परम पावन 14 वें दलाई लामा
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दिल्ली में रूसियों के लिए प्रवचन प्रारंभ २५/दिसम्बर/२०१६

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दिल्ली, भारत - कल, हिमालयीन क्षेत्रों और अन्य स्थानों से तिब्बती मुंडगोड के गदेन महाविहार के चारों ओर के मार्गों में पंक्तिबद्ध होकर परम पावन दलाई लामा को विदाई देने खड़े थे। उपाध्याय और पूर्व उपाध्याय उनके साथ हवाई अड्डे तक गए। उन्होंने हुबली से दिल्ली के लिए उड़ान भरी और मध्याह्न भोजन समय तक पहुँच गए।

आज, रूसियों द्वारा अनुरोध किए गए तीन दिनों के प्रवचनों को प्रारंभ करने से पहले परम पावन ने पहले एक प्रमुख रूसी समाचार एजेंसी, लेंटा रु को साक्षात्कार दिया।

पाश्चत्य विश्व में हो रहे परिवर्तनों के एक परिणाम के रूप में हम क्या आशा कर सकते हैं, के साथ प्रश्न प्रारंभ हुए। परम पावन ने कहा कि पाश्चत्य विश्व एक समग्र रूप में विश्व का अंग है जैसा कि रूस है। लोग मनुष्य ही होते हैं और जब अन्य मर रहे हैं, भुखमरी से अथवा हत्या के कारण कुछ अनुभव होना एक आम मनुष्य का अनुभव है।

"विगत शताब्दी ने बहुत युद्ध देखा। २०वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शीत युद्ध जारी था, पर वह एक गर्म युद्ध से बेहतर था। मैं यूरोपीय संघ की भावना का प्रशंसक हूँ जहाँ पूर्व वैरी फ्रांस और जर्मनी ने कलह को दूर किया है और यूरोपीय संघ विकसित कर मित्र के रूप में एक साथ काम कर रहे हैं। संघ आपसी सम्मान पर आधारित होता है। सोवियत संघ ढह गया क्योंकि वह अधिनायकवादी था, यूरोपीय संघ लोकतंत्र के कारण सफल है।"

यह पूछे जाने पर कि क्या वे सोचते हैं कि हम भविष्य में एक अधिक शांति के युग की कल्पना कर सकते हैं, परम पावन ने उत्तर दिया कि कोई अन्य विकल्प नहीं है। उन्होंने कहा कि यदि युद्ध परमाणु युद्ध में बढ़ गया तो हर किसी को पीड़ा झेलनी होगी। कौन सा ऐसा समझदार व्यक्ति होगा जो यह चाहेगा? इस प्रश्न पर ज़ोर देकर पूछने पर कि एक हिंसक विश्व में किस तरह अहिंसक हुआ जाए, उन्होंने उत्तर दिया :

"सामान्य ज्ञान को काम में लाएँ और एक व्यापक दृष्टिकोण से वस्तुओं को देखें। हिंसा क्रोध और घृणा से संबद्धित है। क्रोध वस्तुओं को स्पष्ट रूप से देखने की हमारी क्षमता को धुंधला कर देता है, और हमें कार्यों के अवास्तविक ढंग का पालन करने की ओर ले जाता है। समस्याओं को सदैव समझकर और संवाद के माध्यम से बेहतर रूप से हल किया जा सकता है। हमें क्रोध को गौरव प्रदान करने से बचना चाहिए - जो क्रोधित हैं उन का पक्ष लेना मूढ़ता है।"

रूसी एसटीएस टीवी चैनल के थूवा शाखा की महिला संवाददाता ने पूछा कि थूवा को किस तरह अपनी संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए। परम पावन ने उनसे कहा कि भाषा का संरक्षण महत्वपूर्ण था। उसकी बौद्ध संस्कृति के विषय में, वह तिब्बती बौद्ध धर्म की तरह यह नालंदा परम्परा से उद्भूत है। इसे जीवित रखने के लिए मात्र विश्वास से कुछ अधिक की आवश्यकता है, इसके लिए समझ आवश्यक है। परम पावन ने अनुयायियों को नियमित रूप से देनी वाली सलाह दोहराई - २१वीं सदी के बौद्ध बनें।

"अध्ययन करें - बौद्ध विचारों का एक पूर्ण ज्ञान विकसित करें, यह भावना कि दृश्य तथा यथार्थ के बीच एक अंतर है तथा चित्त और भावनाओं के कार्यों का विस्तृत विवरण।"

प्रवचन सभागार की १२५० से अधिक संख्या में जनमानस में प्रत्याशा की एक उत्तेजना सी दिखाई दी जब परम पावन आए। गलियारे में बाहर प्रतिनिधियों ने अपने हाथों में श्वेत स्कार्फ के साथ स्वागत किया, और 'मिग-चे -मा' प्रार्थना का पाठ किया। वे अधिकतर कलमिकिया, बुर्यातिया, थूवा और मंगोलिया, साथ ही रूस सीआईएस, रूस, यूक्रेन और कज़ाकिस्तान देशों से आए थे।

"आज, हम यहाँ रूस से लोगों के शिक्षण के अनुरोध पर एकत्रित हुए हैं" परम पावन ने की घोषणा की। "जब मैं बच्चा था तो हमारे महाविहारों में कलमिकिया, बुर्यातिया और थूवा से कई प्रख्यात विद्वान थे। अब इन स्थानों और मंगोलिया से ५०० छात्र हैं जो दक्षिण भारत के महाविहारों में अध्ययन कर रहे हैं।

"नालंदा परम्परा जिसका हम पालन करते हैं, समझाता है कि हम किस तरह अपने चित्त को उनकी नकारात्मक भावनाओं और संस्कारों से विशुद्ध कर तथा अंतर्दृष्टि प्राप्त कर - आधार, मार्ग और फल, परिवर्तित कर सकते हैं।

बुद्ध पाप को जल से धोते नहीं,
न ही जगत के दुःखों को अपने हाथों से हटाते हैं;
न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थान्तरण करते हैं;
वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं।

"दूसरे शब्दों में, वे आधार, मार्ग और फल प्रस्तुत करते हैं। शिक्षाओं का विश्लेषण करने के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग करें। करुणा और बुद्धि के साथ दृढ़ता विकसित करें और आपने अपने जीवन में जो समझा है, उसे व्यवहार में लाएँ।"

परम पावन ने सूचित किया वह ३० वर्षों से अधिक समय से वैज्ञानिकों के साथ विचार-विमर्श कर रहे हैं। परन्तु अब भिक्षु हैं जो स्वयं सम्पन्न हैं और ऐसी चर्चाओं में भी बौद्ध दृष्टिकोण को व्याख्यायित करने में सक्षम हैं, जैसा कि कुछ दिनों पहले डेपुंग में एमोरी - तिब्बत संगोष्ठी में प्रकट हुआ। उन्होंने घोषणा की, कि वे प्रभावित हुए थे।

परम पावन ने टिप्पणी की कि बौद्ध साधारणतया सभी मातृ सत्वों के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं, पर जोर देकर कहा कि यदि इस तरह की प्रार्थनाओं में किसी तरह की सार्थकता के लिए उसका कार्यान्वयन होना चाहिए। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इस धरती पर हम लोगों के साथ रहते हैं, जिनके लिए हम कुछ कर सकते हैं।

उन्होंने एक प्रयोग का वर्णन किया जिसे उन्होंने देखा है जो शिशुओं द्वारा बच्चों के एक दूसरे की सहायता करते चित्र को देखकर उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया को प्रकट करता है। वे इसी तरह के चित्र जिसमें बच्चे एक दूसरे के बाधक होते हैं और उन्हें रोकते हैं, को देखकर शंकाकुल हो बैठते हैं। बच्चों की इन प्रतिक्रियाओं को देख, जो इतने छोटे हैं कि उन्होंने अभी बोलना भी प्रारंभ नहीं किया, वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि मानव प्रकृति अनिवार्य रूप से सकारात्मक और करुणाशील है। उन्होंने कहा कि यह समकालीन शिक्षा की अपर्याप्तता का एक संकेत है कि यह इसे बनाए रखने और इस आवश्यक सद्प्रकृति को विकसित करने में विफल रही है। उन्होंने स्कूलों के लिए एक मसौदा पाठ्यक्रम, जो कि विकासगत है जो इस असंतुलन को दूर करने का उद्देश्य रखती है, का उल्लेख किया।

विश्व के धर्मों के बीच सद्भाव और सम्मान के महत्व का उल्लेख करते हुए परम पावन ने उनकी विविधता और विभिन्न बौद्ध परम्पराओं और यहाँ तक कि तिब्बती बौद्ध धर्म के विभिन्न परम्पराओं के बीच तुलना की। विविधता आवश्यकता, समय और परिस्थितियों के अंतर से उद्भूत होती है। उन्होंने पुष्टि की कि यद्यपि उन्होंने तिब्बती राजनीतिक मामलों के उत्तरदायित्व से संन्यास ले लिया है, पर वे वह प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण और भोट भाषा, संस्कृति और धर्म को जीवित रखने के लिए समर्पित बने हुए हैं।

'बोधिसत्वचर्यावतार' की अपनी प्रति लेते हुए परम पावन ने कहा कि उन्होंने इसकी व्याख्या एक अनोखे विद्वान और अभ्यासी खुनु लामा तेनजिन ज्ञलछेन से सुनी थी। खुनु लामा ने परम पावन से कहा था कि वह जितने लोगों को सिखा सकें, सिखाएँ, ऐसा अनुरोध जिसे पूरा करने के लिए परम पावन समर्पित हैं। खुनु लामा रिनपोछे ने उन्हें बताया कि जब से ८वीं शताब्दी ईस्वी में शांतिदेव द्वारा इसकी रचना की गई, तब से बोधिचित्तोत्पाद से महान कोई ग्रंथ नहीं है।

परम पावन ने ध्यानाकर्षित किया कि बोधिचित्त पर अध्याय छह और आठ सबसे महत्वपूर्ण अध्याय हैं जबकि अध्याय नौ का संबंध प्रज्ञा से है।

किसी ऐसे की अनुपस्थिति में जो पालि में सस्वर पाठ करे, परम पावन ने श्रद्धेय तेनजिन प्रियदर्शी को संस्कृत में 'हृदय सूत्र' का पाठ करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने स्वयं उसी सूत्र और मंत्र का तिब्बती पाठ में नेतृत्व किया जिसके पश्चात पुनः रूसी में 'हृदय सूत्र' का पाठ हुआ।

श्रोताओं के प्रश्नों की झड़ी के पश्चात परम पावन उन्हें बताया कि वह 'बोधिसत्वचर्यावतार' के नवें अध्याय के प्रारंभिक श्लोक पढ़ना चाहते थे।

सिद्धांत के इन सभी शाखाओं की
प्रज्ञा के लिए प्रबुद्ध मुनि ने देशना दी।
इसलिए, प्रज्ञा का उत्पाद करें
जो दुःख से निवृत्त होने की कामना रखते हैं।

संवृति और परमार्थ
इस सत्यद्वय को बताया गया है
परमार्थ बुद्धि से परे है
बुद्धि को संवृति कहा गया है।

इस तरह लोक में दो प्रकार के लोग दिखाई पड़ते हैं
अंतर्दृष्टि युक्त योगी और साधारण लोग
इस संबंध में साधारण लोगों की दृष्टि
योगियों से बाध्य हो जाती है, जो स्वयं लोक में हैं

साधारण लोगों के विपरीत जो दृश्य से रोमांचित हो जाते हैं, परम पावन ने समझाया कि योगी जन वे होते हैं जो वस्तुओं की प्रकृति को यथाभूत के रूप में देखते हैं। उन्होंने नागार्जुन को उद्धृत किया:

ऐसा कुछ अस्तित्व में नहीं
जो प्रतीत्य समुत्पादित न हो
इसलिए ऐसा कुछ अस्तित्व में नहीं
जो शून्यता न हो।

फिर उन्होंने हँसी में कहा कि योगी और साधारण लोगों, दोनों को भूख लगती है और मध्याह्म का भोजन लेने की आवश्यकता होती और उनकी सलाह है कि श्रोता जो कुछ प्रवचित हुआ उसकी मध्याह्न में समीक्षा करें, पहले सत्र का समापन हुआ।

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