कों से होते हुए एक अपेक्षाकृत छोटी ड्राइव के बाद परम पावन मैसूर विश्वविद्यालय पहुँचे। कुलपति के एस रंगप्पा ने उनका स्वागत किया और कर्नाटक पुलिस ब्रास बैंड के उत्साहपूर्ण धुन पर उनका अपने कार्यालय तक अनुरक्षण किया। प्रो-चांसलर, उच्च शिक्षा मंत्री बासवराज रायरेड्डी तथा उनका परिवार, और कुलाधिपति और कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई रुदाभाई वाला उनके साथ सम्मिलित हुए। एक बार जब उचित रूप से उन सभी ने चोगा धारण कर लिया तो वे जुलूस रूप में क्रॉफर्ड सभागार गए और मंच पर अपना अपना स्थान ग्रहण किया।

सब कोई खड़े हो गए जब कर्नाटक पुलिस बैंड ने राष्ट्रीय गान का वादन किया, जिसके बाद ललित कला कॉलेज के छात्रों ने कर्नाटक राज्य गान, नाद गीते गाया।

कुलपति रंगप्पा ने समझाया कि अपने शताब्दी वर्ष में यह मैसूर विश्वविद्यालय का ९७वां दीक्षांत समारोह था। इस विश्वविद्यालय पर उत्कृष्टता की प्रशंसा की बौछार हुई है, जहाँ इस वर्ष २४,००० स्नातक निकल रहे हैं; जिनमें महिलाओं का आधिक्य है। साहित्य का मानद डॉक्टरेट परम पावन और श्रीमती प्रमोदा देवी वोडेयार को प्रदान किया गया, जो मैसूर के पूर्व राजसी परिवार के आखिरी वारिस की विधवा के रूप में, विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप में माने जाने वाले महाराजा की एक कड़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं।

दीक्षांत समारोह को संबोधित करने के लिए आह्वान किए जाने पर, परम पावन ने अपने साथी गणमान्य व्यक्तियों और अन्य अतिथियों के प्रति उचित सम्मान व्यक्त किया, पर साथ ही कहाः

"साधारणतया मैं अपने भाइयों और बहनों का अभिनन्दन करते हुए प्रारंभ करना पसंद करता हूँ, जो मैं मानता हूँ कि हम सब हैं। आज इस ग्रह के सभी ७ अरब मनुष्य शारीरिक रूप से मानसिक रूप से और भावनात्मक रूप से एक समान हैं। हमें यह पहचानने की आवश्यकता है, फिर चाहे हमारी राष्ट्रीयता, रंग, पृष्ठभूमि या स्थिति कुछ भी हो। हमारे समक्ष की कई समस्याएँ हमारे बीच मात्र ऐसे अंतर पर केन्द्रित होने के कारण आती हैं। उन पर काबू पाने का एक ही उपाय यह देखना है, कि हम समान हैं। हम सभी सुखी होना चाहते हैं और यह हमारा अधिकार है।

"मैं देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक के इस दीक्षांत समारोह में भाग लेते हुए खुश तथा सम्मानित हूँ। मेरा कर्नाटक के साथ एक विशेष जुड़ाव स्नेह भाव है, जो निजलिंगप्पा की मैत्री और तिब्बतियों के प्रति उदारता तक जाता है।

"मैं अपना आभार भी व्यक्त करना चाहता हूँ कि आपने मुझे यह मानद उपाधि प्रदान किया है, जो आज मुझे बिना कुछ अर्जित किए प्राप्त हुई है, जबकि आज के अधिकांश स्नातकों ने अपनी उपाधियाँ प्राप्त करने के लिए बहुत परिश्रम किया है। आपकी इस एक घड़ी के उपहार के लिए भी धन्यवाद, यह मुझे उस जेब घड़ी का स्मरण कराती है जो मुझे राष्ट्रपति रूजवेल्ट से प्राप्त हुई थी, जब मैं एक छोटा बालक था।"

परम पावन ने आगे कहा कि हम आज नैतिक सिद्धांतों के एक संकट का सामना कर रहे हैं। जहाँ सभी धार्मिक परंपराओं में नैतिक सिद्धांतों को प्रोत्साहित करने की क्षमता है, आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में १ अरब लोगों की धर्म में कोई रुचि नहीं है और अन्य ६ अरब लोगों में से कई इसे गंभीरता से नहीं लेते। परिणामतः, उन्होंने कहा, हमें नैतिक सिद्धांतों को विकसित करने की एक अधिक व्यापक और समावेशी दृष्टिकोण खोजने की आवश्यकता है। उन्होंने पूछा कि क्या यह प्रार्थना के माध्यम से किया जा सकता है, परन्तु शंका व्यक्त की और निष्कर्ष में कहा कि यह मात्र शिक्षा के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

उन्होंने इंगित किया कि भारत ने पारम्परिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण विकसित किया है, जो सभी धार्मिक परम्पराओं को सम्मान प्रदान करता है, यहाँ तक कि गैर विश्वासियों के दृष्टिकोण को भी सम्मान देता है। उन्होंने आगे कहा, नैतिक सिद्धांतों को बढ़ावा देने के लिए इस तरह के एक दृष्टिकोण की जरूरत है, जो सामान्य ज्ञान, सामान्य अनुभव और वैज्ञानिक निष्कर्षों पर आधारित हो।

"जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है," परम पावन ने स्पष्ट किया, "वह सौहार्दता और दूसरों के प्रति चिंता है। हम सामाजिक प्राणी हैं, हम जीवित रहने के लिए दूसरों पर निर्भर होते हैं, तो हमारे लिए उनके प्रति चिंतित होना मायने रखता है। आजकल संयुक्त राज्य अमरीका, यूरोप और यहाँ भारत में लोग सार्वभौमिक मूल्यों की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण विकसित करने की दिशा में व्यावहारिक कदम उठा रहे हैं।

"मैं प्रायः अपने भारतीय मित्रों से भी कहता हूँ कि इस देश में आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी ज्ञान और विकास को प्राचीन भारतीय ज्ञान में पाई जाने वाली प्रज्ञा के साथ जोड़ने की क्षमता है। चित्त के विज्ञान का दर्शन जो हमें भारत से प्राप्त हुआ उसे हम तिब्बतियों ने जीवित रखा है परन्तु यह आप की धरोहर है।

"आप में से कइयों के लिए जिन्होंने आज स्नातक की उपाधि प्राप्त की है, वास्तविक जीवन अब प्रारंभ होता है। आप ने पहले ही सिद्ध कर दिया है कि आपका मस्तिष्क तेज़ है, पर यदि आप सफलता चाहते हैं तो आप को सौहार्दता और दूसरों के कल्याण के लिए चिंता की भी आवश्यकता होगी। आप जो भी करें उसमें ये गुण ईमानदारी और पारदर्शिता लाएँगे, जो दूसरों का विश्वास और मैत्री अर्जित करेगा, जिससे आप अपनी शिक्षा का सार्थक उपयोग करने में सक्षम होंगे। धन्यवाद।"

कुलाधिपति ने दीक्षांत समारोह का समापन घोषित किया।

परम पावन को कुलपति के आवास पर मध्याह्न के भोजन के लिए आमंत्रित किया गया, जहाँ वे विश्वविद्यालय के वरिष्ठ सदस्यों और दीक्षांत समारोह के अन्य अतिथियों के साथ उल्लास भरी बातचीत कर पाए। तत्पश्चात जब बारिश हल्की हुई तो वे अपने होटल लौट आए। कल वह बंगलुरू के लिए गाड़ी से रवाना होंगे।

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